tag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post7403327869762535619..comments2023-08-22T11:22:46.179-07:00Comments on कथायात्रा: अन्तिम संस्कार/बलराम अग्रवालबलराम अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post-55025888923777122442010-12-04T05:58:11.196-08:002010-12-04T05:58:11.196-08:00वपर भाई जब तुम अन्तिम पैराग्राफ से ऊपर ये पंक्तिया...वपर भाई जब तुम अन्तिम पैराग्राफ से ऊपर ये पंक्तियां लिखते हो कि -"टप की आवाज़ ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियां खोल दीं- लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो !…"<br /><br />__________________________________<br /><br /><br />हालांकि लघुकथा एक आक्रोश पैदा करती है किंतु <br />सुभाष जी का सवाल सही है - क्र्फ्यू होने के बावजूद क्या कोई बेटा इतना संवेदनहीन हो सकता है? यह बहुत बडा सवाल है।प्रदीप कांतhttps://www.blogger.com/profile/09173096601282107637noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post-22649941445476110982010-09-18T11:34:26.263-07:002010-09-18T11:34:26.263-07:00बलराम जी मैंने पहले भी आपकी कई लघुकथायें पढी है। य...बलराम जी मैंने पहले भी आपकी कई लघुकथायें पढी है। ये लघुकथा भी बहुत ही करारा आघात है व्यवस्था की बुराईयों के प्रति.......उपेन्द्र नाथhttps://www.blogger.com/profile/07603216151835286501noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post-65290520056389733222010-09-15T02:52:37.603-07:002010-09-15T02:52:37.603-07:00प्रिय भाई
निष्पक्ष टिप्पणी हेतु आभार। इस बारे में ...प्रिय भाई<br />निष्पक्ष टिप्पणी हेतु आभार। इस बारे में प्रिय आदर्श राठौर को 8 सितम्बर, 2010 को ई-मेल द्वारा प्रेषित अपना मन्तव्य यहाँ लिख रहा हूँ। हो सकता है कि यह एक-और बहस को जन्म दे।<br />'प्रिय भाई<br />उत्तर देने के लिए आभार। आपके मित्र ने सही अनुमान लगाया। कथा को यह समापन देने के पीछे यह दर्शाना रहा कि कुछ दमन कितने छिपे तरीके से किये जाते हैं। कर्फ्यू के नाम पर आम आदमी को इलाज कराने को जाने देने जैसे मूल-अधिकारों से वंचित कर देना किस हद तक न्यायपूर्ण है? बेशक, किताबों में तो सारे अधिकार दर्ज़ हैं, लेकिन वास्तव में? दमनपूर्ण व्यवस्था आम आदमी को एकदम से संघर्षशील नहीं बनाती। शुरू-शुरू में वह निहायत दब्बू , असामाजिक और अपसंस्कृत बनाती है। संघर्षशीलता का अंकुर यहीं से फूटता है, कभी जल्दी-कभी देर से।'बलराम अग्रवालhttps://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post-54641435339185422402010-09-14T00:09:02.450-07:002010-09-14T00:09:02.450-07:00भाई विवशता और असहाय होने का ऐसा चरम कि बेटे को मृत...भाई विवशता और असहाय होने का ऐसा चरम कि बेटे को मृत पिता का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक देने के लिए मज़बूर होना पड़े। बहुत भयावह अन्त है ! पर भाई जब तुम अन्तिम पैराग्राफ से ऊपर ये पंक्तियां लिखते हो कि -"टप की आवाज़ ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियां खोल दीं- लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो !…" इसके बाद तो और कुछ लिखने को रह ही नहीं जाता। दूसरी बात कि बेशक यह वीभत्स सच है परन्तु नेगेटिव एप्रोच को दर्शाता है। लेखक को अपनी रचनाओं में ऐसे नेगेटिव एप्रोच वाले अन्त से बचना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि ऐसी भयावह स्थितियों में भी पोजीटिव एप्रोच का वह सहारा ले! खैर, तुम एक सिद्धस्त और विचारवान लेखक हो, तुम्हारा नज़रिया कुछ और हो सकता है।सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/06327767362864234960noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post-1127400707798816222010-09-06T22:12:43.648-07:002010-09-06T22:12:43.648-07:00जय हो! मैं समझ गया. दरअसल मैं पेट फाड़ने वाली बात ...जय हो! मैं समझ गया. दरअसल मैं पेट फाड़ने वाली बात नहीं का मतलब नहीं समझ रहा था. अब समझ गया इसलिए पूरी कथा समझ में आ गई.Aadarsh Rathorehttps://www.blogger.com/profile/15887158306264369734noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3343673594958119497.post-86330494994394830862010-09-06T13:12:45.248-07:002010-09-06T13:12:45.248-07:00बलराम जी कई बार पढ़ चुका हूं लेकिन मैं कुछ समझ नही...बलराम जी कई बार पढ़ चुका हूं लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पाया. कृपया भावार्थ बताएं...Aadarsh Rathorehttps://www.blogger.com/profile/15887158306264369734noreply@blogger.com