लॉन छोड़कर हम अन्दर की ओर उठ चले। नरेश और सुरेश ने लपककर तभी खाली हुई कोने वाली एक मेज पर कब्जा जमा लिया। उनके पीछे-पीछे मैं भी एक सीट पर जा बैठा।
“असल आजादी के लिए संघर्ष अभी शेष है पत्रकार महोदय!” हमारे बाईं ओर वाली सीट पर बैठे सिगारधारी सज्जन ने मेज थपककर प्रभावपूर्ण स्वर में कहा तो मेरा सिर उन्हीं की ओर घूम गया—“और उसे मैं अन्त तक जारी रखूँगा।” वह बोले।
“वह तो रखनी ही चाहिए।” पत्रकार महोदय ने कहा—“लेकिन व्यवस्था-परिवर्तन हेतु तैयार की गई हमारी संघर्ष-वाहिनी के तहत यह संघर्ष करो तो हम सब तुम्हारे साथ हैं।”
“मुझे मंजूर है।” भयंकर झंझावात में घिरे अपने हाथों में अनायास आ गये किसी सहारे की तरह उन्होंने तपाक-से पत्रकार महोदय का हाथ अपने हाथों में दबोच लिया।
“सिगार से दागेंगे गोली! साले कायर…!!” इस बार सुरेश की बुदबुदाहट ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया—“कॉफी-हाउस की मेजों पर बैठे ये मुर्दे इस देश में पता नहीं कब युद्ध की योजनाओं से मुक्त होंगे?”
“मुद्दा तो इनका ठीक ही है।” नरेश बोला—“जरूरत उस आदमी की है जो यहाँ से बाहर सड़क पर इन्हें इकट्ठा कर सके।”
“आजादी पाने के लिए जिंदादिलों की दरकार होती है नरेश।”
उसी स्वर में तमककर सुरेश बोला—“और उन्हें बाड़े में कैद बकरियों की तरह हाँककर सड़क पर नहीं लाना पड़ता।”
“मेरा ख्याल है कि हमें अब चलना चाहिए।” बहस को तूल पकड़ता महसूस कर मैंने उठते हुए कहा—“ऐसी मन:स्थिति में मुझे नहीं लगता कि हम अपने मामले पर विचार कर पायेंगे।”
सुरेश और नरेश भी चुपचाप वहाँ से उठ लिए। हालाँकि मेरी तरह ही वे भी अच्छी तरह जानते थे कि हम जब भी, जहाँ भी विमर्श के लिए मिलेंगे, मुर्दे हमारे चारों ओर युद्ध की योजनाओं में मशगूल होंगे।