बुधवार, अगस्त 09, 2023

पालनहार / बलराम अग्रवाल

“राजन्, क्या तुमने उज्जयिनी का नाम सुना है?”

“लो सुनो, मैं राजा हूँ वहाँ का; मैंने उसका नाम नहीं सुना!!!”

“अच्छा-अच्छा। यह बात दरअसल मेरे जेहन से उतर ही गयी थी।… चलो, यह बताओ कि उज्जयिनी में सबसे प्रभावशाली इंसान कौन है?”

“बेशक मैं।”

“और ताकतवर?”

“वह भी मैं।”

“सबसे धनी व्यक्ति कौन है?”

“मैं ही हूँ।”

“और निर्धनतम यानी कंगाल?”

“…”

“इसका जवाब तुम्हारे पास नहीं है। तुम्हें मैं उस आदमी के पास ले चलता हूँ, जिसके पास इस आखिरी सवाल का भी जवाब है। तुम बस इतना करना कि इसी क्रम में उससे सवाल करना।”

इसी के साथ राजा यंत्रचालित-सा मुख्य पगडंडी छोड़ बायीं ओर के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर मुड़ लिया। चलता गया, चलता गया…। सामने, सिर पर लाल गमछा बाँधे बूढ़ा-सा एक व्यक्ति खेत की मेंड़ पर बैठा था। उसके सामने जाकर विक्रम के कदम एकाएक रुक गये।

“नमस्ते! क्या मैं आपसे कुछ बातें कर सकता हूँ?” विक्रम के गले से निकला।

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं!” उठकर खड़ा होते हुए बूढ़ा बोला।

“क्या आपने उज्जयिनी का नाम सुना है?”

“आप और हम इस समय उज्जयिनी के सीमावर्ती इलाके में ही खड़े हैं।”

“अच्छा-अच्छा। यह बताओ कि यहाँ का सबसे प्रभावशाली नागरिक कौन है?”

“मैं!” बूढ़े ने बेझिझक कहा।

“ताकतवर?”

“मैं।”

“सबसे धनी व्यक्ति?”

“मैं।”

“और सबसे निर्धन।”

“मैं।”

“धनपति भी तुम, कंगाल भी तुम; यह कैसे हो सकता है?” राजा ने पूछा।

“मैं किसान हूँ महाशय।” बूढ़ा सपाट स्वर में बोला, “राजा मुझे नहीं, मैं राजा को अन्न देता हूँ; लेकिन बदकिस्मती देखिए कि खेतों को जिंदा रखने के लिए साल-दर-सा इस-उस के आगे हाथ पसारते जिंदगी गुजारता हूँ!

“चाहो तो इससे आगे भी बातचीत जारी रख सकते हो राजन्।” वेताल विक्रम के कान में फुसफुसाया और चला गया।

( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )

नरवाहन / बलराम अग्रवाल

“जीवित रहते मैं एक बड़े लोकतन्त्र का शासक था” वेताल ने बोलना शुरू किया, “अनेक वर्षों तक जनता के सिरों पर नाचता रहा।”

फिर!”

फिर, मेरे मन में एक इच्छा जागी कि लोकतन्त्र हो या राजतन्त्र, जनता तो कमजोर और बेबस ही रहती है। अब किसी राजा पर सवारी गाँठनी चाहिए। तुम्हें शायद विश्वास न हो कि इस इच्छा के अगले दिन ही मेरी हत्या हो गयी।

ओह!”

अफसोस मेरी हत्या पर नहीं, उस इच्छा पर करो जिसे साक्षात् देखने के लिए मुझे अपनी हत्या से गुजरना पड़ा।

मतलब?”

जीवित रहते किसी राजा पर नहीं लद सका था, लेकिन

“हे भगवान्!” तात्पर्य समझकर विक्रम के मुँह से निकला।

“दुआ करो, जीते-जी किसी पर लदने की इच्छा कभी भी तुम्हारे मन में न जागे! वेताल ने कहा और उड़ गया।

 ( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )

कोउ नृप होय… / बलराम अग्रवाल

 

अच्छा, एक बात बताओ वेतालविक्रम ने चलते-चलते पूछा।

क्या?”

धमकीभरा सवाल पूछने की लत तुम्हें कब और कैसे लगी?”

मैं और धमकी?” वेताल सोचने-सा लगा; कुछ देर सोचने के बाद बोला, “पहली बात तो यह कि तुमसे पहले मेरी बात किसी अन्य शख्स से कभी हुई ही नहीं! दूसरी यह कि तुम्हें भी धमकी तो मैंने कभी दी ही नहीं!!”

भूल रहे हो कि…” विक्रम ने शिकायती-स्वर में कहा, “पहले ही दिन तुमने धमका दिया था कि--तुम्हारे सवाल का यदि जान-बूझकर जवाब नहीं दूँगा तो मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।

यह सुनते ही वेताल जोर का ठहाका लगा उठा, कोउ नृप होय, हमें का हानी--वाले निष्क्रिय बुद्धिजीवियों से यह देश अटा पड़ा है राजन्। साफ बोलने का अवसर आए तो मुँह में दही जमा बैठने में ही वे अपनी सुरक्षा और बड़प्पन देखते हैं। ऐसे लोगों का सिर टुकड़े-टुकड़े देखने की इच्छा में क्या बुराई है, बताइए?”

( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )