शुक्रवार, जनवरी 05, 2024

तत् त्वं असि / बलराम अग्रवाल

 


दरवाजा खुलवाने को घंटी बजी। अन्दर से आवाज आयी—“कौन?”

“दरवाजा खोलके देख!”

“भाई, तू है कौन? यह जाने बिना मैं दरवाजा नहीं खोल सकता!”

“ दरवाजा खोले बिना कैसे जानेगा? ‘तू’ ही हूँ, खोलकर देख तो सही!”

“ ‘तू ही हूँ’ मतलब ? ‘मैं’ तो अन्दर हूँ!”

जब तक ‘मैं’ अन्दर है, दरवाजा नहीं खुलेगा। ‘मैं’ और ‘तू’ का यह संघर्ष अनवरत जारी है। 

30-12-23/07:30

बड़ी खबर / बलराम अग्रवाल

'दैनिक जन टाइम्स', उज्जैन (16-12-23) में प्रकाशित लघुकथा 'बड़ी खबर' 

                               


                                                                  “महानगर में मेट्रो का चलना कोई खबर नहीं है। खबर है, मेट्रो ट्रेन के आगे प्रेम में असफल लड़की का कूद जाना।” चीफ समाचार सम्पादक संवाददाताओं को समझा रहा था—“ऐसा नहीं है कि प्रेम में लड़कियों के असफल होने में कमी आई हो या उन्होंने आत्महत्या करना बन्द कर दिया हो। कमी आई है, आत्महत्या के लिए मेट्रो ट्रेन का चुनाव करने में। ऐसी लड़कियों को खोजो, सम्पर्क करो। मेट्रो ट्रेन की ओर जाने के लिए उन्हें उकसाओ।”

“महानगर में किसानों का आना कोई खबर नहीं है। खबर है, महानगर में उनका एकजुट होना, धरने पर बैठ जाना।” अपने पाठ को आगे बढ़ाते हुए वह बोला—“ऐसा नहीं है कि सरकार की सारी नीतियों से सभी किसान सहमत या सन्तुष्ट हैं। कतई नहीं। जरूरत है उनके असन्तोष को हवा देने की। आप लोग किसानों से सम्पर्क बढ़ाएं। सरकार की नीतियों को किसान विरोधी बताकर उनके असन्तोष को उभारें। उन्हें धरना-प्रदर्शन के लिए भड़काएं।

अच्छा पत्रकार खबरों के पैदा होने का इन्तजार नहीं करता। जरूरत के अनुसार खुद उन्हें पैदा करता है। न्यूज चैनल को सिर्फ चलाना ही काफी नहीं होता। उसकी टीआरपी की भी चिन्ता करनी होती है। आप लोगों का वेतन टीआरपी से निकलता है, खबरों के ब्रॉडकास्टिंग मात्र से नहीं।”

“एक बात कहूँ सर!” चीफ साँस-भर के लिए रुका तो एक नौजवान संवाददाता ने टोका।

“हाँ-हाँ, जरूर।“

“महानगर में न्यूज चैनल का होना कोई खबर नहीं है। एक और न्यूज चैनल का खुल जाना या खुले-खुलाए चैनल का बन्द हो जाना भी खबर नहीं है। खबर है, टीआरपी न बढ़ने की वजह से चीफ समाचार सम्पादक का डिप्रैशन में चले जाना। तनाव की हालत में अपने ही ऑफिस के इक्विपमेंट्स को तोड़ना-फोड़ना, स्टाफ संवाददाताओं के साथ हाथापाई करना, उनके कपड़े फाड़ डालना।” 

यों कहकर उसने इक्विपमेंट्स को तोड़ना-फोड़ना और अपने व साथियों के कपड़े फाड़ना शुरू कर दिया। 

मोबाइल--8826499115

नया विधान / बलराम अग्रवाल

दिनांक 13-12-23 को 'दैनिक निरन्तर' ब्यावर (राज.) में प्रकाशित लघुकथा।                                 


                                                             अध्यापक महोदय पहले दिन से ही देख रहे थे।

कक्षा में आगे वाली पंक्ति की पूरी बेन्चें खाली रहती थीं। छात्र दूसरी पंक्ति की बेंच से बैठना शुरू करते थे।

अध्यापक नव-नियुक्त थे। इस व्यवस्था से अनजान।

जिज्ञासा के दबाव को न झेल पाकर उन्होंने एक दिन पूछ ही लिया—

“आगे वाली पंक्ति को खाली क्यों छोड़ते हैं आप?” 

“सर, वो अगड़ों के लिए हैं।” सभी छात्र समवेत स्वर में बोले।

अगड़ों के लिए!—मुँह ही मुँह में बुदबुदाये अध्यापक—शिक्षा के मन्दिर में भी जाति-व्यवस्था! फिर सबसे पीछे बैठे एक छात्र को सम्बोधित किया—“तुम तो पाण्डे हो! तुम सबसे पीछे क्यों बैठे हो?”

“आगे की बेंचें अगड़ों के लिए हैं न सर, इसलिए!” 

“अगड़ों से तात्पर्य क्या है?” परेशान अध्यापक ने पूछा।

“अगड़ों से मतलब है सर, कि जो छात्र दिए हुए होमवर्क को लिखकर और याद करके लाएँगे, वही आगे की इन सीटों पर बैठेंगे, शेष सब पिछ्ड़े रहेंगे!”

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बावरा / बलराम अग्रवाल

'दैनिक निरन्तर' ब्यावर (राज.) में 9-12-23 को  प्रकाशित लघुकथा 'बावरा' :

“गेहूँ के खेत देखे हैं?”

“लो सुनो, हम तो बड़े ही गेहुँओं में हुए हैं!”

“खुशबू जानी है उनकी?”

“खुशबू! बासमती थोड़े न है; गेहूँ में क्या खुशबू आएगी!!”

“आती है, उसकी मिट्टी तक से आती है; एकदम मस्त!”

“कच्ची फसल में आती होगी!”

“पकी में और भी मस्त आती है!”

“कैसी बातें करते हो!”

“पकी फसल तो पायल बजाती है खेत-भर में!”

“फसल कैसे पायल बजा सकती है? कोई चाण्डालिनी, पिशाचिनी देख ली होगी।”

“घूमती है, पायल बजाती…गाती हुई घूमती है!”

“घूमती-गाती भी है! पक्का चुड़ैल देख ली तुमने।” 

“चुड़ैल नहीं, फसल।”

“फसल!…फसल कैसे फसल में घूमेगी। बावरा समझे हो क्या?”

“……”

“नहीं हैं, बावरे नहीं हैं हम। कोशिश भी मत करो!”

“बावरे होते तो फसल की गंध सुँघाई देती, झंकार सुनाई देती और वह नाचती-गाती भी दिखाई देती! सॉरी यार, तुम बावरे नहीं हो।”

“हमें तो तुम ही बावरे लग रहे हो भैया! हमें जाने दो।”

सम्पर्क : बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेज़ीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र) 

मोबाइल : 8826499115

मिलना एक योद्धा से / बलराम अग्रवाल

दैनिक 'निरन्तर', ब्यावर (राज.) के 23-12-23 अंक में प्रकाशित लघुकथा *मिलना एक योद्धा से*

राजधानी एक्सप्रेस में सवार थे दोनों। परस्पर अजनबी। 

2 टीयर कोच था और सवारियाँ भी इनी-गिनी। 

कम्पार्टमेंट के अपने हिस्से में वे ही दोनों थे। आमने सामने की सीट। ट्रेन चले काफी समय बीत गया था। सिर्फ दो के बीच अबोला लम्बे समय तक कायम नहीं रह सका। एक ने पहल की—

“माफ कीजिए, क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ?”

“जी, क्यों नहीं!” युवक ने कहा, “मैं शेखर आर्य! आप?”

“मैं शिखा, शिखा वार्ष्णेय! हैप्पी टु मीट यू।” 

“मुझे भी बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर!” शेखर ने कहा; फिर पूछा, “किसी जॉब में हैं आप?”

“जी, मैं असिस्टेंट प्रोफेसर हूँ! आप?”

“इत्तिफाक से मैं भी!” शेखर हँसा।

“विषय?”

“हिन्दी! आपका?”

“हिस्ट्री! ब्लडी बंडल ऑव ऑल फेक इन्फॉर्मेशन्स।” 

“क्यों?”

“इसलिए कि गणित में, कैमिस्ट्री में, फिजिक्स में एक फार्मूला है जिसके बारे में तय है कि कभी नहीं बदलना! हिन्दी में, अंग्रेजी में घात-प्रतिघात नहीं है…”

“घात-प्रतिघात नहीं है, मतलब?” शेखर ने टोका।

“देखिए, गणित में, कैमिस्ट्री में, फिजिक्स में कुछ डिजिट्स के ऊपर कुछ पावर्स होती हैं, हिन्दी में उन्हें घात कहते हैं! वैसे घात का असली मतलब आप हिन्दी वाले अच्छी तरह जानते ही हैं। अब प्रतिघात, यानी कोई मारा-मारी नहीं है। कबीर, रहीम, तुलसी, नागार्जुन, ज्ञानरंजन, राजेश जोशी, स्वप्निल श्रीवास्तव…सबकी व्याख्याएँ निर्धारित हैं, जीवनियाँ निर्धारित हैं। यानी जैसे वे कल थे, वैसे ही आज हैं, वैसे ही कल रहेंगे। जो कुछ भी इनके बारे में लिखा है, अपरिवर्तनीय है।”

“हिस्ट्री में परिवर्तनीय है?” शेखर ने पूछा।

“बिल्कुल!”

“कैसे?”

“जो इतिहास हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं, हमें पता है कि वह झूठ का पुलिन्दा है!” शिखा ने कहा, “सही इतिहास दरअसल, पाठ्यपुस्तकों से बाहर अन्य किताबों में है, जो विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए उपलब्ध ही नहीं है!”

“आपको तो उपलब्ध है! आप बताइए उन्हें।” शेखर ने उत्तेजित स्वर में कहा।

“मेरे बताने से क्या होगा? परीक्षा में प्रश्न तो पाठ्यपुस्तक से आने हैं और उत्तर भी उसी के अनुरूप दिये जाने जरूरी हैं!”

“तब?”

“पाठ्यपुस्तकों में सुधार किया जाए, और क्या!”

“प्रामाणिकता का आधार क्या रहेगा?”

“वही, जो फेक इन्फॉर्मेशन्स वाली अब की पाठ्यपुस्तकों का रहा था! पाठ-निर्धारण समिति, और क्या!”

“बात तो आपकी ठीक है!” शेखर बोला, “ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चों को गलत इतिहास पढ़ाए जाने के खिलाफ आप सुप्रीम कोर्ट में आवाज उठाएँ ! वही यह निर्धारित करे-कराए कि इतिहास गलत पढ़ाया जा रहा है या नहीं!”

“वहाँ से तो निर्णय आने तक ही कई सेशन निकल जाएँगे!” शिखा ने क्षुब्ध स्वर में कहा, “वैसे तैयारी चल रही है उसकी भी!”

“शिक्षा का मामला है न शिखा जी! जबरदस्ती नहीं की जा सकती।”

“गलत पढ़ाना भी तो जबरदस्ती है! गलत पढ़ाते समय सही जानकारी वाले की आत्मा पर कितना बोझ पड़ता है, जानते हैं?”

“जानता तो नहीं हूँ लेकिन महसूस कर सकता हूँ!” शिखर बोला।

“मैंने इस बारे में सरकार को पत्र लिखे हैं, प्रमाण भी दिये हैं! देखिए क्या होता है।” शिखा ने कहा।

“यानी कि आप हर रास्ते से वार कर रही हैं!” शिखर ने ठहाका लगाया।

“बेशक!” शिखा भी बेझिझक हँसी, फिर गम्भीर स्वर में बोली, “हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि अपने बच्चों को हम अपने जातीय गौरव की सही जानकारी दें! यह मेरे बच्चों का हक है और इसे मैं दिलाकर रहूँगी।”

“वॉव! इस समय मैं इतिहास की लक्ष्मीबाई के सामने बैठा हूँ! ” रोमांचित अंदाज में शिखर बोला, “बुरा न मानें शिखा जी, तो एक सेल्फी हो जाए! मैं इस लम्हे को सहेजकर रख लेना चाहता हूँ।”

“क्यों नहीं!” शिखा ने हथेली से ही अपने बाल ठीक किए और सम्हलकर बैठ गयी। शेखर ने मोबाइल निकाला। उसकी ओर जाकर दो-तीन सेल्फी लीं और अपनी सीट पर आ बैठा।

बातों का नया सिलसिला शुरू हो गया। --000--

गुरुमंत्र/बलराम अग्रवाल

दिनांक 02-01-2024 को दैनिक निरन्तर, ब्यावर राज में लघुकथा 'गुरुमन्त्र'। 

विवाह के बाद उसे पता चला कि जिसकी वह ब्यहता बनी है, वह दरअसल इन्सान नहीं है। थक-हारकर उसने अपनी माँ को यह बात बतायी। माँ ने कहा-“ससुराल में ज्यादातर लड़कियों का वास्ता भेड़ों और भेड़ियों से ही पड़ता है शुरू-शुरू में; लेकिन बाद में वे सध जाते हैं।” 

“न माँ कुछ समझने को तैयार है मम्मी, न बेटा।” लड़की ने कहा,  “बहला-फुसलाकर भी इनमें भेद नहीं किया जा सकता।”

“भेद करने की नहीं, साधने की बात कह रही हूँ वन्दना।” माँ ने कहा। 

“बन्दा अपने कमरे में बाद में घुसता है, पहले माँ के कमरे में जाता है मन्त्र लेने।” वन्दना ने अपनी बात जारी रखी।

“तुझे इसमें क्या ऐतराज है?” 

“ऐतराज यह है कि वहाँ से निकलते ही चीखेंगे-‘दोपहर में माताजी को समय पर दवाई क्यों नहीं दी? खाने के बाद खुद-ब-खुद बरतन उठाने क्यों नहीं गयी, माताजी को आवाज क्यों लगानी पड़ती है हर बार?’ वगैरा-वगैरा।”

“खाना रखकर तू वहीं बैठ जाया कर। आवाज लगाने का झंझट ही खत्म।”

“वह भी किया एक बार। मेरे बैठते ही भड़क गयीं। कहा—‘सिर पर ही बैठ गयी! खाना तो चैन से खा लेने दे!’ तब से बैठना बंद कर दिया। ऑफिस से आने के बाद अगर मुझे डाँटने की आवाज सासु-माँ के कानों तक नहीं पहुँची तो खुद कमरे में आ धमकती हैं। फिर, आँखों ही आँखों में पता नहीं क्या दबाव बनाती हैं कि ये मुझ पर भड़कना शुरू हो जाते हैं।”

“ओह! इसका एक ही इलाज है बेटा—लव मी लव माय डॉग!”

“मतलब?”

“भेड़ की माँ को साध! वह सध गयी तो भेड़िया बना भेड़ा, पिल्ला बन तेरे पीछे कूँ-कूँ करता घूमेगा और पीछे-पीछे उसकी माँ भी।” 21-12-23/23:50

बुधवार, अगस्त 09, 2023

पालनहार / बलराम अग्रवाल

“राजन्, क्या तुमने उज्जयिनी का नाम सुना है?”

“लो सुनो, मैं राजा हूँ वहाँ का; मैंने उसका नाम नहीं सुना!!!”

“अच्छा-अच्छा। यह बात दरअसल मेरे जेहन से उतर ही गयी थी।… चलो, यह बताओ कि उज्जयिनी में सबसे प्रभावशाली इंसान कौन है?”

“बेशक मैं।”

“और ताकतवर?”

“वह भी मैं।”

“सबसे धनी व्यक्ति कौन है?”

“मैं ही हूँ।”

“और निर्धनतम यानी कंगाल?”

“…”

“इसका जवाब तुम्हारे पास नहीं है। तुम्हें मैं उस आदमी के पास ले चलता हूँ, जिसके पास इस आखिरी सवाल का भी जवाब है। तुम बस इतना करना कि इसी क्रम में उससे सवाल करना।”

इसी के साथ राजा यंत्रचालित-सा मुख्य पगडंडी छोड़ बायीं ओर के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर मुड़ लिया। चलता गया, चलता गया…। सामने, सिर पर लाल गमछा बाँधे बूढ़ा-सा एक व्यक्ति खेत की मेंड़ पर बैठा था। उसके सामने जाकर विक्रम के कदम एकाएक रुक गये।

“नमस्ते! क्या मैं आपसे कुछ बातें कर सकता हूँ?” विक्रम के गले से निकला।

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं!” उठकर खड़ा होते हुए बूढ़ा बोला।

“क्या आपने उज्जयिनी का नाम सुना है?”

“आप और हम इस समय उज्जयिनी के सीमावर्ती इलाके में ही खड़े हैं।”

“अच्छा-अच्छा। यह बताओ कि यहाँ का सबसे प्रभावशाली नागरिक कौन है?”

“मैं!” बूढ़े ने बेझिझक कहा।

“ताकतवर?”

“मैं।”

“सबसे धनी व्यक्ति?”

“मैं।”

“और सबसे निर्धन।”

“मैं।”

“धनपति भी तुम, कंगाल भी तुम; यह कैसे हो सकता है?” राजा ने पूछा।

“मैं किसान हूँ महाशय।” बूढ़ा सपाट स्वर में बोला, “राजा मुझे नहीं, मैं राजा को अन्न देता हूँ; लेकिन बदकिस्मती देखिए कि खेतों को जिंदा रखने के लिए साल-दर-सा इस-उस के आगे हाथ पसारते जिंदगी गुजारता हूँ!

“चाहो तो इससे आगे भी बातचीत जारी रख सकते हो राजन्।” वेताल विक्रम के कान में फुसफुसाया और चला गया।

( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )

नरवाहन / बलराम अग्रवाल

“जीवित रहते मैं एक बड़े लोकतन्त्र का शासक था” वेताल ने बोलना शुरू किया, “अनेक वर्षों तक जनता के सिरों पर नाचता रहा।”

फिर!”

फिर, मेरे मन में एक इच्छा जागी कि लोकतन्त्र हो या राजतन्त्र, जनता तो कमजोर और बेबस ही रहती है। अब किसी राजा पर सवारी गाँठनी चाहिए। तुम्हें शायद विश्वास न हो कि इस इच्छा के अगले दिन ही मेरी हत्या हो गयी।

ओह!”

अफसोस मेरी हत्या पर नहीं, उस इच्छा पर करो जिसे साक्षात् देखने के लिए मुझे अपनी हत्या से गुजरना पड़ा।

मतलब?”

जीवित रहते किसी राजा पर नहीं लद सका था, लेकिन

“हे भगवान्!” तात्पर्य समझकर विक्रम के मुँह से निकला।

“दुआ करो, जीते-जी किसी पर लदने की इच्छा कभी भी तुम्हारे मन में न जागे! वेताल ने कहा और उड़ गया।

 ( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )