बुधवार, जून 09, 2010

निवारण/बलराम अग्रवाल

-->
राजनीतिक-गर्दिश का दौर था। संकट-निवारण के उद्देश्य से पिता ने हवन का आयोजन किया। उसमें अपने कुल-देता की प्रतिमा को उसने हवन-स्थल पर स्थापित किया। और, प्रतिमा के एकदम बाईं ओर उसके बेटों ने एक विचित्र-सा मॉडल लाकर रख दिया।
यह क्या है? पिता ने पूछा।
बचपन में संगठन के महत्व को समझाने के लिए आपने एक बार लकड़ियों के एक गट्ठर का प्रयोग किया था पिताजी। बड़े पुत्र ने उसे बताया,आपकी उस शिक्षा को हमने आत्मसात कर लिया। और तभी-से, आराध्य के रूप में इस मॉडल को अपना लिया।
उफ्। पिता ने अपने माथे पर हाथ मारा और वहीम बैठ गया। मौजूदा संकट का कारण पार्टी के बाहर नहीं, पार्टी के भीतर, या कहूँ कि घर के ही भीतर मौजूद है… वह बुदबुदाया,कुल-देवता ने बड़ी कृपा की कि सही समय पर इस सच पर से परदा हटा दिया। इसके साथ ही वह देवता की प्रतिमा के आगे दण्डवत बिछ गया।
अरे मूर्खो! जो बताया जा रहा होता है, सिर्फ उसी को सुनना सीखे हो? लानत है। जो घट रहा है, गुजर रहा है, उस पर भी निगाह डालनी सीखो।…मैंने लकड़ियों का एक गट्ठर तुमको दिया था? देवता के अभिवादन से उठते हुए वह चीखा।
जी! बेटों ने स्वीकारा।
…और उसको तोड़ने के लिए बोला था?
जी।
…और जब तुममें-से कोई भी उसको न तोड़ पाया तो उस गट्ठर को खोलकर उसकी एक-एक लकड़ी को तुम्हें सौंप दिया था। पिता बोला,क्या हुआ था तब?
तब हम भाइयों ने पलक झपकते ही अपने-अपने हिस्से की लकड़ी को तोड़ डाला था। सभी बेटे एक-स्वर में बोले।
और तब आपने समझाया था कि एकता में ही बल है, एक रहना सीखो। अंत में मँझले बेटे ने अपना वाक्य जोड़ा।
चुप! चुप!! पिता एकदम-से उस पर झल्ला उठा। बोला,कुछ बातें बिना बोले भी कही और सुनी जाती हैं मूर्ख। मैंने बोला और तुमने सुना, बस? क्या तुमने यह नहीं देखा कि मैंने अच्छे-खासे बँधे-बँधाए गट्ठर को खोल डाला था? उसकी लकडियों को अलग-अलग कर डालने का मेरा करिश्मा तुमने नहीं देखा? एकता में शक्ति की बात भूल जाओ। याद रखो, मैंने हमेशा तुम्हें खोलने और तोड़ने की ही शिक्षा दी है। इन दिनों गहरे संकट में फँसा हूँ। बंधनों-गठबंधनों को खोलना शुरू करो। एक-एक आदमी को तोड़ो। मेरी शिक्षा के फैलाव को पहचानो…जा…ऽ…ओ…।