शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की अठारहवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                        (अठारहवीं कड़ी)
                                                                             चित्र:बलराम अग्रवाल
टैक्सी रुद्रप्रयाग की सीमा में प्रवेश कर चुकी थी। बच्चे इस समय एकदम चुप थे। कलियासौड़ का भयावह दृश्य वे भूल नहीं पा रहे थे। वहाँ कई घण्टे बरबाद हो चुके थे।
‘‘भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना देखनेसुनने को नहीं मिली।’’ दादाजी कह रहे थे।
दिन करीबकरीब ढल ही चुका था। जाहिर था कि वे सब आज की रात रुद्रप्रयाग में ही रुकेंगे। बसस्टैंड के निकट पहुँचे ही थे कि अल्ताफ ने देखा—दुबला-पतला एक बूढ़ा गढ़वाली गुस्से में बोलता हुआ सड़क के बीचों-बीच तेजी के साथ इधर से उधर और उधर से इधर घूम रहा है। उसकी चाल-ढाल और बर्ताव से डरकर अल्ताफ ने गाड़ी को आगे बढ़ाने की बजाय किनारे लगा दिया।
“क्या हुआ?” दादा जी ने पूछा, “गाड़ी किनारे क्यों लगा दी?”
“सामने इस भले आदमी को छेड़ दिया लगता है किसी मनचले ने…” अल्ताफ बोला, “काफी गुस्से में है। कहीं गाड़ी पर ही पत्थर-उत्थर न दे मारे, इसलिए साइड में लगा दी है कुछ देर के लिए।”
सड़क पर उसे उकसाने वालों की भीड़-सी लग गई थी। थोड़ा शांत होते ही कोई न कोई तुरन्त उससे कुछ कह देता और वह फिर शुरू हो जाता।
“बोड़ा जी, वो टूरिस्ट कह रहे थे कि आगे कभी नहीं आना इधर…” किसी ने छेड़ा।
“मत आना जी,  मत आना… ये कोई पिकनिक स्पाट नहीं है …देवताओं की भूमि है… देवों की घाटी है ये…  रहकर देखो कुछ दिन इधर …नानी-दादी सब याद आ जायेंगी जब चढ़ना-उतरना पड़ेगा ढलानों पर… सावन के महीने में पवन ऐसा सोर करता है लालाजी कि जियरा झूमना बंद कर देता है… अच्छे-अच्छे की आँखें बंद हो जाती हैं डर के मारे …भाई मेरे, यहाँ के पेड़ों पर झूले नहीं पड़ते …मवेशियों के लिए घास रखी जाती है सँजोकर…”
“कह रहे थे रास्ते बड़े खतरनाक हैं।” उसे सुनाता हुआ कोई दूसरा बोला।
“खतरनाक रास्तों पर चलकर ही स्कूल जाते हैं हमारे बच्चे… माँएँ, बेटियाँ और बहुएँ इन्हीं रास्तों से घास काटने और मवेसी चराने को जाती हैं… तुम्हारा क्या, तुमने तो अंकल चिप्स के खोल और बिसलरी की बोतलें और पोलीथीन फेंक जानी हैं यहाँ…  गंदा कर जाना है सारे माहौल को…” यों कहता हुआ वह बूढ़ा सड़क पर दूसरी ओर को चला गया। किसी ने पुन: उकसाया तो उसने सुना नहीं, चलता चला गया।
“चलो, जान बची।” गाड़ी स्टार्ट करते हुए अल्ताफ बुदबुदाया, “बोलता रहता तो पता नहीं कितनी देर और गाड़ी को यूँ ही खड़ी किये रखना पड़ता।”
“जो भी हो, बातें तो वह ठीक ही कह रहा था बेचारा।” पीछे बैठे दादा जी अल्ताफ से बोले।
“वह सब तो ठीक है बाबू जी, ” सुधाकर बोले, “लेकिन इस समय हम ये सब शिकायतें सुनते हुए समय बरबाद करने की हालत में नहीं हैं न।”
“यह एक अलग बात है।” दादा जी बोले, “लेकिन हम घूमने आने वालों से उसकी शिकायतें सब की सब जायज थीं।”
“आप तो यहाँ के रंग में रंगे हुए हो,” सुधाकर ने कहा, “आप नहीं समझोगे।”
“और तुम इसलिए नहीं समझोगे कि तुम इस रंग के असर को जानते नहीं हो। खैर, गाड़ी चलाओ अल्ताफ; साहब को किसी का दु:ख-दर्द सुनने की फुर्सत नहीं है, देर हो रही है।” दादा जी व्यंग्यपूर्वक बोले।
अल्ताफ ने गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी। कुछ ही आगे गाड़ी पार्क की जा सकने लायक जगह देखकर उसने टैक्सी को रोक दिया क्योंकि उसे पहले ही बता दिया गया था कि रुद्रप्रयाग जाना है। बच्चों को साथ लेकर दादाजी नीचे उतरे। सुधाकर ने कुली को आवाज़ दी और उसे सामान उठाकर बदरी केदार सेवा समितिके विश्रामघर की ओर ले चलने को कहा।

विश्रामघर में सामान रखने के बाद दादाजी आराम से लेटने की बजाय कमरे को ताला लगाकर बच्चों को बाजार घुमाने ले चले। ममता और सुधाकर भी साथ चले।
‘‘रुद्रप्रयाग में बाबा काली कमली वाले की धर्मशाला नहीं है दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘है…लेकिन वह बाजार से दूर है। अलकनन्दा के पुल के उस पार।’’
घूमते और बातें करते वे अलकनन्दा के पुल तक गए। फिर वापस विश्रामघर के अपने कमरे की ओर लौट चले। खाना खाने के मूड में न तो बच्चे थे और न ही दादाजी। इसलिए कमरे पर पहुँचकर उन्होंने अन्दर से उसे बन्द किया और लाइट बन्द करके बिस्तर में घुस गए।
‘‘रुद्र तो भगवान शिव का ही एक नाम है न दादाजी।’’ मणिका ने अँधेरे में ही बातचीत शुरू की।
‘‘हाँ बेटे।’’ दादाजी बोले,‘‘भगवान रुद्र को प्रसन्न करके नारदजी ने यहीं पर उनसे वीणाप्राप्त की थी और यहीं पर उनसे संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उससे पहले नारद के हाथों में वीणा नहीं रहती थी।’’
‘‘यहाँ भी कई प्रसिद्ध मन्दिर होंगे दादाजी।’’ मणिका ने पुन: पूछा।
‘‘उत्तराखण्ड का तो चप्पाचप्पा मन्दिर है बेटे।’’ दादाजी बोले,‘‘यहाँ से चारसाढ़े चार किलोमीटर दूर कोटेश्वर महादेव की एक गुफा है। इस गुफा के भीतर अनेक शिवलिंग हैं, जिन पर गुफा की छत से लगातार पानी टपकता रहता है।…कल सवेरे रास्ते में एक जगह मैं तुमको दिखाऊँगा। सवेरे जल्दी उठना है। अब सो जाओ।’’
‘‘सिर्फ एक बात और दादाजी…’’ निक्की बोला ।
‘‘पूछो।’’
‘‘अरे, पूछना कुछ नहीं है…मेरे कहने का मतलब है कि सोने से पहले अपनी ओर से सिर्फ एक कहानी और बता दीजिए।’’
‘‘एक कहानी और!…’’ उसकी याचना पर दादाजी कुछ सोचने लगे, फिर बोले,‘‘सुनो, यह रुद्रप्रयाग, हमारी तरह नीचे, मैदान की तरफ से आने वाले यात्रियों के लिए बदरीनाथ और केदारनाथ का संगम है। जो लोग केदारनाथ के दर्शन के लिए जाना चाहते हैं वे यहाँ से गौरीकुंड को जाते हैं और जिन्हें बदरीनाथ के दर्शन के लिए जाना होता है वे हमारी तरह इसी रास्ते पर आगे की ओर बढ़ते हैं।’’
उनकी बातें सुनते हुए बच्चे उत्सुक आँखों से उन्हें निहारते बैठे थे कि दादाजी बोले,‘‘आज बस इतना ही।…गुड नाइट!’’
बच्चों ने धीमे स्वर में गुड नाइटकहा। लेटे तो थे ही, चुपचाप सो गए।

आगामी अंक में जारी

शनिवार, फ़रवरी 08, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की सत्रहवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                           (सत्रहवीं कड़ी)

                                                                    चित्र:राजेश उत्साही
अगला दिन। दादाजी तो अपने नियम के अनुसार सुबह के लगभग साढ़े चार बजे जाग ही गए थे। बच्चों को उन्होंने सोता रहने दिया। ठीक ही रहा जो सुधाकर ने आगे की यात्रा आराम से करते हुए चलने का सुझाव दिया’—वे सोचने लगे। बच्चों को  कमरे में अकेले सोया हुआ छोड़कर वे घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकते थे। इसलिए शौच आदि से निवृत्त होकर कमरे में ही हल्काफुल्का व्यायाम करने लगे। काफी देर बाद, जब उन्हें बाहर से कुछ आवाजें आने लगीं तो उन्होंने घड़ी देखी। सुबह के छ: बज रहे थे। बच्चे कल काफी थक गए थे इसलिए अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे। ममता और सुधाकर तो छुट्टी के दिन से पहली रात को सोते ही घोड़े बेचकर हैंयह सोचकर वे मुस्करासे दिए। अपने आराम में रुकावट न आए, इस बदमाश ने इसीलिए आराम से यात्रा करने का सुझाव दिया होगावे सोचने लगेजो भी हो, सुझाव उसका है ठीक ही।
आगामी एक घण्टा उन्होंने स्नानध्यान आदि में बिता दिया। सात बजे के करीब सुधाकर का फोन आया—‘‘चरण छूता हूँ बाबूजी।’’
‘‘सुखी रहो बेटा।’’ वे बोले।
‘‘जागने में देर हो गई, माफी चाहता हूँ।’’
‘‘देर कहाँ हुई? यह तो तेरा रोज़ाना का ही टाइम है।’’ दादाजी ने चुटकी ली।
‘‘आप भी बस…’’ सुधाकर ने शर्माकर कहा। फिर पूछा,‘‘बच्चे तो अभी सो ही रहे होंगे?’’
‘‘मेरा बच्चा होकर जब तू जल्दी बिस्तर छोड़ना नहीं सीख पाया तो तेरे बच्चे होकर ये कैसे जल्दी बिस्तर छोड़ देंगे?’’
‘‘अरे, आप मुझे नहीं सुधार पाए, इन्हें तो सुधार लीजिए!’’ सुधाकर ने ताना कसा,‘‘इन दिनों तो ये शतप्रतिशत आपके चार्ज में हैं।’’
‘‘उड़ा ले मेरी कमजोरी का मज़ाक बेटा।’’ दादाजी हँसकर बोले,‘‘बड़ेबूढ़ों का लाड़ बच्चों आरामतलब बना देता है, मैं जानता हूँ।’’
‘‘मैं चाय आर्डर कर रहा हूँ।’’ बात को विराम देते हुए सुधाकर ने कहा,‘‘बच्चों को भी जगा दीजिए। अपने लिए हमने इधर ही मँगा ली है।’’
‘‘ठीक है बेटे।’’ दादाजी ने कहा और फोन को रखकर बच्चों को जगाने लगे।

खापीकर पूरी तरह तैयार होने और यात्रीनिवास से बाहर निकलने में उनको दस बज गए। सुधाकर ने अल्ताफ को फोन कर दिया था। उसने जैसे ही टैक्सी को यात्रीनिवास के गेट पर लगाया, कई कुली उधर दौड़ आए। सुधाकर से तय करके एक कुली यात्रीनिवास के अन्दर से सामान उठाकर टैक्सी में रखवाने लगा। ममता, मणिका और निक्की के साथ दादाजी टैक्सी में बैठ गए। कुली को उसकी मजदूरी चुकाकर सुधाकर भी उसमें जा बैठे।
टैक्सी रुद्रप्रयाग की ओर बढ़ चली।
‘‘यह आप दोनों ने अच्छा किया।’’ दादाजी बच्चों से बोले, ‘‘पूरे रास्ते अलकनन्दा उसी ओर बहती नजर आएगी।’’
‘‘टैक्सी को आरामआराम से चलाना अल्ताफ अंकल!’’ मणिका ने अल्ताफ से कहा।
‘‘हाँ,’’निक्की बोला,‘‘ और दादाजी, आप रास्ते में आनेवाली जगहों के बारे में हमें बताना नहीं भूलना।’’ 
‘‘अच्छा! अरे भाई, मैं तो आप लोगों के साथ आया ही इसलिए हूँ। सुनो,’’ दादाजी  बताने लगे,‘‘यहाँ से कुछ ही आगे शकुरना गाँव आएगा। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य ने इस गाँव में कठोर तप किया था।  उसके बाद आएगा फरासू। इस गाँव के पास अलकनन्दा के किनारे परशुराम कुण्ड है। कहते हैं कि भगवान परशुरामजी ने इस जगह के निकट बहुत समय तक तपस्या की थी।’’
‘‘उसके बाद?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘उसके बाद आने वाली जगह प्रसिद्ध भी है और बरसात के दिनों में भयानक रूप धारण कर लेने वाली भी।’’
‘‘वह कौनसी जगह है दादाजी?’’ दोनों बच्चों ने एक साथ पूछा।
‘‘वह है कलियासौड़। इस जगह के आसपास कुछ गुफाएँ हैं जिनमें महिमामयी जगद्माता महाकाली के बहुतसे भक्त तपस्या में लीन रहते हैं। कलियासौड़ के पास सड़क के ऊपर वाला एक पहाड़ बरसात के दिनों में दलदल के रूप में बहने लगता हैय जिसके कारण कभीकभी यातायात कईकई दिनों तक बन्द रहता है।’’
‘‘यानी इधर के यात्री इधर और उधर के यात्री उधर!’’
‘‘हाँ, रुकना ही पड़ता है।’’ दादाजी बोले,‘‘कोई दूसरा रास्ता तो जानेआने के लिए है नहीं।’’
बातें करते और अलकनन्दा की रमणीयता का आनन्द लेते उन्हें पता ही नहीं चला कि उनकी टैक्सी कलियासौड़ तक आ पहुँची है। अब इसे दुर्भाग्य कहा जाए या सौभाग्य कि जिस पहाड़ी के बारे में दादाजी ने कुछ समय बताया था, कल रात उस पर बारिश हो गई और भारी मात्रा में उससे बहकर आई हुई कच्ची मिट्टी सारी सड़क पर फैलती हुई नीचे नदी की ओर जा रही थी।
‘‘रात तीन बजे के करीब हुई थी बारिश।’’ आसपास के लोगों ने बताया,‘‘यह तो अच्छा हुआ कि कोई वाहन उस समय यहाँ से नहीं गुजर रहा था।’’
यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। हालाँकि बारिश अब बन्द हो चुकी थी लेकिन दलदल अभी भी तेजी से नीचे की ओर आ रहा था। उसके चलते कोई वाहन तो क्या, पैदल व्यक्ति भी एक ओर से दूसरी ओर जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। स्थानीय लोगों ने बताया कि सीमा सड़क सुरक्षा के जवान इस सारे दलदल को कुछ ही घण्टों की मशक्कत के बाद नीचे नदी में धकेल देंगे और रास्ते को जानेआने लायक साफ कर देंगे।
बच्चों को इस बहाने एक नया अनुभव प्राप्त हो रहा था। डैडी की देखरेख में वे उस सारे दृश्य को नजदीक से देखकर आए।
करीब तीन घण्टे  की मशक्कत के बाद सुरक्षा जवानों ने सड़क को पूरी तरह साफ कर दिया। पहले उन्होंने बायीं ओर खड़ी बसों और कारों की सब सवारियों को उतरवा दिया, फिर खाली बसों को धीरेधीरे दूसरे ओर भेजना शुरू किया। अल्ताफ भी मुस्तैदी के साथ अपनी सीट जा बैठा। उसकी टैक्सी एक बस के पीछे खड़ी थी। वह धीरेधीरे चलाता हुआ उसे उस पार ले गया। बूढ़े व कमजोर यात्रियों, बच्चों तथा महिलाओं को सैनिकों व स्थानीय नागरिकों ने सहारा देकर दूसरी ओर पहुँचाने का काम किया। कुछ समय तक सुधाकर ने भी इस काम में उनका हाथ बँटाया। जब एक ओर की सारी गाड़ियाँ व सवारियाँ दूसरी ओर पहुँच गईं, तब दूसरी ओर की गाड़ियों व सवारियों को इस ओर लाने का काम शुरू हुआ।
‘‘ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है।’’ दूसरी ओर पहुँचकर टैकसी में बैठने के बाद दादाजी बोले,‘‘श्रीनगर के यात्रीनिवास को छोड़कर सुबह जल्दी चल दिए होते तो हमें बहुत परेशान होना पड़ सकता था।’’
‘‘दरअसल, गढ़वाल का पहाड़ ज्यादातर कच्चा पहाड़ है बाबूजी।’’ सुधाकर बोले,‘‘इसलिए जरासी बारिश में ही दलदल बनकर बहने लगता है।’’
‘‘जो भी हो, तेरी राय मानने से लाभ ही हुआ।’’
‘‘भूल न जाना, आगे भी ध्यान रखना यह बात।’’
‘‘जरूर।’’
आगामी अंक में जारी