सोमवार, नवंबर 16, 2009

दिल्ली वाले/बलराम अग्रवाल


ले ही उसने शराब न पी रखी हो, लेकिन हाव-भाव से वह नशे में ही नजर आ रहा था। आँखें बाहर को उबली पड़ रही थीं। चेहरे पर तनाव था और शरीर में कम्पन। सभा-भवन में घुसते ही वह चिल्लाया—“ओए…,तुम में दिल्ली से आया हुआ कौन-कौन है?
हालाँकि वह खाली हाथ था। न कोई पिस्तौल, न चाकू-छुरा, न डण्डा-लाठी। लेकिन उसकी आवाज़ बेहद धारदार थी। सभा-भवन में मौजूद हर शख्स का चेहरा उसकी ओर घूम गया। बातचीत पर विराम लग गया। सन्नाटा छा गया।
एक जगह खड़े होकर उसने भीतर बैठे समस्त प्रतिनिधियों पर अपनी उबाल-खायी आँखें दौड़ायीं, जैसेकि दिल्ली से आने वाले प्रतिनिधियों को वह देखते ही पहचान लेगा और घसीटकर बाहर फेंक देगा।
बदतमीजी और दादागीरी से लबालब थी उसकी यह हरकत। वहाँ मौजूद करीब-करीब हर आदमी का चेहरा तमतमा उठा। संयोजकों में से एक ने हालात की नाजुकता को भाँप लिया। वह फुर्ती-से उठा और पास जाकर संयत स्वर में उससे पूछा,क्या हुआ कामरेड!…किस दिल्ली वाले को ढूढ़ रहे हैं आप?
किसी खास को नहीं…सभी को। वह बोला,जो-जो भी दिल्ली से आया है, उसे बाहर निकालो इस हॉल से…।
आखिर हुआ क्या? इस बीच एक अन्य संयोजक ने वहाँ पहुँचकर पूछा,किसी दिल्ली वाले ने कुछ उलट-सुलट कर दिया क्या?


इस मीटिंग को अगर सफल बनाना है कामरेड, तो दिल्ली से आए हर आदमी को यहाँ से बाहर करना ही होगा। वह बोला।
लेकिन क्यों कामरेड!…आखिर बात क्या है?
दिल्ली का आदमी… वह किंचित उत्तेजित आवाज में बोला,सभा के बीच में बैठकर लफ्जों की मिसाइलें तो दाग सकता है, लेकिन मैदान में कदम से कदम और कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चल सकता…।
संयोजक चुपचाप उसकी दलील को सुनते रहे।
लफ्जों के लुभावने जाल से अपनी मीटिंग और आन्दोलन को बचाना है…उसे ठोस रूप देना है, तो दिल्ली की हवा से इसे दूर रखना होगा कामरेड! अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह निर्णायक अन्दाज़ में प्रतिनिधियों से बोला; फिर देश के हर प्रांत से आए, हॉल में बैठे प्रतिनिधियों पर चीखा,सुना नहीं क्या? …दिल्ली से जो-जो भी आया है, बाहर निकल जाओ…!


मंगलवार, अक्तूबर 20, 2009

बीती सदी के चोंचले/बलराम अग्रवाल

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इमाम साहब…दरवाज़ा खोलिए इमाम साहब…जरा जल्दी बाहर आइए…!
सुबह की नमाज का वक्त अभी ठीक-से हुआ भी नहीं था कि आठ-दस लोगों की भीड़ ने इमाम साहब का दरवाज़ा पीट डाला।
इमाम साहब करीब-करीब तैयार थे। लोगों की पुकार सुनते ही दरवाजा खोलकर सामने आ गए।
मैं तो आ ही रहा था निकलकर… वह हैरानी भरे अन्दाज़ में बोले,क्या हुआ?
मस्जिद की सीढ़ियों पर सुअर काटकर फेंक रखा है किसी काफिर ने…! कई लोग एक साथ चीखे।
इस बदतमीजी का मज़ा चखना पड़ेगा हरामियों को…। एक आवाज़ आई।
उन्होंने मस्जिद को नापाक किया है…हम उनकी गली-गली, घर-घर को रंग डालेंगे…। एक और आवाज़ आई।
इस बीच दो-चार लोग और आ मिले भीड़ में।
चुप रहो…खामोश हो जाओ। इमाम साहब सख्ती से बोले।
हम…दहशत और दबाव में नहीं जी सकते…। बीच में से कोई एक बोला।
इमाम साहब ने एक निगाह आवाज़ वाली जगह पर डाली। अपने गुस्से पर काबू पाया। फिर बड़ी ठण्डी आवाज़ में बोले,बेवकूफ़ हैं वो, जो इस नई सदी में भी पिछली सदी के चोंचलों पर अटके पड़े हैं।…और उनसे ज्यादा बेवकूफ़ हैं आपजो इन छोटे-मोटे टोटकों पर उछल-उछल पड़ते हैं। अक्लमंदी यह है कि जिसने भी दंगा फैलाने का यह प्रपंच रचा है, उसे उसके मक़सद में क़ामयाब मत होने दो। जाओ, और मस्जिद की सीढ़ियों को धोकर साफ कर दो। ठहरो, मैं भी साथ चलता हूँ…।

मंगलवार, जून 30, 2009

अकेले भी जरूर घुलते होंगे पिताजी/बलराम अग्रवाल

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पाँच सौ…पाँच सौ रुपए सिर्फ…यह कोई बड़ी रकम तो नहीं है, बशर्ते कि मेरे पास होतीअँधेरे में बिस्तर पर पड़ा बिज्जू करवटें बदलता सोचता हैदोस्तों में भी तो कोई ऐसा नजर नहीं आता है जो इतने रुपए जुटा सके…सभी तो मेरे जैसे हैं, अंतहीन जिम्मेदारियों वाले…लेकिन यह सब माँ को, रज्जू को या किसी और को कैसे समझाऊँ?…समझाने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है…रज्जू अपने ऊपर उड़ाने-बिगाड़ने के लिए तो माँग नहीं रहा है रुपए…फाइनल का फार्म नहीं भरेगा तो प्रीवियस भी बेकार हो जाएगा उसका और कम्पटीशन्स में बैठने के चान्सेज़ भी कम रह जाएँगे…हे पिता! मैं क्या करूँ…तमसो मा ज्योतिर्गमय…तमसो मा…।
सुनो! अचानक पत्नी की आवाज सुनकर वह चौंका।
हाँ! उसके गले से निकला।
दिनभर बुझे-बुझे नजर आते हो और रातभर करवटें बदलते…। पत्नी अँधेरे में ही बोली, हफ्तेभर से देख रही हूँ…क्या बात है?
कुछ नहीं। वह धीरे-से बोला।
पिताजी के गुजर जाने का इतना अफसोस अच्छा नहीं। वह फिर बोली,हिम्मत से काम लोगे तभी नैय्या पार लगेगी परिवार की। पगड़ी सिर पर रखवाई है तो…।
उसी का बोझ तो नहीं उठा पा रहा हूँ शालिनी। पत्नी की बात पर बिज्जू भावुक स्वर में बोला,रज्जू ने पाँच सौ रुपए माँगे हैं फाइनल का फॉर्म भरने के लिए। कहाँ से लाऊँ?…न ला पाऊँ तो मना कैसे करूँ?…पिताजी पता नहीं कैसे मैनेज कर लेते थे यह सब!
तुम्हारी तरह अकेले नहीं घुलते थे पिताजी…बैठकर अम्माजी के साथ सोचते थे। शालिनी बोली,चार सौ के करीब तो मेरे पास निकल आएँगे। इतने से काम बन सलता हो तो सवेरे निकाल दूँगी, दे देना।
ठीक है, सौ-एक का जुगाड़ तो इधर-उधर से मैं कर ही लूँगा। हल्का हो जाने के अहसास के साथ वह बोला।
अब घुलना बन्द करो और चुपचाप सो जाओ। पत्नी हिदायती अन्दाज में बोली।
बात-बात पर तो अम्माजी के साथ नहीं बैठ पाते होंगे पिताजी। कितनी ही बार चुपचाप अँधेरे में ऐसे भी अवश्य ही घुलना पड़ता होगा उन्हें। शालिनी! तूने अँधेरे में भी मुझे देख लिया और मैं…मैं उजाले में भी तुझे न जान पाया! भाव-विह्वल बिज्जू की आँखों के कोरों से निकलकर दो आँसू उसके कानों की ओर सरक गए। भरे गले से बोल नहीं पा रहा था, इसलिए कृतज्ञता प्रकट करने को अपना दायाँ हाथ उसने शालिनी के कन्धे पर रख दिया।
दिन निकलने को है। रातभर के जागे हो, पागल मत बनो। स्पर्श पाकर वह धीरे-से फुसफुसाई और उसका हाथ अपने सिर के नीचे दबाकर निश्चेष्ट पड़ी रही।

गुरुवार, मई 28, 2009

अपनी-अपनी जमीन/बलराम अग्रवाल


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बुरा तो मानोगे…मुझे भी बुरा लग रहा है, लेकिन…कई दिनों तक देख-भाल लेने के बाद हिम्मत कर रही हूँ बताने की…सुनकर नाराज न हो जाना एकदम-से…। नीता ने अखबार के पन्ने उलट रहे नवीन के आगे चाय का प्याला रखते हुए कहा और खुद भी उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
कहो। अखबार पढ़ते-पढ़ते ही नवीन बोला।
पिछले कुछ दिनों से काफी बदले-बदले लग रहे हैं पिताजी… वह चाय सिप करती हुई बोली, शुरू-शुरू में तो नॉर्मल ही रहते थेसुबह-सवेरे घूमने को निकल जाना, लौटने के बाद नहा-धोकर मन्दिर को निकल जाना और फिर खाना खाने के बाद दो-चार पराँठे बँधवाकर दिल्ली की सैर को निकल जाना। लेकिन…
लेकिन क्या? नवीन ने पूछा।
अब वह कहीं जाते ही नहीं हैं!…जाते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए। वह बोली।
इसमें अजीब क्या है? अखबार को एक ओर रखकर नवीन ने इस बार चाय के प्याले को उठाया और लम्बा-सा सिप लेकर बोला, दिल्ली में गिनती की जगहें हैं घूमने के लिए…और पिताजी-जैसे ग्रामीण घुमक्कड़ को उन्हें देखने के लिए वर्षों की तो जरूरत है नहीं…वैसे भी, लीडो या अशोका देखने को तो पिताजी जाने से रहे…मन्दिर…या ज्यादा से ज्यादा पुरानी इमारतें,बस। सो देख ही डाली होंगी उन्होंने।
सो बात नहीं। नीता उसकी ओर तनिक झुककर किंचित संकोच के साथ बोली,मैंने महसूस किया है…कि…अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी नजरें…मेरा…पीछा करती हैं…जिधर भी मैं जाऊँ!
क्या बकती हो!
मैंने पहले ही कहा थानाराज न होना। वह तुरन्त बोली,आज और कल, दो दिन तुम्हारी छुट्टी है…खुद ही देख लो, जैसा भी महसूस करो।
यों भी, छुट्टी के दिनों में नवीन कहीं जाता-आता नहीं था। स्टडी-रूम, किताबें और वह्। पिछले कई महीनों से पिताजी उसके पास ही रह रहे हैं। गाँव में सुनील है, जो नौकरी भी करता है और खेती भी। माँ के बाद पिताजी कुछ अनमने-से रहने लगे थे, सो सुनील की चिट्ठी मिलते ही नीता और वह गाँव से उन्हें दिल्ली ले आये थे। यहाँ आकर पिताजी ने अपनी ग्रामीण दिनचर्या जारी रखी, सो नीता को या उसको भला क्या एतराज होता। जैसा पिताजी चाहते, वे करते। लेकिन अब! नीता जो कुछ कह रही है…वह बेहद अजीब है। अविश्वसनीय। वह पिताजी को अच्छी तरह जानता है।
आदमी कितना भी चतुर क्यों न हो, मन में छिपे सन्देह उसके शरीर से फूटने लगते हैं। इन दोनों ही दिन नीता ने अन्य दिनों की अपेक्षा पिताजी के आगे-पीछे कुछ ज्यादा ही चक्कर लगाए; लेकिन कुछ नहीं। उसके हाव-भाव से ही वह शायद उसके सन्देहों को भाँप गए थे। अपने स्थान पर उन्होंने आँखें मूँदकर बैठे या लेटे रहना शुरू कर दिया।…लेकिन इस सबसे उत्पन्न मानसिक तनाव के कारण रविवार की रात को ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। सन्निपात की हालत में उसी समय उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना जरूरी हो गया। डॉक्टरों और नर्सों ने तेजी-से उनका उपचार कियाइंजेक्शन्स दिये, ग्लूकोज़ चढ़ाया और नवीन को उनके माथे पर ठण्डी पट्टियाँ रखते रहने की सलाह दी…तब तक, जब तक कि टेम्प्रेचर नॉर्मल न आ जाए।
करीब-करीब सारी रात नवीन उनके माथे पर बर्फीले पानी की पट्टियाँ रखता-उठाता रहा। सवेरे के करीब पाँच बजे उन्होंने आँखें खोलीं। सबसे पहले उन्होंने नवीन को देखा, फिर शेष साजो-सामान और माहौल को। सब-कुछ समझकर उन्होंने पुन: आँखें मूँद लीं। फिर धीमे-से बुदबुदाये,कहीं कुछ खनकता है…तो लगता है कि…पकी बालियों के भीतर गेहूँ खिलखिला रहे हैं…वैसी आवाज सुनकर अपना गाँव, अपने खेत याद आ जाते हैं बेटे…।
यानी कि नीता की पाजेबों में लगे घुँघरुओं की छनकार ने पिताजी के मन को यहाँ से उखाड़ दिया! उनकी बात सुनकर नवीन का गला भर आया।
आप ठीक हो जाइए पिताजी… वह बोला,फिर मैं आपको सुनील के पास ही छोड़ आऊँगा…गेहूँ की बालें आपको बुला रही हैं न…मैं खुद आपको गाँव में छोड़कर आऊँगा…आपकी खुशी, आपकी जिन्दगी की खातिर मैं यह आरोप भी सह लूँगा कि…छह महीने भी आपको अपने साथ न रख सका…। कहते-कहते एक के बाद एक मोटे-मोटे कई जोड़ी आँसू उसकी आँखों से गिरकर पिताजी के बिस्तर में समा गए।
पिताजी आँखें मूँदे लेटे रहे। कुछ न बोले।

सोमवार, मई 04, 2009

दु:ख के दिन/बलराम अग्रवाल


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बाकी बची माँसो चार-चार महीना वह बारी-बारी से सबके साथ रह लेगी। सम्पत्ति के मौखिक बँटवारे के बाद बड़े ने माँ के प्रति तीनों भाइयों की जिम्मेदारी तय करते हुए सुझाया।
यह तो माँ को अलग-अलग खूँटों से बाँधनेवाली बात हुई! मँझले ने टोका,तर्क के तौर पर ठीक सही, शिष्टता के तौर पर कोई कभी भी इसे ठीक नहीं ठहरा सकता।
बँटवारे जैसे छोटे काम के लिए माँ की मौत का इंतजार करना भी तो शिष्टता की सीमा से बाहर की बात है। छोटा तुनककर बोला।
माँ के रहते ऐसा करने शायद बड़ा शिष्टाचार है! मँझले ने व्यंग्य कसा।
छोटा तीखे स्वभाववाला व्यक्ति था। संयोगवश पत्नी भी वैसी ही मिल जाने के कारण माँ उसके पास एक-दो दिन से ज्यादा टिक नहीं पाती थी। इसलिए माँ के रख-रखाव का मुद्दा उसके लिए पूरी तरह निरर्थक था। सम्पत्ति के बँटवारे से अलग किसी-और समय यह विवाद उठा होता तो अब तक वह कभी का उठकर जा भी चुका होता।
ठीक है। माँ के बारे में आप दोनों बड़े जो भी फैसला करेंगे, मुझे मंजूर है। मँझले के व्यंग्य से आहत हो वह दो-टूक बोला।
सम्पत्ति के बँटवारे पर बहस के समय इससे पहले तो इसने एक बार भी ऐसा अधिकार हमें नहीं दिया था!बड़े ने अपना माथा मला।
नन्ने! काफी देर सोचने के बाद वह मँझले से बोला।
जी भैया!
तीन बेटे और थोड़ी-सी सम्पत्ति होने का दण्ड माँ को सुबह के दीये-जैसी उपेक्षित जिन्दगी तो नहीं मिलना चाहिए।
मैं तो शुरू से ही आपको यह समझा रहा हूँ भैया! बड़े की बात पर भावावेशवश मँझले की आँखें और गला भर आए।
सवाल यह है कि बँटवारे की यह नौबत हमारे बीच बार-बार आती ही क्यों है? बड़े ने सवाल किया। फिर आगे बोला,हम अगर किसी अच्छे काम के लिए एक जगह बैठें तो माँ बेहद खुश हो। वह भी हमार पास बैठे, हँसे-बोले।…लेकिन, हालत यह है कि हम एक जगह बैठे नहीं कि माँ डर ही जाती है।
मँझला और छोटा सिर झुकाए बड़े की बातें सुनते रहे।
तू वाकई मेरे फैसले को मानेगा न? बोलते-बोलते बड़ा छोटे से मुखातिब हुआ।
जी भैया। छोटे ने धीमे-स्वर में हामी भरी।
और तू भी? बड़े ने मँझले से पूछा।
हाँ भैया। वह बोला।
तब, सबसे पहली बात तो यह कि हमारे बीच जो कुछ भी अब से पहले हुआ, उसे भूल जाओ। माँ को जिससे दु:ख पहुँचता हो, वैसा कोई काम हमें नहीं करना है।
जी भैया!
आओ! बड़े ने दोनों भाइयों को अपने पीछे आने का इशारा किया। तेजी-से चलते हुए तीनों भाई गाँव से बाहर, नहर के किनारे उदास बैठी माँ के पीछे जा खड़े हुए। बँटवारे के सवाल पर जब-भी वे एकजुट होते, वह यहाँ आ रोती थी।
बहते पानी के आगे दु:खड़ा रोने के तेरे दिन खत्म हुए माँ! उसके बूढ़े कंधों पर अपनी अधेड़ हथेलियाँ टिकाकर बड़ा रूँधे शब्दों को मुश्किल-से बाहर ठेल पाया,घर चल!
माँ ने गरदन घुमाई। तीनों बेटों को साथ खड़े देखा। नहर के पानी से उसने आँसू-भरी अपनी आँखें धोईं। धोती के पल्लू से उन्हें पोंछा और तीनों बेटों को अपने अंक में भर लिया, हर बार की तरह।

मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

बदलेराम/बलराम अग्रवाल

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कीचड़-भरे गड्ढों के जाल के कारण कार को और-आगे लेजाना सम्भव नहीं था। गाँव से करीब दो किलोमीटर पहले ही ड्राइवर को कार के साथ छोड़कर मैं और बदलेराम अन्य कार्यकर्ताओं के साथ पैदल ही उस ओर चल दिए।
सुनो, इस गाँव की मुख्य-समस्या क्या है? गाँव के लोगों को उनकी जरूरतों के माध्यम से भावुक बनाकर अपने पक्ष में करने की नीति निर्धारित करने के उद्देश्य से मैंने बदलेराम से पूछा।
सबसे आगे चल रहा बदलेराम सवाल सुनकर एकाएक रुक गया। मेरी ओर वापस घूमकर बोला,पानी…पानी इस गाँव की मुख्य समस्या है, लेकिन आपको उससे क्या?
मैं उनको सिंचाई के लिए नलकूप लगवा देने का आश्वासन दूँगा।
नलकूप…! बेहद जहरीले तरीके से मुस्कराया बदलेराम। बोला,बिना बिजली के कैसे चलेगा वह?
ठीक है, बिजली की लाइन खिंचवा देने का ही सही।
यह झाँसा भी तो तीस साल पुराना हो गया है उनके लिए!
यानी…गाँवभर में नल-कुएँ-बावड़ी…
यह भी। वह दो-टूक बोला।
ठीक है, मैं उनके लिए गाँव के किनारे-किनारे नहर खुदवा देने का वादा करता हूँ। इस बार तनिक अतिरिक्त विश्वास के साथ मैंने कहा।
मेरे इस लहजे ने बदलेराम को प्रभावित करना तो दरकिनार, उल्टे क्षुब्ध कर दिया। मेरी तरह बाहर से लाया गया गँवई उम्मीदवार तो वह था नहीं। पार्टी का कर्मठ कार्यकर्ता था। चलते-चलते वह पुन: मेरी ओर घूम गया। बोला,एक-दो नहीं, कम-से-कम दस चुनाव सिर पर से गुजर गए हैं…वोटर अब उतना कच्चा नहीं रहा, पक गया है पूरी तरह। वोट लेने के लिए…
रुको! राजनीति के गुर बघारने को उद्यत बदलेराम अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि एक खेत के किनारे बैठे चरवाहा किस्म के कुछ युवकों में से एक ने हाँक लगाई और उठकर हमारे पास चला आया।
तुममें से बदलेराम कौन है? उसने कड़क आवाज में पूछा।
उसकी आतंकवादी मुद्रा देखकर बदलेराम की तो जैसे घिग्घी ही बँध गई। मैं भी डर गया।
क्…क्…कौन बदलेराम? कुछ हिम्मत जुटाकर मैंने पूछा।
वही…जिस साले ने आजादी की हवा तक नहीं पहुँचने दी गाँव में। कभी कमल लेकर आजाता है, तो कभी हाथ का पंजा…कभी हाथी, साइकिल, मशाल, लालटेन…। युवक रोषपूर्वक बोला,तुम सब भी सुनो, वोट के वास्ते आने वालों की अगवानी के लिए गाँव के हर मकान की छत पर बच्चे हाथों में ढेले लिए खड़े हैं…।
भय और आश्चर्य से हमारे मुँह उसकी ओर उठ गए। वह उपेक्षापूर्वक हमारी ओर पीठ किए बैठे अपने साथियों के साथ जा बैठा।

शुक्रवार, अप्रैल 10, 2009

एक और देवदास/बलराम अग्रवाल


सुनो मिस्टर! कंधे पर खादी का थैला लटकाए घूमते चश्माधारी महाशय को उस नवयुवती ने अपनी ओर आने का इशारा किया।
जी। पास आकर वह बोले।
मुझे ताकते हुए मेरे आसपास मँडराते रहने का तुम्हारा मक़सद क्या है?
जी, कुछ खास नहीं। आपके बारे में सोचते रहना मुझे अच्छा लगता है, बस। वह बोले।
तब तो मेरा साथ भी जरूर चाहते होगे?…मैं तुम्हारे घर रहने को तैयार हूँ। उसने मुस्कराकर कहा।
जी नहीं। वह तपाक-से बोले,मेरा शगल आपके बारे में सोचनाभर है, आपसे उलझ जाना नहीं।
अच्छा! जानते हो लोग मुझे…
समस्या…समस्या नाम से जानते हैं, जानता हूँ। तभी तो…तभी तो मुझे अच्छा लगता है आपके बारे में सोचते रहना। वह अकड़कर बोले।
समझी। क्या आप अपना परिचय देंगे?
जी हाँ, क्यों नहीं। लोग मुझे बुद्धिजीवी कहते हैं।

गुरुवार, मार्च 26, 2009

ज़हर की जड़ें/बलराम अग्रवाल



फ्तर से लौटकर मैं अभी खाना खाने के लिए बैठा ही था कि डॉली ने रोना शुरू कर दिया।
अरे-अरे-अरे, किसने मारा हमारी बेटी को? उसे दुलारते हुए मैंने पूछा।
डैडी, हमें स्कूटर चाहिए। सुबकते हुए ही वह बोली।
लेकिन तुम्हारे पास तो पहले ही बहुत खिलौने है!
इस पर उसकी हिचकियाँ बँध गईं। बोली,मेरी गुड़िया को बचा लो डैडी!
बात क्या है? मैंने दुलारपूर्वक पूछा।
पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुड़िया की शादी करके हमसे हमारी गुड़िया छीन ली… डॉली ने जोरों से सुबकते हुए बताया,अब कहती हैदहेज में स्कूटर दो, वरना आग लगा दूँगी गुड़िया को।…गुड़िया को बचा लो डैडी…हमें स्कूटर दिला दो।
डॉली की सुबकियाँ धीरे-धीरे तेज होती गईं और शब्द उसकी हिचकियों में डूबते चले गए।

रविवार, मार्च 15, 2009

हड़बड़ी/बलराम अग्रवाल



रेलवे के ओवरब्रिज पर चढ़ते ही उसने संकेत-पट्टिकाओं की ओर नजरें उठा दीं। नीचे पैर दौड़ रहे थे, ऊपर नजरें। प्लेटफॉर्म नंबर पाँच की संकेत-पट्टिका पर नजर पड़ते ही उसकी नजर नीचे, प्लेटफॉर्म पर जा कूदीं। ट्रेन अभी रुकी खड़ी थी। शुक्र है ऊपरवाले काउसने मन ही मन सोचा। चाल खुद-ब-खुद कुछ-और बढ़ गई।
सीढ़ियाँ उतरकर प्लेटफॉर्म पर पाँव रखते ही उसने सामने खड़े कम्पार्टमेंट पर नजर डाली। एस-5। एस-9 किधर होगा--दाएँ या बाएँ? एक पल ठिठककर उसने सोचा, फिर दाएँ डिब्बे की ओर बढ़ गया। एस-4। उसे देखते ही वह पीछे की ओर पलट गया।
उसकी नजर सामने इलैक्ट्रॉनिक घड़ी पर चली गई21:20।
गाड़ी छूटने का समय हो गया! एस-9 तक पहुँचने के लिए उसे पूरे पाँच कम्पार्टमेंट की दूरी तय करनी है। फेफड़ों ने साँसों को अब जल्दी-जल्दी फेंकना शुरू कर दिया था। पैर उखड़ने लगे थे। दिमाग के चकराने जैसे आसार महसूस होने लगे थे। आँखों के आगे अँधेरे के तिलमिले-से तैरने लग थे। लेकिन वह हाँफता-हड़बड़ाता चलता रहा। रुका नहीं।
एकाएक उसे खयाल आया कि सारे के सारे स्लीपर-कोच इंटर-कनेक्टेड होते हैं। ट्रेन छूटने का समय हो चुका था। उससे उत्पन्न तनाव के चलते वह एस-7 में ही चढ़ गया। ट्रेन के मिस हो जाने का खतरा अब खत्म हो गया था। अन्दर ही अन्दर आगे बढ़ते हुए खुद को उसने काफी तनावमुक्त महसूस किया। फिर भी, चाल में तेजी अभी बरकरार थी। आखिरकार वह सीट नंबर 63 के पास पहुँच गया। हाथ में थामे ब्रीफकेस और कंधे पर लटके बैग को उसने नीचे टिका दिया।
सीट पर एक पहलवाननुमा महाशय पसरे हुए थे।
यह सीट खाली करेंगे, प्लीज़!`` साँस जब कुछ जुड़ गई तो उसने उन महाशय से कहा।
क्यों?
यह एस-9 ही है न? उसने आश्वस्त होने की दृष्टि से पूछा।
जी हाँ।
तब यह 63 नम्बर की बर्थ मेरी है। कहते हुए उसने जेब से अपना टिकट निकालकर उन महाशय की आँखों के आगे कर दिया।
उन्होंने टिकट को अपने हाथ में पकड़ा। देखा। परखा। फिर मुसकराकर उसे लौटाते हुए बोले,जनाब,आपकी सारी बातें ठीक हैं सिवाय गाड़ी के।
क्या मतलब? उसने चौंककर पूछा।
मतलब यह कि आपको इस में नहीं, उस सामने वाली ट्रेन में सवार होना थाइंदौर एक्सप्रेस में।
सामने वाली ट्रेन न सिर्फ चल चुकी, बल्कि रफ्तार भी पकड़ चुकी थी। इस ट्रेन की खिड़की से वह मुँह बाए उस ट्रेन को जाते देखता रहा।
तो यह इंदौर एक्सप्रेस नहीं है? उसने मरी आवाज में उन महाशय से पूछा,हर बार तो वह इसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी की जाती है!
यह स्वर्ण जयंती है। वह बोले,चढ़ने से पहले उद्घोषणा पर भी कान दे लेते एक बार तो…। अब उतरिए, यह गाड़ी भी चल दी है…।



रविवार, मार्च 08, 2009

गाँव एक गहरा घड़ा है/बलराम अग्रवाल



ह कौन-सा चारा है, सर? ट्रक से गिराई जा रही पत्थर की रोड़ी की ओर इशारा करके चमचे ने सांसद महोदय से पूछा।
चारा नहीं, ये कंकड़ है गिरधर। नेताजी ने मुस्कराकर जवाब दिया,यहाँ से गाँव तक सड़क बनवा देने का वादा…।
सो तो मैं देख ही रहा हूँ, सर। गिरधर हें-हें करता हुआ बोला,लेकिन…
लेकिन क्या?
लेकिन यह कि…आपको जीत दर्ज किए अभी महीना भी नहीं गुजरा है। लोकसभा ढंग-से अभी गठित भी नहीं हो पायी है…और आप हैं कि चुनावी-वादों को पूरा करने में जुट गये हैं! काम करवाना शुरू कर दिया है इलाके में…!
काम करवाना नहीं, कंकड़ डलवाना… नेताजी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ चमचे को टोका।
कंकड़ भी डलवाया तो सड़क बनवाने के लिए ही जा रहा है न!
सड़क बनवाने के लिए नहीं, बल्कि सड़क की शक्ल में गाँव तक इसे बिछवा देने के लिए…।
मतलब?
मतलब तू यों समझ कि गाँव एक गहरा घड़ा है और वोट इसमें भरा पानी हैं। अपनी बाँह को कन्धे तक इसके मुँह में डाल देने पर भी वोटों को पकड़ से दूर पाता हूँ। ये कंकड़ वोटों के तल को ऊपर लाने में मददगार सिद्ध होंगे।
यह सब तो मैं समझ रहा हूँ हुजूर, चमचा बोला,मैं तो सिर्फ यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि वोटों के तल को ऊपर लाने की कवायद इतनी जल्दी क्यों शुरू कर दी सरकार ने!
विरोधियों की कारगुजारियों पर लगाम कसे रखने के लिए यह कवायद बेहद जरूरी है गिरधर। नेताजी ने समझाया,अभी ये कंकड़ गिराये जा रहे हैं, अगले साल इन्हें बिछवाना शुरू किया जायेगा, उसके बाद उन्हें समतल करने का काम जारी होगा, चौथे साल…यों समझ ले कि पूरी पंचवर्षीय योजना है!
गजब! चमचे के मुँह से निकला।
और सड़क तो इस गाँव तक अगली पंचवर्षीय योजना के अंत तक ही पहुँच पायेगी। नेताजी ने कहा।
वह भी तब, जब उस बार भी आप ही जीतकर आवें। चमचे ने जोड़ा।
समझदार है! उसकी पीठ पर धौल जमाकर नेताजी मुस्कराये,चल, वापस चलते हैं।