गुरुवार, मई 30, 2013

देवों की घाटी/बलराम अग्रवाल


 मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की चौथी कड़ी…
गतांक से आगे…
                                                       (चौथी कड़ी)

                                                                           चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘मान गई!’’ उसकी मुखमुद्रा से प्रसन्न होकर सुधाकर बच्चों की तरह ताली बजा उठे। ममता हँस दी।
‘‘हाँ, तो बात यह चल रही थी कि पिछली बार टैक्सी से नहीं, ट्रेन और बसों से यात्रा की थी हमने।’’ माहौल को पुन: पूर्वरूप देने की नीयत से दादाजी बोले।
‘‘हाँ,’’ सुधाकर ने कहा,‘‘टैक्सी से जाने लायक तब अपनी आमदनी ही कहाँ थी बाबूजी?’’
‘‘रेलवेस्टेशन पर पहुँचकर करीब दो घण्टे तक ट्रेन का इन्तजार करना पड़ा था, याद है?’’ दादाजी ने पूछा ।
‘‘खूब याद है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘उन दिनों आज की तरह यह सुविधा भी तो नहीं थी कि ट्रेन के आने का सही समय रेलवे की इंटरनेट साइट पर देख लें, या मोबाइल फोन से मालूम कर लें।’’
‘‘हाँ, रेलवे स्टेशन पहुँचने पर जब ट्रेन के लेट आने की खबर मिलती थी तो कितनी कोफ़्त होती थी।’’ दादाजी बोले, ‘‘ऐसा लगता था कि सारी भागदौड़ बेकार गई।’’
 ‘‘बिल्कुल यही बात थी।’’ सुधाकर बोले,‘‘यह भी होता था कि रेलवे स्टेशन पर अभी, कुछ देर पहले ट्रेन के आने की उद्घोषणा भी हो चुकी होती थी, लेकिन ट्रेन नदारद। उसका इन्तजार तब बोरियत में बदलने ही लगता था।’’
 ‘‘और फिर, प्लेटफार्म पर अचानक हलचलसी मचती थी। प्लेटफार्म के किनारे पर खड़े होकर उत्सुकता से ट्रेन के आने की दिशा में झाँक रहे लोग स्फूर्ति से भर उठते थे। बहुत दू, सामने से आती गाड़ी का काला धब्बासा दिखाई देते ही वे वापस अपने सामान और बीवीबच्चों की ओर लपकते थे।’’  दादाजी ने जोड़ा ।
‘‘मर्द की झिड़कियों से डरेसहमे बीवीबच्चे सामान के पास खड़े रहते थे। बीवी सोचती थी कि उसे जब न घर में इज्जत मिलनी है और न बाहर तो औरत को ऊपर वाले ने बनाया ही क्यों? और बच्चे सोचते थे कि जब पापा जितने बड़े हो जाएँगे तब वे भी प्लेटफार्म के किनारे खड़े होकर गाड़ी को झाँकेंगे और बाँह पकड़कर अपने बच्चों को भी झँकवाएँगे। यह नहीं कि खुद तो मज़ा लेते रहें और बच्चों को डरातेधमकातेपीटते रहें।’’ सुधाकर बोले।
‘‘यह, तूने बचपन से अपने मन में दबी बात आज बोल ही दी।’’ सुधाकर की इस बात पर दादाजी ने चुटकी ली।
‘‘अरे नहीं बाबूजी, मैं तो नारीमन और बालमन में उभरने वाली एक सामान्यसी बात को शब्द दे रहा था।’’ दादाजी के टोकने पर सुधाकर ने संकोचभरे स्वर में कहा।
सभी हँस दिए।
टैक्सी धीरेधीरे अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी।
‘‘अच्छा छोड़।’’ दादाजी ने कहा, ‘‘फिर से पुरानी कमेन्ट्री पर आजा।ट्रेन तेजी से आई और धीमी होतेहोते प्लेटफार्म पर आकर रुक गई।’’
‘‘बाबूजी भी पूरे मूड में नज़र आ रहे हैं!’’ दादाजी की इस बात पर ममता ने चुटकी ली।
‘‘मूड में क्यों न नज़र आऊँ बहू…’’ ममता की बात पर दादाजी तपाकसे बोले,‘‘इसके कई फायदे हैं। पहला यह कि पुरानी बातें ताज़ा हो जाएँगी वरना हम बूढ़ों के ज़माने की बातें आजकल सुनता कौन है? दूसरा यह कि इस तरह सफ़र मज़े में कट जाएगा, क्यों बच्चो?’’
‘‘जी दादाजी, मज़ा आ रहा है।’’ दोनों बच्चे करीबकरीब एक साथ बोले,‘‘आप दोनों पुराने दिनों की बातें करते रहिए।’’
‘‘चलो, चलोसामान उठाओ और रिज़र्वेशन वाले डिब्बे की ओर बढ़ो।’’ बच्चों की बात खत्म होने से पहले ही सुधाकर इस तरह बोले कि टैक्सी में बैठे दादाजी, ममता और बच्चे, यहाँ तक कि टैक्सी का ड्राइवर भी एकबारगी चैंक पड़ा। उसने टैक्सी के ब्रेक दबाकर उसकी रफ्तार काफी धीमी कर दी और बायीं ओर का सिग्नल देकर उसे साइड में ले आया।
‘‘बीवी और बच्चों से यह कहता हुआ बाप सामान को अपने सिर और कंधों पर लादना शुरू करता था…या फिर, पहले से ही तय कर रखे कुली को पुकारता था और बच्चों को इधरउधर यानी बाँह, कन्धा, कॉलर जो हाथ में आ जाए वहाँ से उन्हें पकड़कर तेजीसे गाड़ी की ओर लपकता था।’’ यों कहते हुए जब उन्होंने अपनी बात पूरी की तो सड़क के एक ओर खड़ी हो चुकी टैक्सी में पसरा सन्नाटा जोर के ठहाके के साथ टूट गया।
‘‘इतना सीरियसली बोला यार तू…कि मैं तो डर ही गया।’’ ठहाका रुका तो दादाजी ने पापाजी से कहा।
‘‘मेरा तो पैर ब्रैक को तेजी से दबातेदबाते किसी तरह बस रुक गया…’’ टैक्सीड्राइवर नाराज़गी के स्वर में चहका,‘‘आप जितनी चाहो बातें करो सर जी, लेकिन इतना सीरियस ड्रामा न क्रिएट करो कि मुझसे कोई चूक हो जाए।’’
‘‘सॉरी यार,’’ उससे माफी माँगते हुए सुधाकरजी बोले,‘‘दरअसल, मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि हम टैक्सी में बैठे हैं । उधर बाबूजी ने आदेश दिया और इधर मैं तुरन्त शुरू हो गया।’’
ड्राइवर ने उसके बाद कुछ नहीं कहा। गाड़ी को स्टार्ट कर गियर में डाला और आगे बढ़ चला।
‘‘अच्छा, एक बात जो हमें शुरू में ही कर लेनी थी, अब कर लें?’’ सुधाकर ने उससे कहा।
‘‘क्या बात?’’ ड्राइवर ने पूछा।
‘‘अरे भाई, पहली गलती तो यह कि हमने आपसे आपका मोबाइल नम्बर नहीं लिया और दूसरी यह कि आपका नाम अभी तक नहीं जाना।’’
‘‘मोबाइल नम्बर तो आपके मोबाइल पर आया हुआ है ही।’’ ड्राइवर बोला,‘‘घर के पास पहुँच जाने की सूचना देने के लिए मैंने आपको फोन किया था।’’
‘‘हाँ…’’ जेब से अपना मोबाइल निकालकर उसके ऑपरेशन्स को खोलते हुए सुधाकर बोले,‘‘नाम बताओ, सेव कर लेता हूँ।’’
‘‘अल्ताफ।’’
‘‘ए एल टी ए एफ…’’ मोबाइल में उसका नाम सेव करते हुए सुधाकर बुदबुदाए फिर उससे बोले,‘‘ठीक है?’’
‘‘जी।’’ उसने कहा।
‘‘अब हम आपको आपनहीं, छोटे भाई की तरह तुमकहेंगे और अल्ताफ कहकर ही पुकारेंगे।’’ सुधाकर ने कहा।
‘‘जी।’’
‘‘अब, कल्पना कीजिए बाबूजी कि पुराना ज़माना है, आप निक्की और मणिका को लेकर रेलवे स्टेशन पर आ बैठे हैं…मम्मीजी साथ में हैं। वही, पुराने जमाने वाला सीन।’’ अल्ताफ को छोड़कर सुधाकर ने दादाजी से बातें करना शुरू किया,‘‘अचानक ट्रेन आ जाती है और आप इन्हें लेकर अपना कम्पार्टमेंट ढूँढने लगते हैं…’’
‘‘कर ली कल्पना…’’ दादाजी अपनी आँखें मूँदकर बोले,‘‘भागती हुई भीड़ में इन दोनों का हाथ थामे मैं और तेरी मम्मी कुली के पीछेपीछे दौड़ लगा रहे हैं ।’’
‘‘तभी आपको मेरी आवाज़ सुनाई देती हैबाबूजी…मम्मीजी…इधर…इधर…आप दोनों से भी पहले बच्चे मेरी आवाज़ की दिशा में देखते हैं।…उसी दौरान आपका भी ध्यान मेरी ओर चला आता है। आप सब मेरी ओर दौड़ आते हैं।…’’
‘‘तू हमारे रिज़र्वेशन वाले डिब्बे के बाहर खड़ा है।’’ दादाजी ने आँखें मूँदेमूँदे ही बोलना शुरू किया,‘‘हम तेरे पास जा पहुँचे हैं। कुली के सिर से बिस्तरबंद व सूटकेस उतरवाकर तूने शीघ्रता से डिब्बे में रख दिया है और एकएक कर बच्चों को और अपनी मम्मी को उसमें चढ़ा दिया है। सबके बाद मैं भी डिब्बे में चढ़ गया हूँ। तूने आगे बढ़कर मेरे और अपनी मम्मी के पाँव छुए हैं और अब बच्चों के सिर पर हाथ फिरा रहा है।’’ यों कहकर दादाजी एक पल को चुप हुए, फिर बोले—‘‘तुम कैसे आ गए ?— मैंने तुझसे पूछा।’’
 आगामी अंक में जारी