शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

जानवर/बलराम अग्रवाल

-->
लॉन में बैठे वे आसमान को ताक रहे थे। इस हालत में उनसे कुछ अर्ज़ करने की जुर्रत ननुआ नहीं कर सकता था। ध्यान भंग करने से उस पर वे पूरी तरह झल्ला पड़ते। अनजाने ही ऐसा करके उनकी झल्लाहट को वह कई बार झेल चुका था। उसका दुखी मन इस समय वह सब झेलने की हालत में नहीं था। मन मारकर एक ओर को बैठ गया।
दसेक मिनट ऐसे ही बीत गए। कल्पनालोक से उतरकर आखिर वे ज़मीन पर आये। ननुआ को सामने बैठा देखकर चौंक पड़े; बोले,अरे! तू कब आया?
ज्यादा देर नहीं हुई सरकार। ननुआ ने हाथ जोड़े।
बोल।
आप कोई गहरी बात सोच रहे थे… अपना दर्द बयान करने से पहले ननुआ ने उन्हीं की बात सुनना ज़रूरी समझा।
हाँ… वे पुन: आसमान की ओर देखते हुए बोले,ऊपर हजारों चीलें उड़ती हैं। उनमें से सैकड़ों कभी-न-कभी बीट-पेशाब छोड़ती ही रहती होंगी।…मैं दरअसल सोच रहा था कि…पता नहीं कहाँ-कहाँ गिरता होगा वह सब! यों कहते हुए उन्होंने अपने सिर पर रखे ओढ़ावन को ठीक किया, फिर एकाएक ननुआ से पूछ बैठे,कभी तेरा ध्यान गया इस ओर?
बीट-पेशाब पर तो हमारा ध्यान कभी गया नहीं, ससुरा जहाँ गिरता हो, गिरा करे… ननुआ उनके इस सवाल पर तपाक-से बोला,दुनिया हम गरीबों के सिर पर मूत रही है तो इन चील-कौऔं के मूतने की ही क्या फिक्र-शिकायत करें। हाँ, एक-साथ ज्यादा चीलों को एक ही जगह पर मँडराते देखते हैं तो…किसी गरीब का जनावर जाता रहा शायदमन में यही ख्याल पहले आता है मालिक। इतना कहते-कहते अपने सिर पर से साफी उतारकर उसने दोनों हथेलियों से अपने मुँह में ठूँस ली, फिर भी रुलाई को न रोक सका। रोते-रोते ही बोला,अपना भीमा कल रात…
कभी ऊँचा नहीं सोच सकते…जानवर के जानवर रहेंगे हमेशा। उसकी बात को पूरा सुनने से पहले ही वे भुनभुनाहटभरे स्वर में बुदबुदाए और उसको वहीं रोता छोड़कर हवेली के भीतर घुस गए।