गुरुवार, अगस्त 15, 2013

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की आठवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                         (आठवीं कड़ी)
                                                                       चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘महर्षि विश्वामित्र का नाम सुना है?’’ बच्चों की उत्सुकता को भाँपकर गाड़ी चलने के कुछ देर बाद ही दादाजी ने उनसे पूछा।
‘‘हाँहाँ, क्यों नहीं।’’ मणिका तपाक्से बोली,‘‘वही, जो अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम और लक्ष्मण को उनके पिता दशरथ से माँगकर ले गए थे।’’
‘‘बेटे, श्रीराम को ले जाने की घटना से बहुत पहले उन महर्षि विश्वामित्र ने एक बार घोर तपस्या की थी।’’  दादाजी ने धीरेधीरे बताना शुरू किया,‘‘देवताओं के राजा इन्द्र को उनकी तपस्या देखकर बड़ा डर लगा। उसने सोचा कि विश्वामित्र की तपस्या अगर सफल हो गई तो देवता उसे हटाकर कहीं विश्वामित्र को ही स्वर्ग का राजा न बना दें। यह सोचकर उसने अपने दरबार से मेनका नाम की एक अप्सरा को विश्वामित्र का  ध्यान तपस्या की ओर से हटाकर घरगृहस्थी की ओर लगा देने के लिए उनके पास भेज दिया। बहुत सुंदर तो थी ही मेनका, बहुत चतुर भी थी। आखिर अप्सरा थी इन्द्र के दरबार की। चालाकीभरी बातें बनाकर वह विश्वामित्र की पत्नी जा बनी और घरगृहस्थी के कामों में उलझाकर उन्हें तपस्या करने से रोक दिया। कई वर्षों तक साथ रहने के बाद मेनका को जब यह पता चला कि वह माँ बनने वाली है तब वह यह सोचकर डर गई कि विश्वामित्र को अगर उसकी चालाकी और उनके साथ रहने के लिए आने की उसकी असलियत का पता चल गया तो शाप देकर उसे वह एक ही क्षण में भस्म कर डालेंगे। बस, एक दिन अचानक वह विश्वामित्र के चरणों से लिपट गयी और रोने लगी। विश्वामित्र की समझ में कुछ न आया। उन्होंने उससे उसके रोने का कारण पूछा लेकिन रोने का कारण बताने की बजाय वह यही कहती रही कि पहले वे उसे क्षमा कर दें, तभी वह कुछ बताएगी। विश्वामित्र तो उसके मोहजाल में पूरी तरह फँसे हुए थे। उस पर प्रसन्न होकर उन्होंने उसे क्षमा कर देने का वचन दे दिया। वचन पाकर मेनका ने बहुत दु:खी होने का नाटक करते हुए उनसे कहास्वामी! मुझ पापिन पर दया करने के कारण आप तपस्या नहीं कर पा रहे हैं। यह सोचसोचकर मेरा मन कई दिनों से मुझे धिक्कार रहा है। स्वामी! जैसे आपने अपने राज्य का मोह त्यागकर संन्यास ग्रहण किया था, मेरी प्रार्थना है कि वैसे ही मेरा मोह त्यागकर आप पुन% अपनी तपस्या में लग जायँ।’’
दादाजी के कहनेसुनाने का तरीका इतना अधिक रोचक था कि ममता और सुधाकर भी उनकी ओर मुँह करके बैठ गए।
‘‘बेटे आराम से ही चलाना गाड़ी।’’ दादाजी अल्ताफ से बोले।
‘‘आप बेफिक्र होकर कहानियाँ सुनाते रहिए बाबूजी।’’ अल्ताफ ने कहा,‘‘हम लोगों को बातें सुनते और बातें करते हुए गाड़ी चलाते रहने की आदत बनी होती है।’’
‘‘विश्वामित्र ने मेनका की इस बात को उसका महान त्याग समझकर उसे पूरी तरह क्षमा कर दिया।’’ दादाजी ने आगे बताना शुरू किया,‘‘उनकी तपस्या को भंग करने का अपना काम बड़ी चतुराई और सफलता से पूरा करके मेनका उनका आश्रम छोड़कर चली गई। कुछ समय बाद उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया जिसे लेकर वह इन्द्र के लोक में जा पहुँची।’’
‘‘फिर क्या हुआ दादाजी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘फिर, लालनपालन के लिए इन्द्र ने उस कन्या को धरती पर मालिनी नदी के किनारे आश्रम बनाकर रहने वाले उस समय के महान ऋर्षि कण्व के आश्रम में भेज दिया। बड़ी होने पर वही कन्या शकुन्तला कहलाई।’’ दादाजी बोले,‘‘जानते हो, शकुन्तला कौन थी?’’
‘‘हाँ दादाजी ।’’ मणिका तपाक से बोली,‘‘इन्द्रलोक की अप्सरा मेनका और महर्षि विश्वामित्र की पुत्री!’’
‘‘धत् तेरे की…’’ दादाजी अपने माथे पर हथेली मारकर बोले, ‘‘यह बात तो अभीअभी मैंने ही तुमको बताई है। इसके अलावा बताओ कि शकुन्तला कौन थी?’’
‘‘राजा दुष्यन्त की पत्नी और भरत की माँ।’’ गाड़ी चलाते हुए अल्ताफ ने मुस्कराते हुए बताया फिर बोला,‘‘कभीकभार आप लोगों के बीच में मैं भी कुछ बोल सकता हूँ न सर जी?’’
‘‘भई, मेरी तरफ से तो हाँहै, बाकी तुम बच्चों से तय कर लो।’’ दादाजी ने कहा,‘‘तुमने बिल्कुल ठीक बताया लेकिन यह भरत भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत नहीं हैं।’’
‘‘पता है।’’ इस बार निक्की ने कहा,‘‘भगवान राम के छोटे भाई भरत की माता का नाम शकुन्तला नहीं, कैकेयी था।’’
‘‘वेरी गुड।’’ दादाजी मुस्कराकर बोले,‘‘भई तुम लोगों का सामान्य ज्ञान तो बड़ा उत्तम है!’’
‘‘फिर क्या हुआ दादाजी?’’ अपनी प्रशंसा के शब्दों में न उलझकर बच्चों ने कथा के तारतम्य को जोड़े रखने का प्रयास करते हुए पूछा।
‘‘फिर जो हुआ, वह बहुत लम्बी कहानी है।’’ दादाजी बोले,‘‘मैंने जिस उद्देश्य से शकुन्तला के जन्म की कहानी तुमको सुनाई है, उसे सुनोमालिनी नदी और महर्षि कण्व का आश्रम, दोनों इस कोटद्वार क्षेत्र में ही हैं। यह भी कहा जाता है कि अपने वीर पुत्र भरत को शकुन्तला ने इसी क्षेत्र में जन्म दिया था। …और यह भी कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने महान् काव्य अभिज्ञान शाकुन्तलम्की रचना इस मालिनी नदी के किनारे बैठकर ही की थी। …’’
‘‘कोटद्वार आने वाला है सर जी,’’ अल्ताफ आत्मीय स्वर में बोला।
गाड़ी हॉर्न देती हुई तेजी से दौड़ रही थी। बातोंबातों में कई छोटे स्टेशन पीछे निकल गए थे। खिड़कियों के सहारे बैठे बच्चे दूर खड़े पहाड़ों को देखकर पुलकित होने लगे। अब से कुछ समय बाद ही वे इन पहाड़ों के बीच से गुजरने वाले थे।
उनकी गाड़ी कोटद्वार रेलवेस्टेशन के बाहर जा पहुँची थी। उधर, कोटद्वार पहुँचने वाली एक रेलगाड़ी भी धीरेधीरे प्लेटफार्म के सहारे जा रुकी थी। आगे पता नहीं कोई गाय आ खड़ी हुई थी या कुछअन्य रुकावट थी कि अल्ताफ टैक्सी को रोककर खड़ा हो गया। यह रेलवे स्टेशन के बाहर का स्थान था और कुछ प्राइवेट  बसों के ड्राइवर व कंडक्टर आदि स्टाफ ने मुख्य सड़क पर ही अपनी बस़ें टेड़ीतिरछी खड़ी करके रास्ते को रोका हुआ था।  वह स्थान रेलवे प्लेटफार्म से काफी ऊँचाई पर और काफी नज़दीक था इसलिए प्लेटफार्म का सारा दृश्य वहाँ से साफ सुनाई व दिखाई दे रहा था। टैक्सी में बैठे बच्चे वहाँ से रेलवे प्लेटफॉर्म का नज़ारा देखने लगे। एक कुली को बुलाकर दादाजी की उम्र के एक आदमी ने सामान को उठाकर बद्रीनाथ की तरफ जाने वाली बस की ओर ले चलने को कहा। कुली  बोला,‘‘बद्रीनाथ को जाने वाली गाड़ी तो शुबह जल्दी ही निकल जाती है शाबजी! आप कहें तो आपका शामान हम श्रीनगर वाली बश में चढ़ा दें।’’
‘‘श्रीनगर!’’ उसकी बात पर बच्चे आश्चर्यपूर्वक बोल उठे।
‘‘यह उत्तराखण्ड का श्रीनगर है बच्चो, कश्मीर का नहीं।’’ दादाजी ने उन्हें बताया।
उधर, वह आदमी कुली से बोला,‘‘ठीक है, उसी में ले चलो।’’
सामान उठाकर कुली स्टेशन से बाहर आया। बसस्टेंड सामने ही था। टिकिटखिड़की पर जाकर उसने श्रीनगर की बजाय पौड़ी तक की टिकिट ली और कुली को बस की छत पर सामान सुरक्षित तरह से रखने और बाँध देने का आदेश दिया। दोनों बच्चे यह सब देखकर आनन्दित होते रहे।  सामान को बाँधे जाने तक वह स्वयं बाहर खड़े रहकर बस की छत पर रखे सामान की देखभाल करता रहा। जैसे ही बस चलने को हुई, अन्दर जाकर सीट पर बैठ गया।
आगामी अंक में जारी

गुरुवार, अगस्त 01, 2013

देवों की घाटी/बलराम अग्रवाल



मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की सातवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                          (सातवीं कड़ी)
                                                                         चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘सड़क के उस पार चायवाले ने दुकान खोल ली है।’’ अल्ताफ ने सुधाकर से पूछा,‘‘आप कहें तो मैं चाय पी आऊँ?’’
‘‘हाँहाँ, ज़रूर।’’ सुधाकर ने कहा,‘‘…और, वो अगर यहाँ देने आ सके तो दो चाय हमारे लिए भी भेजवा देना।’’
‘‘जी।’’ कहकर वह चला गया।
उसके जाते ही सुधाकर ने धीमेसे आवाज़ देकर ममता को जगा दिया। जागते ही उसने अचरज से चारों ओर देखा, फिर पूछा,‘‘कौनसी जगह है?’’
‘‘नजीबाबाद का आउटर है।’’ सुधाकर ने बताया।
‘‘गाड़ी यहाँ क्यों रोक दी?’’ ममता ने दूसरा सवाल किया।
‘‘अल्ताफ को फ्रेश होने जाना था इसलिए।’’
‘‘बाबूजी किधर हैं?’’
‘‘अल्ताफ के बाद वो फ्रेश होने गए हैं।’’
‘‘मुझे क्यों जगाया?’’
‘‘अल्ताफ ने बाबूजी को घुट्टी पिला दी है कि यहीं फ्रेश हो लो। यहाँ फ्री है, आगे पैसे खर्च करने पड़ेंगे।’’
‘‘हे भगवान! आपको तो पता है कि मुझे चाय पिये बिना प्रेशर बनता नहीं है।’’
‘‘मँगा ली है, लाता ही होगा।’’ शरारती मुस्कान के साथ सुधाकर बोले।
‘‘आप भी बस…’’ ममता नाराजगी भरे स्वर में बोली।
‘‘मैं भी बस नहीं, बाबूजी भी बस…’’ सुधाकर अपना बचाव करते हुए बोले, ‘‘मेमसाब, इस समय हम सफर में हैं वो भी बाबूजी के साथ। एक कहानी सुनाकर सुबहसुबह मुझे बेवकूफकहने का अपना पैतृकअधिकार तो वे जता ही चुके हैं। इसलिए घर की बातें घर पर। यहाँ वो…जो बाबूजी हुक्म करें। चायवाला चाय लेकर आने वाला है। सुस्ती छोड़ो और तनकर बैठ जाओ। थोड़ी ही देर में बाबूजी भी आते ही होंगे।’’
ममता ने गहरी अँगड़ाई लेकर सुस्ती को जैसे दूर फेंक दिया और सीट पर सीधी बैठ गई।
चायवाला जल्दी ही दो गिलासों में चाय लेकर दौड़ता चला आया। सुधाकर के हाथों में गिलास पकड़ाते हुए उसने पूछा,‘‘बिस्कुट वगैरा कुछऔर लेंगे साब?’’
‘‘नहीं।’’ सुधाकरजी ने कहा।
‘‘कोई बात नहीं…’’ गाड़ी में सोते बच्चों की ओर देखकर उसने पूछा,‘‘बच्चालोगों के लिए भी बनाऊँ?’’
‘‘वो अभी सो रहे हैं।’’ सुधाकर ने टाला।
‘‘कोई बात नहीं…’’ वह दाँत निपोरतासा बोला,‘‘जाग जाएँ तो आवाज़ लगा देना। दो मिनट में बना लाऊँगा।’’
यों कहकर वह चला गया।
वे दोनों चाय पीने लगे। अल्ताफ चायवाले के खोखे के पास पड़ी लकड़ी की बेंच पर ही बैठ गया था।
ममता और सुधाकर ने अपनीअपनी चाय खत्म करके गिलास अभी नीचे रखे भी नहीं थे कि दादाजी आ गए। उनके हाथों में चाय के गिलास देखकर एकदमसे बोले,‘‘अरे वाह, यहाँ भी बेडटी मिल गई!’’
‘‘जी बाबूजी, आपके आशीर्वाद से।’’ ममता ने कहा,‘‘पाँव छूती हूँ।’’
‘‘सदा सुखी रहो बेटा।’’ दादाजी बोले,‘‘देर न करो, जल्दी जाओ। मैं इस बीच बच्चों को जगाता हूँ।’’
‘‘बच्चों को सोने दीजिए बाबूजी।’’ ममता ने कहा,‘‘ये लोग तो वैसे भी देर तक सोने के आदी हैं।’’
‘‘देर तक सोने के आदी घर में हैं या सफ़र में?’’ दादाजी तीखे स्वर में बोले,‘‘इनकी बात तुम मुझ पर छोड़ दो और इस बुद्धू को लेकर फ्रेश होने को जाओ।’’
ममता ने सुधाकर की ओर देखा और केवल मुस्कराकर रह गईं। सुधाकर भी चुपचाप टॉयलेट्स की ओर बढ़ गए।

‘‘मणिकानिक्की! उठो।…उठो बेटे, देखो नजीबाबाद आ गया।’’ उनके चले जाने के बाद दादाजी ने सीटों पर पसरे पड़े बच्चों को जगाने के लिए हिलाना शुरू कर दिया।
‘‘नजीबाबाद!…यहाँ से बद्रीनाथ कितनी दूर है दादाजी?’’ थोड़ीबहुत कुननमुनन करने के बाद निक्की ने फुर्ती के साथ बैठते हुए पूछा।
‘‘वह तो अभी बहुत दूर है।’’ दादाजी बोले,‘‘तुम लोग फटाफट पेस्ट वगैरा से निबटो।…दिन अभी निकल ही रहा है बेटे। देर करोगे तो टॉयलेट के बाहर लाइन लगनी शुरू हो सकती है। सफर के दौरान इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए।’’
‘‘पहले आप हो आइए न दादाजी।’’ मणिका अपनी सीट पर करवट बदलकर बोली,‘‘जैसे ही आप आएँगे, हम चले जाएँगे।’’
‘‘अरे, तू भी जाग गई चुहिया?’’
‘‘गुड मार्निंग दादाजी।’’ वह आलस्यभरी आवाज़ में बोली।
‘‘वेरी गुड मार्निंग बेटा। मैं तो हो भी आया। कुल्लामंजन करके मुँहहाथ धोकर एकदम तैयार खड़ा हूँ तुम्हारे सामने।’’ दादाजी बोले।
‘‘ठीक है, पहले मैं जाता हूँ।’’ निक्की खड़ा होकर बोला।
‘‘बड़ा फुर्तीला बच्चा है।’’ दादाजी खुश होकर बोले,‘‘अभी रुक थोड़ी देर, मम्मीपापा गए हुए हैं उन्हें आने दो, तब जाना।…या फिर ऐसा कर, तू जा।’’
‘‘मेरा ब्रश, पेस्ट, तौलिया और साबुन किधर है दादाजी ?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘उस सूटकेस के भीतर, एकदम उ़पर।’’
सामान लेकर निक्की टॉयलेट की ओर बढ़ गया।
‘‘गाड़ी यहाँ कितनी देर रुकेगी दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘कुछ देर तो रुकेगी ही। क्यों ?’’
‘‘नजीबाबाद के बाद कोटद्वार ही आएगा न,  प्लेन का आखिरी स्टेशन?’’
‘‘ठीक कहा। वहीं से हम उत्तराखण्ड राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं।’’ दादाजी बोले।
‘‘कोटद्वार में भी कुछ देखने लायक स्थान हैं दादाजी?’’ उठकर सीट पर सीधी बैठते हुए मणिका ने पूछा।
‘‘देखने लायक भी और जानने लायक भी।’’ दादाजी बोले,‘‘लो, निक्की तो इतनी जल्दी लौट भी आया। उधर तुम्हारी मम्मी शायद तुम्हारे इन्तज़ार में खड़ी रह गई है, अब तुम जाओ।’’
‘‘जाती हूँ लेकिन मेरे आने तक भैया को आप कुछ नहीं बतायेंगे दादाजी।’’ मणिका अधिकारपूर्वक बोली और टॉयलेट की ओर चल दी।
‘‘दीदी, तेरा ब्रशपेस्ट।’’ गाड़ी के निकट आकर निक्की ने सूटकेस को देखा और मणिका का ब्रश उठाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
मणिका ब्रश लेकर आगे बढ़ गई।
अल्ताफ अभी भी चायवाले की बेंच पर ही बैठा था। वह दरअसल, इन लोगों के पूरी तरह तैयार होने का इन्तज़ार कर रहा था। दादाजी ने जैसे ही मणिका को टॉयलेट से बाहर आकर ब्रश करते देखा, आवाज़ लगाकर तीन चाय ले आने का ऑर्डर चायवाले को दे दिया। जैसा कि उसने कहा था, अगले दो ही मिनट में तीन गिलास चाय लेकर वह उपस्थित हो गया।
‘‘बच्चालोग के लिए बिस्कुट वगैरा कुछ लाऊँ साबजी?’’ चाय का एक गिलास दादाजी के हाथ में पकड़ाते हुए उसने पूछा।
‘‘वह सब है हमारे पास।’’ दादाजी ने कहा,‘‘वैसे भी इतनी सुबह ये लोग कुछ खायेंगे नहीं।’’
गाड़ी में पहले रखे चाय के खाली गिलासों को लेकर वह चला गया।
‘‘अब बताइए दादाजी।’’ मणिका चाय की चुस्की लेकर बोली।
‘‘अभी नहीं।’’ दादाजी बोले,‘‘गाड़ी चलना शुरू होगी तब।’’
वह बेचारी चुप हो गई। ममता और सुधाकर इस दौरान इधरउधर चहलकदमी करने लगे थे।
दोनों बच्चों ने अपनेअपने गिलास की चाय खत्म की। दादाजी ने भी। वहीं बैठेबैठे उन्होंने अल्ताफ को इशारा किया, अल्ताफ ने चायवाले को। वह दौड़कर आया और खाली गिलासों को हाथ में पकड़ते हुए अल्ताफ की ओर इशारा करके बोला,‘‘पैसे उन्होंने दे दिये हैं साबजी।’’
‘‘ठीक है।’’ दादाजी ने कहा।
अल्ताफ को चायवाले के पास से उठकर गाड़ी की ओर बढ़ता देखकर ममता और सुधाकर भी चले आए।
गाड़ी आगे चल दी।
बच्चों ने उत्सुकतापूर्वक दादाजी के चेहरे को निहारना शुरू किया।
आगामी अंक में जारी