सोमवार, नवंबर 15, 2010

कसाईघाट/बलराम अग्रवाल

-->
बहू ने हालाँकि अभी-अभी अपने कमरे की बत्ती बन्द की है; लेकिन खटखटाहट सुनकर दरवाजा खोलने के लिए रमा को ही जाना पड़ता है। दरवाजा खुलते ही बगल में प्रमाण-पत्रों की फाइल दबाए बाहर खड़ा छोटा दबे पाँव अन्दर दाखिल होकर सीधा मेरे पास आ बैठता है। मैं उठकर बैठ जाता हूँ। उसकी माँ रजाई के अन्दर से मुँह निकालकर हमारी ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर देखने लगती है।
क्या रहा? मेरी निगाहें उससे मौन प्रश्न करती हैं।
कुछ खास नहीं। दयाल कहता है कि इंटरव्यू से पहले पाँच हजार नगद…!
छोटे का वाक्य खत्म होते-न-होते बगल के कमरे में बहू की खाट चरमराती है,ए, सो गए क्या? पति को झकझोरते हुए वह फुसफुसाती महसूस होती है,नबाव साहब टूर से लौट आए हैं, रिपोर्ट सुन लो।
एक और चरमराहट सुनकर मुझे लगता है कि वह जाग गया है। पत्नी के कहे अनुसार सुन भी रहा है, अँधेरे में यह दर्शाने के लिए उसने अपना सिर अवश्य ही उसकी खाट के पाये पर टिका दिया होगा। इधर की बातें गौर से सुनने के लिए शान्ति बनाए रखने हेतु दोनों अपने-अपने समीप सो रहे बच्चों को लगातार थपथपाते महसूस होते हैं।
सुनो, मेरे गहनों और अपने पी एफ की ओर नजरें न दौड़ा बैठना, बताए देती हूँ। पति के सिर के समीप मुँह रखे लेटी वह फुसफुसाती लगती है।
बड़ा बेटा पिता का अघोषित-उत्तराधिकारी होता है। परिवार की आर्थिक-दुर्दशा महसूस कर बहू इस जिम्मेदारी से उसे मुक्त कराने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रही है; लेकिन सामाजिक उपेक्षा के भय ने बड़े को जबरन इसी खूँटे से बाँधे रखा है।
अभी तुम सो जाओ। मेरे मुँह से फूटता है,सवेरे सोचेंगे।
                                     चित्र:बलराम अग्रवाल
फाइल को मेज पर रख, कपड़े उतारकर छोटा अपनी माँ के साथ लगे बिस्तर में जा घुसता है। दरवाजा बन्द करके कमरे में आ खड़ी रमा भी मेरा इशारा पाते ही बत्ती बन्द कर अपनी माँ के पास जा लेटती है। घर में अजीब-सा सन्नाटा बिखर गया है। रिश्वत के लिए रकम जुटा पाने की पहली कड़ी टूट जाने के उपरान्त कसाईघाट पर घिर चुकी गाय-सा असहाय मेरा मन अन्य स्रोतों की तलाश में यहाँ-वहाँ चकराने लगता है।

मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

उम्मीद/बलराम अग्रवाल


जूनागढ़ निवासी मौहम्मद रफीक अपने रिक्शे में
रिक्शेवाले को पैसे चुकाकर मैंने ससुराल की देहरी पर पाँव रखा ही था कि रमा की मम्मी और
बाबूजी मेरी अगवानी के लिए सामनेवाले कमरे से निकलकर आँगन तक आ पहुँचे।
नमस्ते माँजी, नमस्ते बाबूजी! मैंने अभिवादन किया।
जीते रहो। बाबूजी ने मेरे अभिवादन पर अपना हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया। माँजी ने झपटकर मेरे हाथ से ब्रीफकेस ले लिया और उसी सामनेवाले कमरे के किसी कोने में उसे रख आईं।
मैं कहूँ थी नपन्द्रह पैसे की एक चिट्ठी पर ही दौड़े चले आवेंगे! ड्राइंग-रूम बना रखे उस दूसरे कमरे में हम पहुँचे ही थे कि वह बाबूजी के सामने आकर बोलीं,दुश्मन को भी भगवान ऐसा दामाद दे।
भले ही उसको कोई बेटी न दे। बाबूजी ने स्वभावानुसार ही चुटकी ली तो मैं भी मुस्कराए बिना न रह सका।
तुम्हें पाकर हम निपूते नहीं रहे बेटा। उनकी चुटकी से अप्रभावित वह भावुकतापूर्वक मेरी ओर घूमीं,चिट्ठी पाते ही चले आकर तुमने हमारी उम्मीद कायम रखने का उपकार किया है।
चिट्ठी पाते ही चले आने के उनके पुनर्कथन ने मुझे झकझोर-सा दिया। घर से मेरे चलने तक तो इनकी कोई चिट्ठी वहाँ पहुँची नहीं थी! मिट्टी के तेल की बिक्री का परमिट प्राप्त करने के लिए कुछ रकम मुझे सरकारी खजाने में बन्धक जमा करानी थी। समय की कमी के कारण रमा ने राय दी थी कि फिलहाल ये रुपए मैं बाबूजी से उधार ले आऊँ। अब, ऐसे माहौल में, इनकी किसी चिट्ठी के न पहुँचने और रुपयों के लिए आने के अपने उद्देश्य को तो जाहिर नहीं ही किया जा सकता था।
दरअसल, आप लोग कई दिनों से लगातार रमा के सपनों में आ रहे थे। मैं बोला, तभी से वह लगातार आप लोगों की खोज-खबर ले आने के लिए जिद कर रही थी। अब…। कहते हुए मैं बाबूजी से मुखातिब हो गया,…आप तो जानते ही हैं दुकानदारी का हाल। कल इत्तफाक से ऐसा हुआ कि मिट्टी… अनायास ही जिह्वा पर आ रहे अपने आने के उद्देश्य को थूक के साथ निगलते हुए मैंने कहा,सॉरी, चिट्ठी पहुँच गई आपकी। बस मैं चला आया।

मंगलवार, सितंबर 28, 2010

आखिरी उसूल /बलराम अग्रवाल

लात्कार की बात लड़की ने सबसे पहले मौसी के आगे रोई । मौसी ने उसकी बात पर हारी हुई-सी साँस ली; फिर बोली,औरत  के लिए सारे-के-सारे मर्द बाज़ हैं बेटी। उनकी निगाह में हमारी हैसियत एक कमजोर चिड़िया से ज्यादा कुछ भी नहीं है। बचकर रहना औरत को लुट जाने के बाद ही सूझता है। सब्र कर और....बचकर रहना सीख।
      लड़की सब्र न कर पाई। खुद पर बलात्कार की शिकायत लिखाने थाने में जा धमकी।
रहती कहाँ हो ? शिकायत सुनकर थानेदार ने पूछा।
फोटो:आदित्य अग्रवाल
जी....रेड-लाइट एरिया में। लड़की ने बताया।
रंडी हो ? इस बार उसने बेहया-अंदाज में पूछा।
ज्ज्जी। लड़की ने बेहद संकोच के साथ हामी भरी।
पैसा दिए बिना भाग गये होंगे हरामजादे, है न! वह हँसा।
यह बात नहीं है सर।
यही बात है... लड़की का एतराज सुनते ही वह एकदम-से कड़क आवाज में चीखा और अपनी कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ। उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से वह बुरी तरह चौंक गयी। भीतर का आक्रोश फूट पड़ने को छिद्र तलाशने लगा। उसका शरीर काँपने लगा। आँखों से बहती अश्रुधार कुछ और तेज हो गयी।
देखो, इस बार थानेदार ने समझाने के अन्दाज में बोलना शुरू किया,छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा हर कामदार कम-से-कम एक बार इस तरह की लूट का शिकार जरूर बनता है। जो अपने काम में लगा रहता है, वो देर-सवेर घाटे को पूरा भी कर लेता है। लेकिन, जो इसे सीने से लगाए घूमता है, वो कहीं का नहीं रहता।
मामला बिजनेस का नहीं है सर। लड़की ने तड़पकर कहा,आप समझने की कोशिश तो कीजिए। खरीदारों का नहीं है यह काम...।
रेड-लाइट एरिया की लड़कियों की शिकायतें दर्ज करने लगूँगा तो...। थानेदार ने उसके सामने खड़े होकर बोलना शुरू किया,तुम्हें तो पूरी जिन्दगी वहीं गुजारनी है। इस एक हादसे से ही इतना घबरा जाओगी तो...।
      लड़की बेबसी के साथ उसकी रूखी और गैर-जिम्मेदार बातों को सुनती रही और...।
जो हो चुका, उस पर खाक डालो। धमकी-भरे अन्दाज में वह कड़ाई के साथ उसका कंधा दबाकर बोला,हर काम, हर धंधे का पहला और आखिरी सिर्फ एक ही उसूल हैलड़ो किसी से नहीं।
नहीं......! एक झटके के साथ अपने कंधे से उसका हाथ झटककर लड़की पूरी ताकत के साथ चीखी,नहीं......!!

शनिवार, सितंबर 04, 2010

अन्तिम संस्कार/बलराम अग्रवाल

-->
पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…रचौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
सुनिए… पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,पिताजी शायद…
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा? हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और टप् की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! टप् की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दींलाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।

रविवार, अगस्त 22, 2010

पिताजी ने कहा था/बलराम अग्रवाल


-->
पिताजी शरीर से पूरी तरह रुग्ण हो गए थे। इतने कि चल-फिर भी नहीं सकते थे। गोद में उठाकर उन्हें जहाँ बैठा दिया जाता, बैठे रहते। जहाँ लिटा दिया जाता, लेटे रहते। इधर से उधर और उधर से इधर करने के लिए मैं कभी उन्हें गोद में उठाता था तो कभी पीठ पर।
मेरा यह जीवन सफल हुआ पिताजी! एक दिन मैं उनसे बोला।
किस तरह बेटे? उन्होंने पूछा।
आपकी सेवा का मौका पाकर। मैं बोला।
यानी कि तेरा जीवन सफल हो, इसके लिए मेरा अपाहिज और असहाय बन जाना जरूरी था। वह सहज, परन्तु ढले-से स्वर में बोले।
मेरा यह मतलब नहीं था पिताजी। उनके इस आकलन पर मैंने शर्मिंदगी के साथ कहा।
पिताजी कुछ देर चुप रहे, फिर बोले,सफल या असफल जीवन नहीं, जीवन-दृष्टि होती है बेटे। यह सब, जो तू कर रहा है, एक रोगी की तीमारदारी से ज्यादा और कुछ नहीं है। यह सब तो पैसे लेकर अस्पताल की नर्सें भी कर ही देती हैं…।
मैं उनकी बातें सुनता रहा। मेरे कहने का मतलब वैसा कुछ नहीं था, जैसा कि पिताजी ने समझा था। लेकिन पिताजी जो कह रहे थे, वह भी बहुत सही बात थी।
तू कह सकता है कि नर्सें सेवा कर सकती हैं, अपनापन भी जता सकती हैं; लेकिन वे वह संतोष नहीं दे सकतीं जो आदमी को अपने परिवारजनों या मित्रों की सेवा पाकर मिलता है। पिताजी बात को स्पष्ट करते हुए बोले,सच न होते हुए भी यह बात सच-जैसी लगती है क्योंकि अपने जीवन-स्तर और सोच को हमने इससे ऊपर उठने ही नहीं दिया है।
पिताजी मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाकर यह सब कह रहे थे। मैं ध्यान से उनका दर्शन सुनता रहा। इससे पहले इतना करीब होकर तो उन्होंने मुझसे कुछ कहा नहीं था।
तू समझ रहा है न मेरी बात? मुझे गुमसुम देखकर पिताजी ने पूछा।
जी पिताजी, पूरी तरह। मैं बोला।
सेवा अलग तरह का धर्म है बेटे और पिछली पीढ़ी के अधूरे छूट गए कामों को आगे बढ़ाते रहना अलग तरह का। आश्वस्त होकर पिताजी ने कहा,अगर तूने वाकई मेरी बात समझ ली है तो मेरे बाद उस दूसरी तरह के धर्म को निभाने की कोशिश में लगे रहना…।
इसके बाद कुछ-और नहीं बोल पाए थे वो। शायद जरूरत ही न समझी हो।

शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

धागे/बलराम अग्रवाल

-->
बुआ की बूढ़ी आँखों में आज थकान नहीं थी। न उदासी न बेबसी। उनमें आज ललक थी। घर आए अपने भतीजे पर समूचा प्यार उँड़ेल देने की ललक।
तुझे देखकर आत्मा हरी हो गई बेटे। देवेन के बालों में उँगलियाँ फिराते हुए वह बोलीं,जुग-जुग जीओ मेरे बच्चे।
मेरे मन में तुम्हारे दर्शनों की इच्छा बड़े दिनों से थी बुआ। देवेन उनके चरण छूता हुआ बोला,लेकिन नौकरी में ऐसा फँस गया हूँ कि मत पूछो…आज दोपहर बाद कुछ फुरसत-सी थी। बस, घर न जाकर सीधा इधर ही निकल आया। अब, रातभर तुम्हारा सिर खाऊँगा। कुछ पूछूँगा, कुछ सुनूँगा। सुनाऊँगा कुछ नहीं। सिर्फ एक घंटा सोऊँगा और सवेरे वापस चला जाऊँगा।
उसके इस अंदाज़ पर बुआ का मन तरल हो उठा। आँखें चलक आईं। गला रुँध गया।
क्या हुआ बुआ? उनकी इस गंभीरता पर देवेन ने पूछा।
कुछ नहीं। अपने पल्लू से आँखें पोंछती बुआ बोलीं,बिल्कुल बड़े भैया पर गया है तू। वो भी जब आते थे तो खूब बातें करते थे। सुख-दुख, प्यार-दुलार और दुनियादारी की बातें। उनके आने पर रात बहुत छोटी लगती थी। गुस्सा आता था कि सूरज इतनी जल्दी क्यों उग आया।
भावुकताभरी उनकी इस बात पर देवेन भी अतीत में उतर गया। बुआ के बड़े भैया यानी पिताजी की स्मृति हजारों हजार फूलों की गंध-सी उसके हृदय में उतर गई। उसके उदास चेहरे को देख बुआ तो सिसक ही पड़ीं।
भैया ने कभी भी मुझे छोटी बहन नहीं समझा, हमेशा बेटी ही माना अपनी। सिसकते हुए ही वह बोलीं,वो मेरा ख्याल न रखते तो इकहत्तर की लड़ाई में तेरे फूफा के शहीद हो जाने के बाद इस दुनिया में रह ही कौन गया था मेरा? अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थे तेरे फूफा। न बाल न बच्चा। साल छ: महीने रोकर मैं भी मर-खप गई होती…।
ऐसी थकी और हारी हुई बातें नहीं किया करते बुआ। अपनी उदासी पर काबू पाते हुए देवेन ने बुआ के कंधों पर अपने हाथ रखे। बोला,जैसे पिताजी तुम्हारे लिए पिता समान थे, वैसे ही तुम हमारे लिए माँ-समान हो। एक-दूसरे को स्नेह और सहारा देते रहने की यह परम्परा अगर टूट जाने दी तो घर, घर नहीं रहेंगे बुआ, नर्क बन जाएँगे।
देवेन की इन बातों ने बुआ के भावनाभरे मन में बवंडर-सा मचा दिया। अपने कंधों पर उसके हाथ उन्हें अपने भतीजे के नहीं, बड़े भैया के हाथों-जैसे दुलारभरे लगे। आगे बढ़कर वो उसके सीने से लग गईं और भैया-भैया कहतीफूट-फूट कर रो उठीं।

रविवार, जुलाई 25, 2010

प्रतिपक्ष / बलराम अग्रवाल

-->दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखासामने बैठे नौजवान पर नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन… बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होताअपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त! मैं उससे बोला।
गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोशकोई भी आम-वजह समझ लो। वह लापरवाह अंदाज में बोला, तुम सुनाओ।
मैं! मैं हिचका। इस बीच दो नीट गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
है कुछ बताने का मूड? वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की कैपिसिटी थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
मैं… एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…। सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया, लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है… हम तीन भाई हैं… तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले… माँ कई साल पहले गुजर गई थी… और बाप बुढ़ापे और… कमजोरी की वजह से… खाट में पड़ा है… कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को… उसने… पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन… तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का… अपनी मर्जी के मुताबिक… इस्तेमाल नहीं कर सकता… ।
क्यों? मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
बुड्ढा सोचता है कि… हम… तीनों-के-तीनों भाई… बेवकूफ और अय्याश हैं… शराब और जुए में… जाया कर देंगे जायदाद को… । मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला, पैसा कमाना… बचाना… और बढ़ाना… पुरखे भी यही करते रहे… न खुद खाया… न बच्चों को खाने-पहनने दिया… बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले… लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को… लेकिन मैं… मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ… 
तू…ऽ…  मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा, बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
कैसे हो? आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
ये पट्टियाँ…? दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
इसीलिए पीने से रोकती हूँ। वह बोली, ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा… रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता… पता है?
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…। मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।

गुरुवार, जुलाई 08, 2010

गुलमोहर/बलराम अग्रवाल

-->मकान के बाहर लॉन में सूरज की ओर पीठ किए बैठे जतन बाबू न जाने क्या-क्या सोचते रहते है। मैं लगभग रोजाना ही देखता हूँ कि वह सवेरे कुर्सी को ले आते हैं। कंधों पर शाल डाले, लॉन के किनारे पर खड़े दिन-ब-दिन झरते गुलमोहर की ओर मुँह करके, चुपचाप कुर्सी पर बैठकर वह धूप में सिंकने लगते हैं। कभी भी उनके हाथों में मैंने कोई अखबार या पुस्तक-पत्रिका नहीं देखी। इस तरह निठल्ले बैठे वह कितना वक्त वहाँ बिता देते हैं, नहीं मालूम। बहरहाल, मेरे दफ्तर जाने तक वह वहीं बैठे होते हैं और तेज धूप में भी उठकर अन्दर जाने के मूड में नहीं होते।
लालाजी, ऑफिस जाने के सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आया हुआ मैं अपने मकान-मालिक से पूछता हूँ—“वह सामने…
वह जतन बाबू है, गुलामी…
सो तो मैं जानता हूँ। लालाजी की तरह ही मैं भी उनका वाक्य बीच में ही लपक लेता हूँ—“मेरा मतलब था कि जतन बाबू रोजाना ही…इस तरह…गुलमोहर के सामने…?
वही तो बता रहा हूँ बाबूजी! सीधी-सादी बातचीत के दौरान भी चापलूस हँसी हँसना लालाजी की आदत में शामिल है। स्वाभानुसार ही खीसें निपोरते-से वह बताते हैं—“गुलामी के दिनों में जतन बाबू ने कितने अफसरान को गोलियों-बमों से उड़ा दिया होगा, कोई बता नहीं सकता। कहते हैं कि गुलमोहर के इस पौधे को जतन बाबू के एक बागी दोस्त ने यह कहकर यहाँ रोपा था कि इस पर आजाद हिन्दुस्तान की खुशहालियाँ फूलेंगी। वक्त की बात बाबूजी, उसी रात अपने चार साथियों के साथ वह पुलिस के बीच घिर गया और…
और शहीद हो गया। लालाजी के वाक्य को पूरा करते हुए मैं बोलता हूँ।
हाँ बाबूजी। जतन बाबू ने तभी से इस पौधे को अपने बच्चे की तरह सींच-सींचकर वृक्ष बनाया है। खाद, पानी…कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी। खूब हरा-भरा रहता है यह; लेकिन……
लेकिन क्या?
हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए इतने बरस बीत गए। चलते-चलते लालाजी रुक जाते हैं—“पता नहीं क्या बात है कि इस पर फूल एक भी नहीं खिला…।

बुधवार, जून 09, 2010

निवारण/बलराम अग्रवाल

-->
राजनीतिक-गर्दिश का दौर था। संकट-निवारण के उद्देश्य से पिता ने हवन का आयोजन किया। उसमें अपने कुल-देता की प्रतिमा को उसने हवन-स्थल पर स्थापित किया। और, प्रतिमा के एकदम बाईं ओर उसके बेटों ने एक विचित्र-सा मॉडल लाकर रख दिया।
यह क्या है? पिता ने पूछा।
बचपन में संगठन के महत्व को समझाने के लिए आपने एक बार लकड़ियों के एक गट्ठर का प्रयोग किया था पिताजी। बड़े पुत्र ने उसे बताया,आपकी उस शिक्षा को हमने आत्मसात कर लिया। और तभी-से, आराध्य के रूप में इस मॉडल को अपना लिया।
उफ्। पिता ने अपने माथे पर हाथ मारा और वहीम बैठ गया। मौजूदा संकट का कारण पार्टी के बाहर नहीं, पार्टी के भीतर, या कहूँ कि घर के ही भीतर मौजूद है… वह बुदबुदाया,कुल-देवता ने बड़ी कृपा की कि सही समय पर इस सच पर से परदा हटा दिया। इसके साथ ही वह देवता की प्रतिमा के आगे दण्डवत बिछ गया।
अरे मूर्खो! जो बताया जा रहा होता है, सिर्फ उसी को सुनना सीखे हो? लानत है। जो घट रहा है, गुजर रहा है, उस पर भी निगाह डालनी सीखो।…मैंने लकड़ियों का एक गट्ठर तुमको दिया था? देवता के अभिवादन से उठते हुए वह चीखा।
जी! बेटों ने स्वीकारा।
…और उसको तोड़ने के लिए बोला था?
जी।
…और जब तुममें-से कोई भी उसको न तोड़ पाया तो उस गट्ठर को खोलकर उसकी एक-एक लकड़ी को तुम्हें सौंप दिया था। पिता बोला,क्या हुआ था तब?
तब हम भाइयों ने पलक झपकते ही अपने-अपने हिस्से की लकड़ी को तोड़ डाला था। सभी बेटे एक-स्वर में बोले।
और तब आपने समझाया था कि एकता में ही बल है, एक रहना सीखो। अंत में मँझले बेटे ने अपना वाक्य जोड़ा।
चुप! चुप!! पिता एकदम-से उस पर झल्ला उठा। बोला,कुछ बातें बिना बोले भी कही और सुनी जाती हैं मूर्ख। मैंने बोला और तुमने सुना, बस? क्या तुमने यह नहीं देखा कि मैंने अच्छे-खासे बँधे-बँधाए गट्ठर को खोल डाला था? उसकी लकडियों को अलग-अलग कर डालने का मेरा करिश्मा तुमने नहीं देखा? एकता में शक्ति की बात भूल जाओ। याद रखो, मैंने हमेशा तुम्हें खोलने और तोड़ने की ही शिक्षा दी है। इन दिनों गहरे संकट में फँसा हूँ। बंधनों-गठबंधनों को खोलना शुरू करो। एक-एक आदमी को तोड़ो। मेरी शिक्षा के फैलाव को पहचानो…जा…ऽ…ओ…।

बुधवार, मार्च 31, 2010

माँ नहीं जानती फ्रायड/बलराम अग्रवाल


माँ…ऽ…! जैसे कुछ देखा ही न हो वैसे पुकारते हुए वह माँ के कमरे की ओर बढ़ा, ताकि उसके पहुँचने तक माँ सँभलकर बैठ जाए।
लेकिन माँ ज्यों की त्यों बैठी रही।
श्श्श्श्श! अपने होठों पर तर्जनी को खड़ी करने के बाद उसने हथेली के इशारे से उसे आवाज को धीमी रखने का इशारा किया।
माँ का इशारा पाकर वह दोबारा नहीं चीखा।
यह क्या कर रही हो माँ! माँ के पास पहुँचते-पहुँचते उसने लगभग उग्र स्वर में सवाल किया।
धीमे बोल…बड़ी मुश्किल-से आँखें लगी हैं बच्ची की, जाग जाएगी। उसके सवाल का जवाब दिए वगैर माँ ने फुसफुसाकर उसे डाँटा।
मैं पूछ रहा हूँ…ऽ…ये कर क्या रही हो? भले ही फुसफुसाकर, लेकिन उग्र स्वर में ही उसने अपने सवाल को दोहराया।
देख नहीं रहा है? माँ ने मुस्कराकर कहा।
देख रहा हूँ इसीलिए तो पूछ रहा हूँ।
सीमा से जो काम नहीं हो पा रहा है, वह कर रही हूँ।
कैसी तोहमत लगा रही हो माँ! वह पत्नी का पक्ष लेते हुए बोला,एक घण्टा पहले खुद मेरी आँखों के सामने पिंकी को दूध पिलाया है उसने।
दूध पिलाया है…छाती से नहीं लगाया। माँ मुस्कराते हुए भी गंभीर स्वर में बोली,बोतल मुँह में लगाने से बच्चे का सिर्फ पेट भरता है, नेह नहीं मिलता।
माँ की इस बात का वह तुरन्त कोई जवाब नहीं दे पाया।
बुढ़ापे की छातियाँ हैं बेटे। सो चुकी पिंकी को आँचल के नीचे से निकालकर बिस्तर पर लिटाते हुए माँ ने अपने बयान को जारी रखा,दूध एक बूँद भी नहीं है इनमें; लेकिन नेह भरपूर है।
माँ की सहजता को देख-सुनकर उसमें उसे थोड़ी देर पहले के अपने संकोच के विपरीत ममताभरी युवा-माँ दिखाई देने लगी।
तू जो इतना बड़ा होकर भी माँ-माँ करता चकफेरियाँ लगाता फिरता है मेरे आसपास, वो इन छातियों से लगाकर पालने का ही कमाल है मेरे बच्चे। उसके सिर पर हाथ फिराकर माँ बोली,छाती से लगकर बच्चा हवा से नहीं, माँ के बदन से साँस खींचता है…तू पिंकी की फिकर मत कर, इसे मैं अपने पास ही सुलाए रखूँगी…जा।
माँ की इस बात को सुनकर उसने अगल-बगल झाँका। वहाँ सिर्फ वह था और माँ थी। माँ! वह सिर्फ इतना ही बोल पाया। सदा-सदा से पूजनीया माँ की इस मुद्रा को देखकर उसके गले में तरलता आ गई। इस युवावस्था में भी माँ के आगे वह बच्चा ही हैउसे लगा; और यह भी कि वृद्धा-माँ में युवा-माँ हमेशा जीवित रहती है।

सोमवार, मार्च 01, 2010

सुंदरता/बलराम अग्रवाल

-->
ड़की ने काफी कोशिश की लड़के की नजरों को नजर-अन्दाज करने की। कभी वह दाएँ देखने लगती, कभी बाएँ। लेकिन जैसे ही उसकी नजर सामने पड़ती, लड़के को अपनी ओर घूरता पाती। उसे गुस्सा आने लगा। पार्क में और भी स्टुडैंट्स थे। कुछ ग्रुप्स में तो कुछ अकेले। सब के सब आपस की बातों में मशगूल या पढ़ाई में। एक वही था, जो खाली बैठा उसको तके जा रहा था।
गुस्सा जब हद से ऊपर चढ़ आया तो लड़की उठी और लड़के के सामने जा खड़ी हुई।
ए मिस्टर! वह चीखी।
वह चुप रहा और पूर्ववत ताकता रहा।
जिन्दगी में इससे पहले कभी लड़की नहीं देखी है क्या? उसकी ढीठता पर वह पुन: चिल्लाई।
इस बार लड़के का ध्यान टूटा। उसे पता चला कि लड़की उसी पर नाराज हो रही है।
घर में माँ-बहन हैं कि नहीं? लड़की फिर भभकी।
सब हैं, लेकिन आप गलत समझ रही हैं। इस बार वह अचकचाकर बोला,मैं दरअसल आपको नहीं देख रहा था।
अच्छा! लड़की व्यंग्यपूर्वक बोली।
आप समझ नहीं पायेंगी मेरी बात। वह आगे बोला।
यानी कि मैं मूर्ख हूँ!
मैं खूबसूरती को देख रहा था। उसके सवाल पर वह साफ-साफ बोला,मैंने वहाँ बैठी निर्मल खूबसूरती को देखा, जो अब वहाँ नहीं है।
अब वो यहाँ है। उसकी धृष्टता पर लड़की जोरों से फुंकारी,बहुत शौक है खूबसूरती देखने का तो अम्मा से कहकर ब्याह क्यों नहीं करा लेते हो।
मैं शादी-शुदा हूँ और एक बच्चे का बाप भी। वह बोला,लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। किसी एक चीज या किसी एक मनुष्य में भी वह हमेशा ही कैद नहीं रहती। अब आप ही देखिए, कुछ समय पहले तक आप निर्मल सौंदर्य का सजीव झरना थींअब नहीं हैं।
उसके इस बयान से लड़की झटका खा गई।
नहीं हूँ तो न सही। तुमसे क्या? वह बोली।
लड़का चुप रहा और दूसरी ओर कहीं देखने लगा। लड़की कुछ सुनने के इन्तजार में वहीं खड़ी रही। लड़के का ध्यान अब उसकी ओर था ही नहीं। लड़की ने खुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया और बदतमीज कहीं का कहकर पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई।

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

जानवर/बलराम अग्रवाल

-->
लॉन में बैठे वे आसमान को ताक रहे थे। इस हालत में उनसे कुछ अर्ज़ करने की जुर्रत ननुआ नहीं कर सकता था। ध्यान भंग करने से उस पर वे पूरी तरह झल्ला पड़ते। अनजाने ही ऐसा करके उनकी झल्लाहट को वह कई बार झेल चुका था। उसका दुखी मन इस समय वह सब झेलने की हालत में नहीं था। मन मारकर एक ओर को बैठ गया।
दसेक मिनट ऐसे ही बीत गए। कल्पनालोक से उतरकर आखिर वे ज़मीन पर आये। ननुआ को सामने बैठा देखकर चौंक पड़े; बोले,अरे! तू कब आया?
ज्यादा देर नहीं हुई सरकार। ननुआ ने हाथ जोड़े।
बोल।
आप कोई गहरी बात सोच रहे थे… अपना दर्द बयान करने से पहले ननुआ ने उन्हीं की बात सुनना ज़रूरी समझा।
हाँ… वे पुन: आसमान की ओर देखते हुए बोले,ऊपर हजारों चीलें उड़ती हैं। उनमें से सैकड़ों कभी-न-कभी बीट-पेशाब छोड़ती ही रहती होंगी।…मैं दरअसल सोच रहा था कि…पता नहीं कहाँ-कहाँ गिरता होगा वह सब! यों कहते हुए उन्होंने अपने सिर पर रखे ओढ़ावन को ठीक किया, फिर एकाएक ननुआ से पूछ बैठे,कभी तेरा ध्यान गया इस ओर?
बीट-पेशाब पर तो हमारा ध्यान कभी गया नहीं, ससुरा जहाँ गिरता हो, गिरा करे… ननुआ उनके इस सवाल पर तपाक-से बोला,दुनिया हम गरीबों के सिर पर मूत रही है तो इन चील-कौऔं के मूतने की ही क्या फिक्र-शिकायत करें। हाँ, एक-साथ ज्यादा चीलों को एक ही जगह पर मँडराते देखते हैं तो…किसी गरीब का जनावर जाता रहा शायदमन में यही ख्याल पहले आता है मालिक। इतना कहते-कहते अपने सिर पर से साफी उतारकर उसने दोनों हथेलियों से अपने मुँह में ठूँस ली, फिर भी रुलाई को न रोक सका। रोते-रोते ही बोला,अपना भीमा कल रात…
कभी ऊँचा नहीं सोच सकते…जानवर के जानवर रहेंगे हमेशा। उसकी बात को पूरा सुनने से पहले ही वे भुनभुनाहटभरे स्वर में बुदबुदाए और उसको वहीं रोता छोड़कर हवेली के भीतर घुस गए।

रविवार, जनवरी 31, 2010

युद्धखोर मुर्दे/बलराम अग्रवाल


लॉन छोड़कर हम अन्दर की ओर उठ चले। नरेश और सुरेश ने लपककर तभी खाली हुई कोने वाली एक मेज पर कब्जा जमा लिया। उनके पीछे-पीछे मैं भी एक सीट पर जा बैठा।
असल आजादी के लिए संघर्ष अभी शेष है पत्रकार महोदय! हमारे बाईं ओर वाली सीट पर बैठे सिगारधारी सज्जन ने मेज थपककर प्रभावपूर्ण स्वर में कहा तो मेरा सिर उन्हीं की ओर घूम गया—“और उसे मैं अन्त तक जारी रखूँगा। वह बोले।
वह तो रखनी ही चाहिए। पत्रकार महोदय ने कहा—“लेकिन व्यवस्था-परिवर्तन हेतु तैयार की गई हमारी संघर्ष-वाहिनी के तहत यह संघर्ष करो तो हम सब तुम्हारे साथ हैं।
मुझे मंजूर है। भयंकर झंझावात में घिरे अपने हाथों में अनायास आ गये किसी सहारे की तरह उन्होंने तपाक-से पत्रकार महोदय का हाथ अपने हाथों में दबोच लिया।
सिगार से दागेंगे गोली! साले कायर…!! इस बार सुरेश की बुदबुदाहट ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया—“कॉफी-हाउस की मेजों पर बैठे ये मुर्दे इस देश में पता नहीं कब युद्ध की योजनाओं से मुक्त होंगे?
मुद्दा तो इनका ठीक ही है। नरेश बोला—“जरूरत उस आदमी की है जो यहाँ से बाहर सड़क पर इन्हें इकट्ठा कर सके।
आजादी पाने के लिए जिंदादिलों की दरकार होती है नरेश।
उसी स्वर में तमककर सुरेश बोला—“और उन्हें बाड़े में कैद बकरियों की तरह हाँककर सड़क पर नहीं लाना पड़ता।
मेरा ख्याल है कि हमें अब चलना चाहिए। बहस को तूल पकड़ता महसूस कर मैंने उठते हुए कहा—“ऐसी मन:स्थिति में मुझे नहीं लगता कि हम अपने मामले पर विचार कर पायेंगे।
सुरेश और नरेश भी चुपचाप वहाँ से उठ लिए। हालाँकि मेरी तरह ही वे भी अच्छी तरह जानते थे कि हम जब भी, जहाँ भी विमर्श के लिए मिलेंगे, मुर्दे हमारे चारों ओर युद्ध की योजनाओं में मशगूल होंगे।

बुधवार, जनवरी 13, 2010

मुलाकातें/बलराम अग्रवाल

-->
हैलो!
हैलो!
कब तक खामोश रहोगी?
शादी होने तक।
कल, मैं शाम तक यहीं पर टहलता रहा।
सच!
तुम्हारे बिना पागल-सा महसूस करता हूँ।
लेकिन…परसों तो तुमने कहा था कि तुम्हें देखते ही मैं पागल हो जाता हूँ?
महसूस करना अलग बात है, हो जाना अलग।
तुम्हें पाने के लिए मैं सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ।
दहेज भी?
दहेज सब कुछ नहीं होता…इसलिए उसे छोड़ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।
सुनो, टी वी की बजाय डैडी से तुम्हें ए सी माँगना चाहिए।
वही तो माँगा है।
हाथों-हाथ कार भी कह देते…तो…घूमने-फिरने में…।
कमाल है! हर चीज माँगने से ही मिलेगी? तुम्हारे डैडी अपनी तरफ-से कुछ नहीं देंगे?
तुम समझती क्यों नहीं हो?
मैं क्यों समझूँ तुम्हारा आदर्शवाद?
मैंने दहेज लेने से इंकार किया है, शादी करने से नहीं।
वह शुभ-काम…लगता है मुझे करना पड़ेगा।…कल मैं नहीं आ पाऊँगी।
मैं भी।
परसों मिलोगे?
न…हाँ…दरअसल…।
शादी कहीं-और तय हो गई है क्या? किससे?
कुछ देर ठहरो। वह यहीं पर आती होगी।
वैरी गुड! अभी कुछ देर बाद मेरे भी वुड-बी हस्बैंड उस पेड़ के नीचे पहुँचने वाले हैं!
काफी देर कर दी।
वह भी अभी तक पेड़ के नीचे नहीं पहुँचे।
तुम्हारे साथ डेटिंग बहुत अच्छी रहीएकदम लव-अफेअर जैसी।
लो, वह आ गए।
कमाल है, उनके साथ वाली लड़की के साथ ही तो मेरी शादी तय हुई है!
ये भी डेटिंग खत्म करके आ रहे लगते हैं।
शायद।