बुधवार, नवंबर 29, 2017

हत्या एक रक्तपायी की / बलराम अग्रवाल

अपने-आप को अचानक मैंने एक दिव्य-स्थान पर खड़ा पाया। यह कौन-सी जगह हो सकती है?—सोचते हुए मैंने इधर-उधर देखा। मेरे सिर के आसपास पिनपिना रहे एक अदद मच्छर के अलावा वहाँ मुझे कोई और नज़र नहीं आया। ऐसी दिव्य जगह पर मच्छर! मेरे भीतर एक आश्चर्य-सा सवाल बनकर उभरा। फिर तुरन्त ही समाधान भी आया—दुष्ट-आत्माएँ कभी-भी और कहीं-भी प्रकट हो सकती हैं।
‘‘सुनो मानव, इस मशक का आरोप है कि तुमने अकारण ही इसकी हत्या की है।’’ एकाएक एक दिव्य-स्वर मेरे कानों में पड़ा। मैं भौंचक-सा इधर-उधर देखने लगा। मानव! मशक! ...ओह! यह पृथ्वीलोक नहीं है—मेरे मन ने कहा—परलोक है शायद।
‘‘उत्तर दो।’’ दिव्य-स्वर ने आदेश दिया।
‘‘क्या उत्तर दूँ?’’ मेरे अन्तर के पता नहीं किस कोने से स्वर फूटा, ‘‘अब तक के जीवन में पता नहीं कितने खटमलों और मच्छरों ने मेरा लहू पिया है। उनमें से ज्यादातर का तो मुझे पता तक न चला। जिनका पता चला, उनमें-से भी ज्यादातर का मैं कुछ बिगाड़ ही न सका। जिन पर मेरा वश चला, वे ही मारे जा सके, बस। आप ही बताइए, कि इनके लिए मेरा लहू पीना अनुचित नहीं था तो मेरे लिए इनको मार डालना क्यों अनुचित है?’’
‘‘लेकिन परमपिता, मैं तो उड़ान से थककर इसकी बाँह पर बैठा भर था।’’ तभी मच्छर की ओर से आवाज़ आई, ‘‘खून तो मैं किसी और का पीकर आया था। इसने अकारण ही मसल डाला मुझ निरपराध को।’’
अजीब बात है! दूसरों के लहू पर जीने वाला जीव अपनी हत्या पर हाय-तौबा मचा रहा है! लहू तो मेरा पिया जाता रहा है। अपील तो मेरी ओर से दाखिल होनी चाहिए थी। मेरे भीतर तूफान उठता रहा, उठता रहा। ‘‘बड़ा अच्छा बहाना है।’’ मेरे अन्तर ने बोलना शुरू किया, ‘‘और, ये रक्तपायी निरपराध भी होने लगे? क्षमा करें महाप्रभु, इसकी हत्या करने का मुझे कोई अफसोस नहीं है।’’
‘‘बड़े गंदे हो, छिः!’’ उसी दौरान भोजन की थाली को मेज पर रख चुकी पत्नी की सड़ी-सी आवाज ने मेरी तन्द्रा को भंग किया। बोली, ‘‘बाँह पर मच्छर को मारकर इतनी देर से खून को तके जा रहे हो। घिन नहीं आती?’’

‘‘आती थी...!’’ बाँह पर जम गए उसके रक्त को धोने के लिए उठते हुए मैंने कहा, ‘‘लेकिन, आनी नहीं चाहिए थी।’’                                      ⧭⧭⧭

मंगलवार, नवंबर 14, 2017

प्रतिपक्ष / बलराम अग्रवाल

 25-7-2010 को यह लघुकथा मूल शीर्षक 'प्रतिपक्ष' के स्थान पर 'लड़ाई' शीर्षक से प्रकाशित थी। यहाँ मूल शीर्षक से पुन; प्रकाशित है।--बलराम अग्रवाल                                                                                                                      दूसरा पैग़ चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखासामने बैठे नौजवान पर नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन… बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होताअपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त! मैं उससे बोला।
गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोशकोई भी आम-वजह समझ लो। वह लापरवाह अंदाज में बोला, तुम सुनाओ।
मैं! मैं हिचका। इस बीच दो नीट गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
है कुछ बताने का मूड? वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की कैपिसिटी थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
मैं… एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…। सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया, लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है… हम तीन भाई हैं… तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले… माँ कई साल पहले गुजर गई थी… और बाप बुढ़ापे और… कमजोरी की वजह से… खाट में पड़ा है… कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को… उसने… पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन… तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का… अपनी मर्जी के मुताबिक… इस्तेमाल नहीं कर सकता… ।
क्यों? मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
बुड्ढा सोचता है कि… हम… तीनों-के-तीनों भाई… बेवकूफ और अय्याश हैं… शराब और जुए में… जाया कर देंगे जायदाद को… । मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला, पैसा कमाना… बचाना… और बढ़ाना… पुरखे भी यही करते रहे… न खुद खाया… न बच्चों को खाने-पहनने दिया… बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले… लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को… लेकिन मैं… मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ… 
तू…ऽ…  मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा, बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
कैसे हो? आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
ये पट्टियाँ…? दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
इसीलिए पीने से रोकती हूँ। वह बोली, ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा… रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता… पता है?
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…। मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।

शुक्रवार, सितंबर 15, 2017

धीरे-धीरे रे मना… दोहों से बना एक बाल नाटक / बलराम अग्रवाल

Among 'Seven Senses School', Bengluru Children
पूरी टीम सबसे पहले गुरु-वंदना करती है। यदि बालकों (बालिकाओं को भी यहाँ बालक ही लिखा गया है। निर्देशक स्वयं देखें किसको क्या रोल देना है) को यह याद हो, तब भी, सावधानी के तौर पर पार्श्व से इसका गायन कराया जा सकता है—

कोरस

बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर॥1॥

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥2॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥3॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥4॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥5॥

जथा सुअंजन अंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन, भूतल भूरि निधान॥6॥

[निर्देशक की सुविधा के लिए ऊपर वाले अंश का सरल अर्थ—मैं अपने गुरु महाराज के चरण-कमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और मनुष्य के रूप में भगवान ही हैं और जिनके वचन घने अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने के लिए ज्ञान रूपी सूरज की किरणों के समूह जैसा है॥1॥ मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज (धूल) की वन्दना करता हूँ, जो ज्ञान में अनुराग रूपी रस से भरी हुई है। वह संजीवनी जड़ी का सुंदर चूर्ण है, जो सारे सांसारिक रोगों के परिवार का नाश करने वाला है॥2॥ वह रज पुण्यवान्‌ पुरुष रूपी शिवजी के शरीर पर मली हुई निर्मल विभूति है। वह कल्याण और आनन्द को जन्म देने वाली है। मनुष्यों के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल (यानी धुँधलेपन) को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥3॥ श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥4॥ उनके आशीर्वाद से हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं। श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर सुरमा है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। ॥5॥  जैसे सिद्ध किए हुए सुरमे को आँखों में लगाकर साधक, सिद्ध और ज्ञानी लोग पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से (यानी बहुत कम प्रयास से) ही बहुत-सी खानें देख लेते हैं॥6॥]

उद्घोषक : आज जो प्रहसन आपके सामने हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, उसमें हिन्दी के तीन महान कवियों गोस्वामी तुलसीदास, महात्मा कबीर और अब्दुर्रहीम खानखाना द्वारा लिखे गये दोहों और साखियों का प्रयोग किया गया है। इनके माध्यम से जीवन के कुछ नैतिक और व्यावहारिक मूल्यों को समझाया गया है।

बालक-1 : (बालक-2 से) भाई, ये नेता लोग तो हमारे समाज के मुखिया ही होते हैं न?
बालक-2 : (कुछ सोचता-सा) भाई, ‘मुखिया’ इन्हें होना चाहिए, लेकिन ‘मुखिया’ ये होते नहीं हैं।
बालक-1 : तुम ऐसा कैसे कह सकते हो?
बालक-2 : गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है—
मुखिया मुखु सों चाहिए खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ॥
बालक-1 : मतलब?
बालक-2 : मतलब यह कि, मुँह में डाले गए भोजन को मुँह गालों में ही नहीं रोक लेता, उसे वह  पेट में पहुँचा देता है और वहाँ से वह शरीर के सारे अंगों का पालन करता है। समाज के मुखिया को भी ऐसा ही होना चाहिए। 
बालक-1 : भाई, मुखिया तो अच्छे काम करना चाहता है लेकिन उसके चारों ओर इकट्ठे हो गये चापलूस और मक्कार लोग उसकी गलत-सलत तारीफें कर-कर के उसका बेड़ा गर्क कर डालते हैं। कहा गया है कि—
                  सचिव  बैद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज  धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥
बालक-2 : मतलब?
बालक-1 : मतलब यह कि मंत्री, वैद्य और गुरु —ये तीन लोग अगर डर की वजह से चापलूसी भरी बातें करते हैं तो राज्य का शरीर का और शिष्य का बहुत जल्द नाश कर डालते हैं।
बालक-3 : हाँ, लेकिन हमें चापलूसी के अन्दाज और मीठा बोलने के अन्दाज के बीच अन्तर को भी समझते रहना होगा। ऐसा न हो कि सभी को चापलूस मानकर हम कठोर बोलने लगें। क्योंकि—
तुलसी मीठे बचन  ते सुख उपजत चहुँ ओर 
बसीकरन इक मंत्र है परिहरु बचन कठोर 
इसका मतलब यह है कि मीठे वचन सब ओर सुख फैलाते हैं । किसी को भी  वश में करने का यह अचूक मन्त्र है। इसलिए हमें कठोर वचन छोड़कर मीठा बोलने की कोशिश करनी चाहिए।
बालक-4 : बिल्कुल ठीक कहा। लेकिन वशीकरण की आस हर व्यक्ति से नहीं करनी चाहिए। हमें अपने मान-सम्मान की भी पूरी चिन्ता करनी चाहिए। सुनो—
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसे मेह॥
यानी जिस जगह आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों, जहाँ लोगों की आँखों में आपके लिए प्रेम या स्नेह ना हो,  वहाँ कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ आपके ऊपर सोने की बारिश ही क्यों न की जा रही हो।
बालक-5 : कबीरदास तो यह भी कहते हैं कि बड़प्पन दिखाने के लिए व्यक्ति को कभी भी अपनों के बीच नहीं जाना चाहिए।
बालक-4 : क्यों?
बालक-5 : वो कहते हैं कि…  
कबिरा तहाँ न जाइये, जहाँ हो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।” 
क्योंकि अपने गाँव, अपनी बस्ती के लोग आपके ज्ञानी होने के, आपके बड़प्पन के महत्व को नहीं जानेंगे। केवल यही जानेंगे कि यह किस परिवार में पैदा हुआ था। आपके सांसारिक पिता का नाम लेकर बोलेंगे—अरे, अमुक का लड़का आया है। भाई, इसी के साथ एक और जगह भी है, जहाँ जाने के लिए उन्होंने मना किया है।
बालक-4 : कहाँ के लिए?
बालक-5 : कहा है…
कबिरा तहाँ न जाइये, जहाँ सिद्ध को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव। 
यानी दम्भी और घमण्डी… आसपास के लोगों से अपने-आप को ऊँचा मानने वाले अभिमानी लोगों के पास भी कभी मत जाओ क्योंकि वे ठीक से बैठने तक की बात आपसे नहीं कहेंगे, बार-बार आपका नाम, काम और ओहदा ही पूछते रहेंगे।
बालक-5 : बिल्कुल सही कहा तुमने। व्यक्ति को सबसे पहले अपने सम्मान का ध्यान रखना चाहिए।
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे,  मोती  मानुस  चून॥
बालक-4 : तुम पानी की बात रहे हो या सम्मान की?
बालक-5 : भाई, यह अब्दुर्रहीम खानखाना का दोहा है। इसमें पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है। पानी का पहला अर्थ है—चमक। जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। पानी का दूसरा अर्थ है—मनुष्य की इज्जत, उसका स्वाभिमान। पानी का तीसरा अर्थ पानी ही है जिसे आटे में मिलाए बिना उसकी रोटियाँ नहीं बनाई जा सकतीं। जिस तरह मोती का मूल्य उसकी चमक के बिना कुछ नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपना पानी यानी इज्जत… अपनी चमक बचाए रखनी चाहिए। इसीलिए उन्होंने कहा है—
रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँत विपरीत॥
यानी नीच प्रकृति के लोगों से न तो दोस्ती अच्छी होती है, और न ही दुश्मनी। जैसे कुत्ता चाहे काटे, चाहे चाटे दोनों ही तरह से कुत्ता ही रहता है।
बालक-6 : देखो भाई, नीच लोगों से दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही अच्छी नहीं, यह बात तो ठीक है, लेकिन इसमें कुत्ते का उदाहरण देना मुझे ठीक नहीं लग रहा है। सभी जानते हैं कि कुत्ता मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त होता है। हमें किसी को भी छोटा या बड़ा नहीं समझना चाहिए।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डार।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवार।।
समझ गये न। बड़ों के प्रभाव में आकर छोटों को अनदेखा कभी मत कीजिए क्योंकि जो काम छोटी सी सुई कर सकती है वह काम बड़ी तलवार नहीं कर सकती।
बालक-7 : भैया, ये छोटे-बड़े की, दुश्मनी की बातें छोड़ो। दोस्ती, मिलनसारिता और प्यार की बातें करो। ये ही मनुष्य के सबसे बड़े गुण हैं—
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय॥
रहीम जी तो यह भी कहते हैं कि—
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो कोइ कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
मतलब यह कि दूध और मन एक बार फट गए तो बस हमेशा के लिए फट गये।
बालक-8 : अरे रहीम जी ने ही यह भी कहा है कि…
मन, मोती और दूध, रस, इनकौ सहज सुभाय।
फट जाये तो न मिलें, कोटिन करौ उपाय॥
यानी इन्सान को सोच समझ कर अपना व्यवहार करना चाहिये क्योंकि किसी भी कारण से यदि बात बिगड़ जाये तो उसे सही करना बहुत मुश्किल होता है। जैसे एक बार दूध ख़राब हो गया तो कितनी भी कोशिश कर लो, उसे मथकर मक्खन नहीं निकाला जा सकता।
बालक-7 : लेकिन यह सब कहने के बावजूद वो यह भी तो कहते हैं कि…
रूठे सुजन मनाइए, जो रूठें सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार॥
यानी जैसे टूटी हुई माला के मोतियों को बार-बार पिरोकर माला बना ली जाती है वैसे ही रूठे हुए दोस्तों को सौ बार भी मनाना पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए।
बालक-9 : तुम्हारी बात बिल्कुल सही है। लेकिन बार-बार मनाने वाला फार्मूला केवल ‘सुजन’ यानी अच्छे लोगों पर ही लागू करना चाहिए, सब पर नहीं।
बालक-8 : सब पर नहीं से मतलब…?
बालक-9 : सब पर नहीं से मतलब है कि  
खीरा कौ सिर काटि के, मलियत लौन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहिये यही सजाय॥
क्या समझे ?
बालक-8 : यही कि जैसे खीरे के कड़वेपन को दूर करने के लिए उसके उपरी सिरे को काटकर उस पर नमक लगाकर रगड़ते हैं। वैसे ही कड़वे शब्द बोलने वालों को भी तुरन्त ही फटकार कर उनका इलाज कर देना चाहिए।
बालक-10 : नहीं भाई, जिसे भी समझाना हो, प्रेम से समझाना चाहिए।
बालक-8 : क्यों?
बालक-10 : इसलिए कि-------
काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौ, तुलसी एक समान।
बालक-8 : मतलब?
बालक-10 : मतलब यह कि जब तक व्यक्ति के मन में काम-वासना, गुस्सा, घमंड और लालच भरे हुए होते हैं तब तक एक ज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति में कोई भेद नहीं रहता, दोनों एक जैसे ही हो जाते हैं।
बालक-11 : कहने तो तो सब यही कहते हैं कि…
जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
यानी सज्जन और ज्ञानी की जाति पूछने से अच्छा है कि हम उसके ज्ञान को समझने की कोशिश करें। बुरे वक्त में तलवार काम आती है, म्यान नहीं।
बालक-8 : ठीक ही कहा गया है। लेकिन मेरा तो मानना है कि मनुष्य को अपना व्यवहार धरती-जैसा रखना चाहिए।
सभी : (एक साथ) धरती-जैसा मतलब?
बालक-8 : मतलब…       जैसी परै सो सहि रहै, कह रहीम यह देह।
 धरती पर ही परत हैं, सीत घाम औ मेह॥
यानी, जैसे धरती सर्दी, गर्मी और बारिश सबको सहती है और धीरज रखती है वैसे ही मनुष्य को भी धीरज के साथ सुख-दुख सहने चाहिएँ।
बालक-10 : यह तो तुमने एकदम सही कहा। भाई, विपदा सिर्फ धरती पर ही नहीं आती, किसी न किसी समय हर मनुष्य पर आती है। लेकिन उससे डरना नहीं चाहिए क्योंकि…
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय॥
संकट के दिन यदि थोड़े ही समय रहें तो अच्छा ही समझना चाहिए क्योंकि उन दिनों में मनुष्य को अपना साथ देने और न देने वालों की अच्छी पहचान हो जाती है। उन्हीं दिनों में पता चलता है कि दुनिया में कौन हमारा अपना है और कौन नहीं।
बालक-11 : हाँ, लेकिन यह जाँचने के लिए हर व्यक्ति के आगे अपना दुखड़ा रोने की आदत से मनुष्य को बचना चाहिए।
बालक-8 : क्यों?
बालक-11 : क्योंकि…
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटि न लैहैं कोय॥ 
यानी अपने मन के दुःख को मन के अंदर ही छिपाकर रखना चाहिए। क्योंकि दूसरों का दुःख सुनकर लोग इठला-इठलाकर मजा ही लेते हैं। उसे बाँटकर कम करने वाले बहुत कम लोग होते हैं।
बालक-5 : ठीक कहते हो यार। सौ बातों की एक बात यह है कि…
ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।
बालक-12 : (यह एक बालिका है जो आंटी का अभिनय कर रही है) अरे, इन छोटे-छोटे बच्चों ने आज एक से एक बहुमूल्य हीरे जैसे दोहे सुनाकर मन खुश कर दिया। एक मेरा बेटा है… दिन-रात रटाती हूँ, लेकिन बुद्धू का बुद्धू। कहाँ-कहाँ से लाए और कैसे-कैसे सीखकर आए आप ये सब?
सभी : (एक साथ) आंटी जी… जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।…
बालक-12 : मतलब?
बालक-10 : मतलब—… जीवन में जो लोग हमेशा कोशिश करते रहते हैं वो जो चाहें वो पा ही लेते हैं। जो गोताखोर गहरे पानी में जाता है, मोती उसी के हाथ लगता है।
बालक-13 : सही कहते हो…  जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
      मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ। …
मैं डूबने से डरकर कभी पानी में नहीं उतरा। हमेशा किनारे पर ही बैठा रहा इसलिए मोती तो क्या, एक सीप भी कभी मेरे हाथ नहीं लगा।
सभी : (बालक 12 को इंगित करते हुए एक साथ) आंटी जी !
धीरे–धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।
बालक-12 : मतलब?
बालक 10 : (बालक 12 को समझाते हुए) आंटी जी, ज्ञान भी धीरे-धीरे ही देना होता है… सीढ़ी दर सीढ़ी… स्टेप बाय स्टेप। कोई माली अपने पेड़ को एक साथ सौ घड़ा पानी से सींचकर अगर यह चाहे कि वह शाम को ही फल दे दे, तो मिल जाएगा क्या?
बालक-12 : नहीं।
बालक-10 : बिल्कुल सही। फूल और फल तो पेड़ पर मौसम आने पर ही आएँगे। वैसे ही धीरज रखने से सब काम हो जाते हैं। अपने बेटे को धीरज से एक-एक बात सिखाइए। यकीन मानिए, वह बुद्धू नहीं है।
बालक-12 : (एक साथ) सही कहते हो…
बालक-13 : (बालक-12 से) आयी बात समझ में?

                   सभी ठहाका लगाकर हँसते हैं।
                      -----नाटक समाप्त-----
 (नोट : इसका मंचन जनकपुरी, नई दिल्ली के एक विद्यालय के छात्र-छात्राओं द्वारा किया जा चुका है।)

अनुमति के लिए सम्पर्कएम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 / मोबाइल 8826499115