रविवार, जनवरी 26, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की सोलहवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                          (सोलहवीं कड़ी)
                                                                           चित्र:आदित्य अग्रवाल
खाना खा चुकने के बाद वे सब बाहर निकले। दादाजी ने उन्हें श्रीनगर के आसपास की अनेक जगहों पर घुमाया। देवलगढ़ और सुमाड़ी के मंदिर दिखाए और जब तक वे वापस यात्रीनिवास के निकट पहुँचे, आसमान पर तारे चमकने लगे थे।
‘‘कितना मनोरम दृश्य है!’’ आसमान की ओर देखते हुए सुधाकर के मुख से निकला,‘‘ऐसा लग रहा है कि तारों की चादर एकदम हमारे सिर पर तनी हुई है।’’
‘‘विधि का यही तो विपरीत विधान है बेटे।’’ उनकी बात सुनकर दादाजी ने कहा,‘‘पहाड़ के दृश्य मनोरम होते हैं और जीवन कठिन। जीवनयापन की कठोरता यहाँ के वासी के शरीर को पत्थर बना देती है लेकिन नैसर्गिक सुषमा उसके मन को कोमल बनाए रखती है।…’’ फिर अपनी भावुकता पर काबू पाकर बोले,‘‘यह बाईं ओर वाला रास्ता देख रहे हो?’’
उस समय वे गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर की ओर मुँह करके खड़े थे। सभी उनके द्वारा इंगित दिशा में देखने लगे। दादाजी बताने लगे,‘‘हरिद्वार और ऋषिकेश के रास्ते से इधर आने वाले यात्री इस, सामने वाली सड़क से यहाँ पहुँचते हैं। उत्तर प्रदेश से गढ़वाल में प्रवेश के ये ही प्रमुख द्वार हैंऋषिकेश और कोटद्वार।’’
‘‘इस रास्ते से आने पर भी पौड़ी बीच में पड़ता है क्या?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘नहीं बेटे, ये दोनों रास्ते यहाँ श्रीनगर में आकर एक होते हैं।’’
‘‘इधर से आने पर कौनकौन सी जगहें बीच में पड़ती हैं दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘इधर से ?…हरिद्वार और ऋषिकेश तो तुमने देख ही रखे हैं। मैं उनके बाद के स्थान तुमको बताऊँगा।’’ दादाजी बोले,‘‘ऋषिकेश के बाद बस ब्यासी नाम की जगह पर रुकती है। प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से यह बड़ा रमणीक स्थान है। उसके बाद देवप्रयाग आता है। देवप्रयाग में बदरीनाथ की ओर से आनेवाली अलकनन्दा धारा का और गंगोत्री से आनेवाली भागीरथी धारा का संगम होता है और वहीं से उस संयुक्त धारा का नाम गंगापड़ता है।’’ यह बताते हुए दादाजी यात्रीनिवास के अपने कमरे तक आ पहुँचे। उनके पीछेपीछे बच्चे और उनके मम्मीडैडी यानी ममता और सुधाकर भी चले आए। दादाजी ने कमरे का ताला खोला और अन्दर प्रवेश करते हुए बोले,‘‘देवप्रयाग तीन पहाड़ों के ढलान पर बसा हुआ नगर है। पहला नरसिंहजो पौड़ी की सीमा में आता है तथा दूसरे और तीसरे दशरथाचलगृधपर्वत जो टिहरी की सीमा में आते हैंय ये तीनों ही पर्वतीय भाग झूलापुलों से आपस में जुड़े हुए हैं।’’
‘‘तब तो यह बड़ा खूबसूरत नज़ारा बनता होगा दादाजी?’’ निक्की बोला।
‘‘बेहद खूबसूरत। कहतें हैं कि देवशर्मा नाम के एक ब्राह्मण को भगवान विष्णु ने वर दिया था कि त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लेने पर मैं तुम्हारे क्षेत्र में आकर तप करूँगा। रावणकुम्भकरण आदि राक्षसों को मारने के बाद भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने वहाँ यानी देवप्रयाग क्षे़त्र आकर तप किया था, तब देवशर्मा ने उन्हें पहचान लिया। तभी से उस नगर का नाम देवप्रयाग हो गया।’’
‘‘उससे पहले उस जगह का क्या नाम था बाबूजी?’’ ममता ने पूछा।
‘‘हाँ, तू किसी बच्चे से कम थोड़े ही है।’’ दादाजी मुस्कराकर बोले,‘‘तू भी पूछ जो मन में आए।’’
‘‘बताइए न दादाजी।’’ निक्की बोला,‘‘ठीक ही तो पूछा है मम्मी ने।’’
‘‘भई, पूछा तो ठीक है,’’ दादाजी हकलाकर बोले,‘‘लेकिन यह रामायणकाल की घटना है और किसी ने भी इस सवाल का जवाब कहीं लिखा नहीं है। कुछ नाम, कुछ घटनाएँ बीतते समय के साथसाथ इतनी अधिक  अप्रासंगिक हो जाती हैं कि याद रखने लायक भी नहीं रह पातीं; यानी बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। पहले क्या नाम रहा होगा, कोई नाम रहा भी होगा या नहीं कौन जाने। अब तो इसका नाम देवप्रयाग है, बस। घूमने और देखने लायक यों तो औरभी बहुतसे स्थान देवप्रयाग में हैं; लेकिन मुख्य स्थान है देवप्रयाग के पास सीतावनस्यूनाम का वन। कहते हैं कि राम के द्वारा त्याग दिए जाने पर सीताजी इसी वन में रही थी और इसी के पास फलस्वाड़ीगाँव के बाहर वह धरती माता की गोद में समायी थीं।’’
‘‘तब तो लव और कुश का जन्म भी इसी वन में हुआ होगा दादाजी?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यानी कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम देवप्रयाग तक फैला था!’’
‘‘हो सकता है।’’ दादाजी ने कहा,‘‘उसके बाद कीर्तिनगर आता है और उसके बाद यह श्रीनगर।’’
‘‘आपने देवप्रयाग को देखने के बारे में हमारी जिज्ञासा जगा दी बाबूजी।’’ सुधाकर ने कहा।
दादाजी बोले,‘‘चिंता न करो। बदरीनाथ धाम से वापस घर लौटते वक्त हम देवप्रयाग वाले रास्ते से ही जाएँगे।…सुनो, आज का दिन तो ढल ही गया।’’ उन्होंने सुधाकर से कहा,‘‘ऐसा करो, यात्रीनिवास के मैनेजर से कहो कि हम लोग सवेरे जल्दी यहाँ से निकलेंगे इसलिए सुबह तक के लेनदेन का अपना हिसाब वह आज ही हमसे कर ले। अल्ताफ को भी बोल दो कि सुबह चार बजे वह टैक्सी में तैनात मिले। हम लोग रुद्रप्रयाग की ओर जाने वाली सड़क पर टैक्सी को आगे बढ़ाएँगे। ठीक है?’’
‘‘जी बाबूजी, ठीक है।’’ सुधाकर ने कहा,‘‘आप लेनदेन की चिन्ता न करो। वह सब मैं निपटा लूँगा। लेकिन आज्ञा हो तो एक बात कहूँ?’’
‘‘हाँहाँ, क्यों नहीं?’’
‘‘सवेरे आराम से न निकलें; जल्दी किस बात की है?’’
‘‘तू वास्तव में ही बुधप्रकाश है।’’ यह सुनकर दादाजी प्रसन्नतापूर्वक बोले,‘‘बुद्धि खराब है जो तुझे मैं बुद्धू कहता हूँ। बच्चों को तो समझाता आ रहा हूँ कि यात्रा का आनन्द लेते हुए, हर जगह को जानतेसमझते हुए यात्रा करनी चाहिए और खुद भागमभाग में लगा हूँ। ठीक है, हम कल यहाँ से निकलेंगे, वह भी आराम के साथ।’’
आने वाले कल का कार्यक्रम अलसुबह से आगे खिसकवाकर सुधाकर ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और अल्ताफ का नम्बर तलाश करते हुए कमरे से बाहर निकलने लगे। बाबूजी के चरण स्पर्श कर ममता भी उनके पीछे ही निकलकर अपने कमरे की ओर बढ़ चली। उसको जाता देख बच्चे बोले,‘‘गुड नाइट मम्मीजी।’’
‘‘वेरी वेरी गुड नाइट मेरे बच्चो!’’ मम्मी ने मुस्कराकर कहा और बाहर निकल गई।
                                                              आगामी अंक में जारी

सोमवार, जनवरी 13, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की पन्द्रहवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                         (पन्द्रहवीं कड़ी)
                                                                           चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘यानी कि सुलह हो गई।’’ मुस्कराकर दादाजी ने कहा और आगे की कथा का तारतम्य जोड़ने से पहले बोले,‘‘वैसे…थोड़ाबहुत झगड़ा कर भी सकते हो, मेरी ओर से इजाज़त है। भई, वह बचपन ही क्या जिसमें शरारतें और उछलकूद न हों।’’ फिर, कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले,‘‘पहले घूमघाम या कहानी?’’
दोनों बच्चे एकसाथ चीखे,‘‘पहले कहानी…।’’
‘‘श्श्श्श्–––’’अपने होठों पर उँगली रखकर दादाजी फुसफुसाए,‘‘धीरे…बहुत धीरे।’’
‘‘पहले कहानी…।’’ उनकी नकल करते हुए बच्चे भी फुसफुसाए और जोरों से हँस दिए ।
दादाजी ने पुन: अपने होठों पर उँगली रखी और आवाज निकाली,‘‘श्श्श्श्…!’’ फिर पूछा,‘‘कहाँ थे हम?’’
‘‘विष्णुजी का कहना मानकर नारदजी ने अपनी मनपसन्द कन्या का ध्यान मन में किया और नदी के जल में तीन डुबकियाँ लगाकर जो बाहर निकले तो बन्दरजैसा चेहरा लेकर।’’ मणिका ने बताया।
‘‘हाँ।’’ दादाजी ने तुरन्त पूछा,‘‘जानते हो वह घटना कहाँ घटी थी?’’
‘‘कहाँ दादाजी?’’
‘‘कहा जाता है कि इस श्रीनगर में ही।’’ दादाजी बोले,‘‘यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव हैभक्तियाना। उस गाँव में जिस जगह पर इन दिनों लक्ष्मीनारायण मन्दिर है, लोग कहते हैं कि वहीं पर नारदजी के मन में ब्याह करने का लालच जागा था और उसी के आसपास अलकनन्दा के मोड़ पर नारदकुण्डहै जहाँ पर डुबकी लगाकर उन्होंने बन्दर की शक्ल पाई थी।’’
‘‘बाप रे! कितना पुराना है यह नगररामायणकाल से भी पहले का!’’ मणिका आश्चर्यपूर्वक बुदबुदाई।
‘‘अच्छा, एक काम करते हैं…’’ उसकी बात पर /यान दिए बिना दादाजी ने प्रस्ताव रखा,‘‘तुम्हारे मम्मीडैडी को आराम करने देते हैं और हम लोग थोड़ी देर बाहर घूम आते हैं।’’
‘‘और अगर इस बीच जागकर वे हमें ढूँढने लगे तो?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘तो क्या, हम गेस्टहाउस के मैनेजर को बताकर जाएँगे।’’ दादाजी ने कहा।
‘‘नहीं,’’ निक्की बोला,‘‘उन्हें सोया छोड़कर अकेले घूमने जाना अच्छा नहीं लगेगा दादाजी।’’
‘‘निक्की ठीक कह रहा है दादाजी,’’ इस बार मणिका धीमेसे बोली,‘‘इस तरह अकेलेअकेले घूमने में मज़ा नहीं आएगा। सभी साथ रहने चाहिए।’’
उन दोनों की बातें सुनकर दादाजी कुछ देर तक उनका चेहरा निहारते रहे; फिर बोले,‘‘शाब्बाश। मैं तो दरअसल तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। हमेशा याद रखोजब भी ग्रुप के साथ कहीं जाओ, अकेले घूमने मत निकलोय और किसी वजह से अगर निकलना पड़ भी जाए तो बाकी लोगों के लिए संदेश ज़रूर छोड़ जाओ कि किस कारण से, कहाँ जा रहे हो और कितनी देर में वापस लौट आओगे।’’
वे अभी ये बातें कर ही रहे थे कि किसी ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। उन तीनों की निगाहें एकसाथ दरवाज़े की ओर घूम गईं।
‘‘कौन?’’ दादाजी का इशारा पाकर मणिका ने पूछा।
‘‘दरवाज़ा खोलिए बाबूजी, हम हैं।’’ बाहर से सुधाकर की आवाज़ आई।
निक्की फुर्ती के साथ उठा और जाकर दरवाज़ा खोल दिया। ममता और दिवाकर अन्दर आ गए।
‘‘आप लोग सोये नहीं?’’ उन तीनों को जागते और तरोताज़ा बैठे देखकर सुधाकर ने आश्चर्यपूर्वक पूछा।
‘‘ये लोग लड़ भी लिए और सो भी लिए।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘और आप?’’
‘‘भई ये सो गए तो कुछ देर मैं भी सो लिया।’’ दादाजी ने कहा,‘‘अभी हम  लोग आप दोनों को ही याद कर रहे थे।’’
‘‘हम तो काफी देर से जागे पड़े थे बाबूजी, यही सोचकर नहीं आए कि आप लोग आराम कर रहे होंगे।’’ ममता ने कहा।
‘‘तो…चलें कुछ देर के लिए कहीं घूमने?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘अभी मैंने खाने का ऑर्डर दिया है।’’ सुधाकर ने बताया।
‘‘ठीक है।’’ दादाजी बोले,‘‘ऐसा करो, मोबाइल पर अल्ताफ को बता दो कि वह खाना खाकर तैयार रहे। हम लोग 40–45 मिनट बाद घूमने को निकलेंगे।’’
सुधाकर ने वैसा ही किया जैसा दादाजी ने बताया था।

आगामी अंक में जारी