शुक्रवार, फ़रवरी 27, 2009

यही होना है आखिरकार/बलराम अग्रवाल



हाप्रलय में लगातार ऊपर चढ़ रहे जल से अपने आप को बचाती दुनिया की आखिरी औरत एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ती चली गयी। कई दिनों बाद अन्धकार जब कुछ छँटता-सा लगा तो उसने एक नंग-धड़ंग और बदहाल पुरुष को अपनी ओर घिसटता आते पाया।
मेरी तलाश आखिर कामयाब साबित हुई। मुझे पूरा यकीन था कि महाप्रलय में सब-कुछ लील जाने के बावजूद ऊपरवाले ने मेरे लिए कम से कम एक औरत जरूर बचा रखी होगी। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि वह सब कुछ नष्ट कर सकता है, लेकिन आदम-जात को कभी भी पूरी तरह खत्म नहीं करता, क्योंकि यह उसकी सबसे बेहतरीन रचना है... औरत की आँखों में आँखें डालकर वह बोला।
नहीं, वह बात को बीच में ही काटकर बोली,दरअसल इंसान नहीं, उल्टे ऊपरवाला ही इंसान की सबसे ज्यादा स्वार्थ-भरी कल्पना है। और...।
और क्या...?
…और यह महाप्रलय इस कल्पना को विराम देने का सबसे अच्छा मौका है।
ईश्वर कल्पना नहीं यथार्थ है…।
यहाँ से लेकर दू्…ऽ…र उस छोर तक देख। एकाएक उसकी बायीं उँगलियों को अपने दायें पंजे में फँसाकर वह बोली,पर्वत की इस चोटी के अलावा हमारे टिकने के लिए धरती का कोई भी टुकड़ा कहीं नहीं बचा है!…आ, ठाठें मार रहे इस महासागर के जबड़ों में अपने आप को झोंक देते हैं।
लेकिन…! अपने हाथ को उसकी जकड़ से छुड़ाने की कोशिश करते पुरुष के कंठ से घिघियाई-सी आवाज निकली।
कोई लेकिन-वेकिन नहीं…वह कल्पना है या यथार्थ, अपने इस विश्वास को परखने का तेरे पास यह सबसे उपयुक्त और शायद आखिरी अवसर है… वह निर्णायक स्वर में बोली।
देखो, इस इकलौते ठिकाने से जानबूझकर मौत के मुँह में छलाँग लगाना किसी भी तरह बुद्धिमानीभरा कदम नहीं है। ऐसी बेवकूफियों का भगवान भी बुरा मानता है…। वह पुन: घिघियाया।
अगर बच गए तो यकीन मान, मैं बिना किसी उहापोह के अपना यह शरीर तुझे सौंप दूँगी… उसकी घिघियाहट पर ध्यान दिए बिना उसने बोलना जारी रखा,सिर्फ शरीर। लेकिन याद रखना कि बच जाने का इत्तफाक भी मेरी इस सोच को नहीं बदल पाएगा कि ईश्वर मनुष्य की सर्वाधिक स्वार्थभरी कल्पना है…इससे अधिक और कुछ नहीं।” 
इतना कहकर खुदा के उस खैरख्वाह का हाथ भरपूर मजबूती के साथ अपनी मुट्ठी में जकड़े खड़ी उस बहादुर औरत ने गहरी साँस ली। बेहद तीखी नजर उस परेशान-हैरान बन्दे के चेहरे पर डाली। फिर चीखी,आ…ऽ…! और एक झटके में उसे साथ लेकर उसने पर्वत के इकलौते शिखर से उबाल खा रही अथाह जलराशि में छलाँग लगा दी।
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रविवार, फ़रवरी 08, 2009

देश का सिपाही/बलराम अग्रवाल



मुजरिम को हवालात में करीबन दो हफ्ते बंद रखने के बाद मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जा सका। स्वाधीनता-समारोह के समापन में इतना समय लग जाना कोई बड़ी बात नहीं थी।
पुलिस ने कहाँ से गिरफ्तार किया तुम्हें? मजिस्ट्रेट ने पूछा।
जी, मानसरोवर पार्क से। वह बोला।
क्यों?
जी, मालूम नहीं।
इसमें लिखा है कि राष्ट्र-ध्वज का अपमान करते हुए तुम्हें रंगे हाथों पकड़ा गया।मजिस्ट्रेट ने आरोप-पत्र की ओर इशारा करके उसे बताया ।
पार्क में बैठकर योगासन करने से राष्ट्र-ध्वज का अपमान कैसे हो गया सर! वह चौंककर बोल उठा।
उसकी सफाई पर मजिस्ट्रेट का ध्यान जाए, उससे पहले ही उसके साथ आया कांस्टेबल हरकत में आ गया ।
एन स्वाधीनता-दिवस की सुबह यह आदमी राष्ट्र-ध्वज को लातें दिखा रहा था जनाब। वह मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित होकर बोला,ऐसा करते हुए खुद मैंने इसे देखा और गिरफ्तार किया, सरकार।
उसके इस बयान से मजिस्ट्रेट की त्यौरियाँ चढ़ गईं। जहर-बुझी नजरों से उसने मुजरिम की ओर देखा।
जिस समय पुलिस ने मुझे पकड़ा, मैं शीर्षासन की मुद्रा में था सर। मुजरिम ने घिघियाई आवाज में सफाई दी।
सुन लीजिए...सुन लीजिए जनाब। कांस्टेबल तपाक से बोला,यह खुद ही अपने जुर्म का इकबाल कर रहा है।
कांस्टेबल की इस मुस्तैदी पर मुजरिम की जुबान बंद हो गई। अपने बचाव में क्या दलील दे, वह समझ नहीं पा रहा था।
लेकिन...उस पार्क में तो कोई राष्ट्र-ध्वज उस समय था ही नहीं सर! ध्यान आने पर वह एकाएक बोला।
उसकी इस बात पर मजिस्ट्रेट ने कांस्टेबल की ओर सवालिया निगाह डाली। वह थोड़ा सकपकाया। वाकई, उस पार्क में उस समय क्या, इस समय तक भी कोई राष्ट्र-ध्वज नहीं होगा। लेकिन वह हताश नहीं हुआ। हिम्मत के साथ मजिस्ट्रेट की ओर दो कदम और बढ़ाकर उसने कहना शुरू किया,सवाल इस या उस पार्क का है ही नहीं जनाब। आजादी के दिन तो ज्यादातर जगहों पर राष्ट्र-ध्वज खुले आसमान में फहर रहा होता है।…और…और प्रधानमंत्री के छोड़े हुए गैस-वाले सैकड़ों तिरंगे गुब्बारे भी तो एन इसके ऊपर से ही गुजर रहे थे उस समय…। ऐसे में, इस आदमी का अपनी दोनों लातें आसमान की ओर उठाना...मुझसे...बर्दाश्त नहीं हुआ हुजूर...!
कांस्टेबल का बयान सुनकर मजिस्ट्रेट भरपूर गुस्से के बावजूद भी उस पर चीख या चिल्ला न सका। राजनीति-प्रधान वर्तमान परिस्थितियों में कौन किस राजनेता का कुत्ता निकल आएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
उसने कलम उठाया और फैसला लिखना शुरू कर दिया। इसके अलावा कुछ और वह शायद कर ही नहीं सकता था।
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कुंडली/बलराम अग्रवाल



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बिटिया का बायो-डाटा और फोटो उसके पिता ने लड़के की माँ के हाथ में थमा दिया। फोटो को अपने पास रोककर बायो-डाटा उसने पति की ओर बढ़ा दिया। पति ने सरसरी तौर पर उसको पढ़ा और कन्या के पिता से पूछा_
कुंडली लाए हैं?”
हाँ जी, वह तो मैं हर समय ही अपने साथ लिए घूमता हूँ।वह बोला।
वह भी दे जाइए।उसने कहा।
सॉरी भाईसाहब!” वह बोला,उसे मैं देकर नहीं जा सकता। जिन पंडिज्जी से उसका मिलान कराना हो, या तो उन्हें यहाँ बुला लीजिए या मुझे उनके पास ले चलिए।
लड़के के पिता और माता दोनों को उसकी यह बात एकदम अटपटी लगी। वे आश्चर्य से उसका मुँह देखने लगे।
वैसे, जब से बेटी के लिए वर की तलाश में निकलना शुरू किया है, मैं अपनी भी कुंडली साथ में रख लेता हूँ।उनकी मुख-मुद्रा को भाँपकर लड़की का पिता बोला,आप लोग अपनी कुंडली इस मेज पर फैला लीजिए, मैं भी अपनी को आपके सामने रख देता हूँ। अगर हम लोगों की कुंडलियाँ आपस में मेल खा गईं तो मुझे विश्वास है कि बच्चों की कुंडलियाँ भी मेल खा ही जाएँगी।
इतना कहकर उसने अपनी जेब में हाथ डाला और बिटिया के विवाह पर खर्च की जाने वाली रकम लिखा कागज का एक पुर्जा, सोफे पर कुंडली मारे बैठे उस दम्पति की ओर बढ़ा दिया।