[लघुकथा का यह ड्राफ्ट आज 09-02-25 को एक पुरानी डायरी में रखा मिला है। इस पर तारीख नहीं लिखी। कथ्य और ड्राफ्ट की प्रकृति को देखते हुए 1975 तक कभी लिखी गई हो सकती है। यह मेरे किसी संग्रह में भी नहीं है शायद। ड्राफ्ट के कुछेक शब्द दुरुस्त जरूर करने पड़े हैं।]
लगभग पन्द्रह दिन पहले, फटे हाल एक अधेड़ मेरे कमरे पर आया था, एक बच्ची और एक पत्र के साथ। पत्र अनुराधा का था। लिखा था–'तुम्हारे आदेशानुसार जिस पति को अपना जीवनाधार माना माना था, उसने दूरी अपना ली है। बच्ची को तुम्हारे जिम्मे छोड़कर धरती से दूर जा रही हूँ। इसको पिता के पाँवों को आधार मानकर जीना नहीं सिखाना, स्वाभिमान भर देना।
तुम्हारी अनु
□ अनु मेरी प्रेमिका थी।
□ आज, शाहदरा जाते हुए वह अचानक ही ट्रेन में मिल गया। दस साल के वैवाहिक जीवन के हर पहलू को पेश करते-करते उसने बताया–अनु को उसने तलाक दे दिया है। छः वर्षीया बच्ची अनु के पास ही रहेगी। बच्ची का पोषण-भार वह वह स्वयं ही वहन करेगा–साठ रुपये महीना देकर।
□ बातचीत के दौरान मेरी चुप्पी की चिन्ता उसने नहीं की। शाहदरा स्टेशन आया। मुझे उतरना था, लेकिन वह पूरी कहानी कह नहीं पाया था; इसलिए 'गुड-बाई' के बजाय 'सॉरी' कहकर उससे विदा होना पड़ा।
□ पीछे घूमकर उसकी ओर देखे बिना ही मैं चला। ट्रेन भी खिसक ली। अनु और उसके दस वर्षीय वैवाहिक जीवन के उतार-चढ़ाव को अपने आप में क्रमशः उलटने ही लगा था कि उसने पीछे से आकर मेरा हाथ दबाया–"यार, जैसे भी हो, अनु को मना लो। मैं तलाक वापस लेने को तैयार हूँ। दरअसल, उसके वगैर मैं जी नहीं सकता। ये पन्द्रह दिन कैसे कटे हैं, मैं ही जानता हूँ।"
□ निराश्रित बच्ची की तस्वीर मैं उसके चेहरे पर देखना चाहता था लेकिन अनु के पत्र ने उसको पूरा ढक दिया। मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वह चलती ट्रेन की ओर दौड़ा। मेरी करुणा भी उसको ट्रेन तक पहुँच जाने की दुआ दी; लेकिन भरपूर कोशिश के बावजूद अन्तिम डिब्बे तक भी उसका हाथ पहुँच नहीं पाया।