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“बाकी बची माँ—सो चार-चार महीना वह बारी-बारी से सबके साथ रह लेगी।” सम्पत्ति के मौखिक बँटवारे के बाद बड़े ने माँ के प्रति तीनों भाइयों की जिम्मेदारी तय करते हुए सुझाया।
“यह तो माँ को अलग-अलग खूँटों से बाँधनेवाली बात हुई!” मँझले ने टोका,“तर्क के तौर पर ठीक सही, शिष्टता के तौर पर कोई कभी भी इसे ठीक नहीं ठहरा सकता।”
“बँटवारे जैसे छोटे काम के लिए माँ की मौत का इंतजार करना भी तो शिष्टता की सीमा से बाहर की बात है।” छोटा तुनककर बोला।
“माँ के रहते ऐसा करने शायद बड़ा शिष्टाचार है!” मँझले ने व्यंग्य कसा।
छोटा तीखे स्वभाववाला व्यक्ति था। संयोगवश पत्नी भी वैसी ही मिल जाने के कारण माँ उसके पास एक-दो दिन से ज्यादा टिक नहीं पाती थी। इसलिए माँ के रख-रखाव का मुद्दा उसके लिए पूरी तरह निरर्थक था। सम्पत्ति के बँटवारे से अलग किसी-और समय यह विवाद उठा होता तो अब तक वह कभी का उठकर जा भी चुका होता।
“ठीक है। माँ के बारे में आप दोनों बड़े जो भी फैसला करेंगे, मुझे मंजूर है।” मँझले के व्यंग्य से आहत हो वह दो-टूक बोला।
सम्पत्ति के बँटवारे पर बहस के समय इससे पहले तो इसने एक बार भी ऐसा अधिकार हमें नहीं दिया था!—बड़े ने अपना माथा मला।
“नन्ने!” काफी देर सोचने के बाद वह मँझले से बोला।
“जी भैया!”
“तीन बेटे और थोड़ी-सी सम्पत्ति होने का दण्ड माँ को सुबह के दीये-जैसी उपेक्षित जिन्दगी तो नहीं मिलना चाहिए।”
“मैं तो शुरू से ही आपको यह समझा रहा हूँ भैया!” बड़े की बात पर भावावेशवश मँझले की आँखें और गला भर आए।
“सवाल यह है कि बँटवारे की यह नौबत हमारे बीच बार-बार आती ही क्यों है?” बड़े ने सवाल किया। फिर आगे बोला,“हम अगर किसी अच्छे काम के लिए एक जगह बैठें तो माँ बेहद खुश हो। वह भी हमार पास बैठे, हँसे-बोले।…लेकिन, हालत यह है कि हम एक जगह बैठे नहीं कि माँ डर ही जाती है।”
मँझला और छोटा सिर झुकाए बड़े की बातें सुनते रहे।
“तू वाकई मेरे फैसले को मानेगा न?” बोलते-बोलते बड़ा छोटे से मुखातिब हुआ।
“जी भैया।” छोटे ने धीमे-स्वर में हामी भरी।
“और तू भी?” बड़े ने मँझले से पूछा।
“हाँ भैया।” वह बोला।
“तब, सबसे पहली बात तो यह कि हमारे बीच जो कुछ भी अब से पहले हुआ, उसे भूल जाओ। माँ को जिससे दु:ख पहुँचता हो, वैसा कोई काम हमें नहीं करना है।”
“जी भैया!”
“आओ!” बड़े ने दोनों भाइयों को अपने पीछे आने का इशारा किया। तेजी-से चलते हुए तीनों भाई गाँव से बाहर, नहर के किनारे उदास बैठी माँ के पीछे जा खड़े हुए। बँटवारे के सवाल पर जब-भी वे एकजुट होते, वह यहाँ आ रोती थी।
“बहते पानी के आगे दु:खड़ा रोने के तेरे दिन खत्म हुए माँ!” उसके बूढ़े कंधों पर अपनी अधेड़ हथेलियाँ टिकाकर बड़ा रूँधे शब्दों को मुश्किल-से बाहर ठेल पाया,“घर चल!”
माँ ने गरदन घुमाई। तीनों बेटों को साथ खड़े देखा। नहर के पानी से उसने आँसू-भरी अपनी आँखें धोईं। धोती के पल्लू से उन्हें पोंछा और तीनों बेटों को अपने अंक में भर लिया, हर बार की तरह।
10 टिप्पणियां:
पहली बार कथा के अंत में माँ खुश होते दिखी...वरना आज के समय में ऐसा अंत!विश्वाश नहीं होता..!अच्छी रचना के लिए बधाई...
आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है
गार्गी
www.abhivyakti.tk
भाई रजनीश परिहारजी, गार्गी गुप्ताजी, उत्साहवर्द्धक टिप्पणियों के लिए धन्यवाद
आपकी कई लघु कथायें पढ़ीं.
अत्यंत रोचक और नये सन्देश देती रचनायें
bahut-bahut dhanyavad bhai Anupam
कथा के अंत में खुश होती माँ को देखना कितना सुखद है?
ANT BHALA TO SAB BHALA . KAHANI KE ANT ME MAA KI KHUSHI DEKHTE HI BANTI HEY . JIN 3 BETO KO MAA NE AKELE PALA THA AAJ USS MAA KO SATH ME RAKHNE KE LIYE SOCH ME DOOBEY HEY WAH REY MERE DOSTO AABHAAR ASHOK KHATRI BAYANA RAJASTHAN
ANT BHALA TO SAB BHALA . KAHANI KE ANT ME MAA KI KHUSHI DEKHTE HI BANTI HEY . JIN 3 BETO KO MAA NE AKELE PALA THA AAJ USS MAA KO SATH ME RAKHNE KE LIYE SOCH ME DOOBEY HEY WAH REY MERE DOSTO AABHAAR ASHOK KHATRI BAYANA RAJASTHAN
कथा की विषयवस्तु ऐसी है कि जिसमें सुखांत की गुंजाइश न के बराबर थी, पर यह रचनाकार का कमाल है कि उसने सकारात्मकता की सफलतापूर्वक प्रतिष्ठा की है. अब यह एक मानक लघुकथा बन गयी है. अग्रवाल जी को साधुवाद!
अच्छी निर्णय |
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