“माँ…ऽ…!” जैसे कुछ देखा ही न हो वैसे पुकारते हुए वह माँ के कमरे की ओर बढ़ा, ताकि उसके पहुँचने तक माँ सँभलकर बैठ जाए।
लेकिन माँ ज्यों की त्यों बैठी रही।
“श्श्श्श्श…!” अपने होठों पर तर्जनी को खड़ी करने के बाद उसने हथेली के इशारे से उसे आवाज को धीमी रखने का इशारा किया।
माँ का इशारा पाकर वह दोबारा नहीं चीखा।
“यह क्या कर रही हो माँ!” माँ के पास पहुँचते-पहुँचते उसने लगभग उग्र स्वर में सवाल किया।
“धीमे बोल…बड़ी मुश्किल-से आँखें लगी हैं बच्ची की, जाग जाएगी।” उसके सवाल का जवाब दिए वगैर माँ ने फुसफुसाकर उसे डाँटा।
“मैं पूछ रहा हूँ…ऽ…ये कर क्या रही हो?” भले ही फुसफुसाकर, लेकिन उग्र स्वर में ही उसने अपने सवाल को दोहराया।
“देख नहीं रहा है?” माँ ने मुस्कराकर कहा।
“देख रहा हूँ इसीलिए तो पूछ रहा हूँ।”
“सीमा से जो काम नहीं हो पा रहा है, वह कर रही हूँ।”
“कैसी तोहमत लगा रही हो माँ!” वह पत्नी का पक्ष लेते हुए बोला,“एक घण्टा पहले खुद मेरी आँखों के सामने पिंकी को दूध पिलाया है उसने।”
“दूध पिलाया है…छाती से नहीं लगाया।” माँ मुस्कराते हुए भी गंभीर स्वर में बोली,“बोतल मुँह में लगाने से बच्चे का सिर्फ पेट भरता है, नेह नहीं मिलता।”
माँ की इस बात का वह तुरन्त कोई जवाब नहीं दे पाया।
“बुढ़ापे की छातियाँ हैं बेटे।” सो चुकी पिंकी को आँचल के नीचे से निकालकर बिस्तर पर लिटाते हुए माँ ने अपने बयान को जारी रखा,“दूध एक बूँद भी नहीं है इनमें; लेकिन नेह भरपूर है।”
माँ की सहजता को देख-सुनकर उसमें उसे थोड़ी देर पहले के अपने संकोच के विपरीत ममताभरी युवा-माँ दिखाई देने लगी।
“तू जो इतना बड़ा होकर भी माँ-माँ करता चकफेरियाँ लगाता फिरता है मेरे आसपास, वो इन छातियों से लगाकर पालने का ही कमाल है मेरे बच्चे।” उसके सिर पर हाथ फिराकर माँ बोली,“छाती से लगकर बच्चा हवा से नहीं, माँ के बदन से साँस खींचता है…तू पिंकी की फिकर मत कर, इसे मैं अपने पास ही सुलाए रखूँगी…जा।”
माँ की इस बात को सुनकर उसने अगल-बगल झाँका। वहाँ सिर्फ वह था और माँ थी। “माँ!” वह सिर्फ इतना ही बोल पाया। सदा-सदा से पूजनीया माँ की इस मुद्रा को देखकर उसके गले में तरलता आ गई। इस युवावस्था में भी माँ के आगे वह बच्चा ही है—उसे लगा; और यह भी कि वृद्धा-माँ में युवा-माँ हमेशा जीवित रहती है।
12 टिप्पणियां:
सच कहा .. वृद्धा-माँ में युवा-माँ हमेशा जीवित रहती है।
यार, इसे पहले भी कहीं पढ़ा था . मां के निर्छद्म स्वरूप का इससे अच्छा चित्रण और क्या हो सकता है. बहुत ही सुन्दर---
चन्देल
धन्य हो मां...
Simple yet so powerful that I started missing "meri maa".
सचमुच, माँ फ्रायड को नहीं जानती पर बच्चे के मनोविज्ञान को बहुत खूब जानती है। तुम्हारी यह लघुकथा पहले भी पढ़ी है, सुनी भी है और इस पर चर्चा भी की है। कुछ लोग इस पर नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं पर सच्चाई यही है। हाँ, अन्त की ये पंक्तिया -सदा-सदा से पूजनीया माँ की इस मुद्रा को देखकर उसके गले में तरलता आ गई। इस युवावस्था में भी माँ के आगे वह बच्चा ही है—उसे लगा; और यह भी कि वृद्धा-माँ में युवा-माँ हमेशा जीवित रहती है।…- अगर ना हो तो क्या लघुकथा का प्रभाव कम हो जाएगा, इस तरफ भी सोचो।
ये बात वैज्ञानिक रूप से भी साबित की जा चुकी है कि छाती से लगा के रखो तो बच्चे जल्दी बड़े होते हैं और स्वस्थ रहते हैं, शारिरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी, फ़्रायड बिचारा क्या जाने ममता और स्नेह क्या रंग लाते हैं
माँ और फिर तजुर्बेकार माँ, उससे बढ़कर क्या हो सकता है! लघुकथा बहुत अच्छी लगी, लेकिन ‘सदा-सदा से पूजनीय माँ…’ से लेकर ‘…हमेशा जीवित रहती है।’ तक का भाग कुछ असहज लगा।
इस युवावस्था में भी माँ के आगे वह बच्चा ही है—उसे लगा; और यह भी कि वृद्धा-माँ में युवा-माँ हमेशा जीवित रहती है।
___________________________________
न युवा न वृद्धा - माँ हमेशा जीवित रहती है।
गहन संवेदना समेटे एक कहानी....
阿彌陀佛 無相佈施
不要吃五辛(葷菜,在古代宗教指的是一些食用後會影響性情、慾望的植
物,主要有五種葷菜,合稱五葷,佛家與道家所指有異。
近代則訛稱含有動物性成分的餐飲食物為「葷菜」,事實上這在古代是稱
之為腥。所謂「葷腥」即這兩類的合稱。 葷菜
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(重定向自五辛) 佛家五葷
在佛家另稱為五辛,五種辛味之菜。根據《楞嚴經》記載,佛家五葷為大
蒜、小蒜、興渠、慈蔥、茖蔥;五葷生啖增恚,使人易怒;熟食發淫,令
人多慾。[1]
《本草備要》註解云:「慈蔥,冬蔥也;茖蔥,山蔥也;興渠,西域菜,云
即中國之荽。」
興渠另說為洋蔥。) 肉 蛋 奶?!
念楞嚴經 *∞窮盡相關 消去無關 證據 時效 念阿彌陀佛往生西方極樂世界
我想製造自己的行為反作用力
不婚 不生子女 生生世世不當老師
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बलासम जी आप जिस तरह से लघु कथा विधा की नेट पर सेवा कर रहे है आपकी यह भावना सराहनीय है आशा है आप आग भी इससे अच्छी रचनाएं देते रहे्ंगे
एम मुबीन
मो' 9322338918
बलराम अग्रवाल जी की लघु कथा 'मां फ्रायड को नहीं जानती' पढ़कर यही कहूंगा कि जैसे गोताखोर समुद्र में गोता लगाता है और कभी कभी मोती निकाल कर लाता है.कल्पना करिए ऐसा कोई गोताखोर हो जो हर गोते में मोती लाता हो --बलराम अग्रवाल ऐसे ही गोता खोर हैं.संवेदना के सागर से साबुत 'लघुकथा' का मोती लेकर आते हैं.यह लघुकथा पढ़ी हुई है लेकिन याद नहीं आता है कहाँ.एक सुन्दर सुगठित और लघुकथा के मापदंडों पर खरी उतरती लघुकथा के लिए बधाई.बात जहाँ तक 'फ्रायड' की है उसकी 'सेक्स' की व्याप्ति जहाँ तक है आप ने उसे वहां तक पकड़ने में सफलता हासिल की है और जहाँ पहुँच कर फ्रायड को भारतीय संस्कृति का दवाजा बंद मिलाता है आप ने उसे वापस कर अपने हाथों से इस दरवाजे को थप की देकर रचनात्मक कौशल का परिचय दिया है .अगर मैं कहूँ कि 'फ्रायड मां को नहीं पहचानता है तो कैसा लगेगा आप को हार्दिक बधाई.
माँ के रिश्ते की स्वाभाविकता , आपके रचना-कौशल की स्वाभाविकता और सबसे बड़ी वो सीख स्वाभाविक है जिसे आपने नई पीड़ी की माँओं को देने का प्रयास किया है । हो सकता है कि नई पीड़ी की माँओं में अपने बच्चों के प्रति समझ में जो खामी आई है उसमें समय और परिश्थितियों की भूमिका हो ,पर माँ की ममता की असलियत का अहसास उन्हें करवाने का सृजनात्मक दायित्व आपने निभाया है । यह नई पीड़ी को उसकी धरोहर से जोड़ना भी है । आपका रचना-कर्म समाज को रौशनी दे रहा है , एक पाठक और समाज का एक छोटा-सा हिस्सा होने के नाते नतमस्तक हूँ ।
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