“रखा है।” अम्मा भीतर से ही बोली,“निकालकर दूँ क्या?”
“उसमें से एक बड़े रुमाल जितना कपड़ा फाड़ लो।”
“क्यों?”
“कल से रोटियाँ उसी में लपेटकर देना अम्मा।” उसने कहा,“अखबार में मत लपेटना।”
“हाँ, उसकी सियाही रोटियों पर छूट जाती होगी।” अम्मा ने ऐसे कहा जैसे उसे इस बात का मलाल हो कि यह बात खुद-ब-खुद उसके दिमाग में क्यों नहीं आई।
फोटो:आदित्य अग्रवाल |
“सियाही की बात नहीं है अम्मा।” नल के निकट ही एक अलग कील पर लटका रखे काले पड़ गए तौलिए से मुँह और हाथ-पैरों को पोंछता वह बोला,“वह तो हर साँस के साथ जिन्दगी-भर जाती रहेगी पेट में…काम ही ऐसा है।”
“फिर?”
“खाने बैठते ही निगाह रोटियों पर बाद में जाती है अम्मा,” वह दु:खी स्वर में बोला,“खबरों पर पहले जाती है। लूट-खसोट, हत्या-बलात्कार, उल्टी-सीधी बयानबाजियाँ, घोटाले…इतनी गंदी-गंदी खबरें सामने आ जाती हैं कि खाने से मन ही उचट जाता है…।”
अम्मा ने कुछ नहीं कहा। भीतर से लाए अँगोछे के फटे हिस्से को अलग करके उसमें से उसने बड़े रुमाल-जितना कपड़ा निकाल लिया। फिर, साबुन से धोकर अगली सुबह के लिए अलगनी पर लटका दिया।
20 टिप्पणियां:
कितना कुछ स्याह और सुर्ख रोज खा रहा है आदमी. फिर भी भूख मरती नहीं न.
अच्छी लघुकथा है।
यह आज का सच है अग्रवाल जी॥
बिलकुल। यह कई लोगों के हिस्से का सच है। दूसरी स्थिति यह होती है कि ऐसी ख़बरें देखते-देखते आपको आदत हो जाती है और आप उसी अखबार पर जलेबी रखकर मज़े से खाते हैं। अच्छी लघुकथा के लिए बधाई।
जय हो....
NAYE ANDAAZ MEIN KAHEE ACHCHHEE
LAGHU KATHAA HAI . AAJ KAA SATYA
HAI .
Bahut Achchhi laghu katha. Apne chhote kalevar mein bade marm ko pakad liya hai.
कथा की सचाई से इंकार कैसे किया जा सकता है | लेकिन बात संवेदन की है | सरकारी नलके पर नहाते नहाते भी मंगल का जाग गया | दूसरी तरफ , तमाम ऐश-ओ-आराम से लदी फदी इमारतों के बाशिंदे किन किन गुनाहों से वा-बस्ता हैं ,कौन सवाल उठाए -- और संवेदन ?
यह सवाल तो और भी बड़ा है |
लघुकथा अच्छी लगी ।
बहुत सुन्दर लघुकथा. कटु सचाई.
रूप चन्देल
BAHUT SUNDER KAHANI HAI .MAN KO CHHU GAI
BADHAI
SAADER
RACHANA
अच्छी लघुकथा के लिए बार-बार बधाई. यह ठीक है कि एक-सी सूचनाओं की बारंबार आवृत्ति मनुष्य को संवेदनशून्य बनाती है. लेकिन साहित्य का यह कर्तव्य है कि वह मानवीय संवेदनाओं को जो मनुष्य होने की अनिवार्य शर्त भी हैं, बचाए रखे. इस तरह की लघुकथाएं अक्सर ‘नकारात्मक’ प्रभाव छोड़तीं हैं. ‘सियाही’ की विशेषता है कि यह संवेदना को उठान देती है और विपरीत दिखते माहौल में भी उसे बचाए रखती है. यह उम्मीद जगाती है कि संवेदनाएं बचेंगी, तो समाज में हिंसा, लूट-खसोट जैसी विकृतियां भी कम होंगी. वह प्रवृत्ति भी कम होगी जिसके कारण इंसान इतना संवेदनशून्य हो जाता है कि बड़ी से बड़ी खबर भी उसको विचलित नहीं कर पाती और उसके लिए ऐसी खबरों से भरे अखबार का उपयोग, उसपर मजे से जलेबी रखकर खाने और फिर हाथ पोंछकर फेंक देने तक सीमित हो जाता है. ओमप्रकाश कश्यप
ek achchaa aur anchua vishay uthaya, achchhi laghukatha hai
प्रणाम सम्मानीय बलराम जी ! आपकी लघुकथाएँ जीवन में आस-पास बिखरी छोटी-छोटी अनुभूतियों में गुंथी आम इंसान से जुडी होती है. बहरहाल बहुत अच्छी लगी ये कथा. बहुत कुछ कह रही है. नमन !
samachar patra dil dahala dene walli soochnaon ke dastavej hee ban kar rah gaye hein. prastuti A-one hai
Dr madhu sandhu
प्रतिष्ठित व्यंग्यकार व विचारक भाई हरीश नवल ने ई-मेल द्वारा यह टिप्पणी प्रेषित की है:
harish naval to me
show details 11:14 AM (1 hour ago)
BALRAM JEE DHANYAVAD AAPNE EK ACHCHI OR INGIT KIYA.........HARISH NAVAL
उनका आभर।
बस इतना कहकर इतिश्री कर लूँ कि यह एक अच्छी लघुकथा है, तो बात नहीं बनेगी। इस लघुकथा की विशेषता है कि इसमें जिस रहस्य को अंत में खोला गया है, वह लघुकथा का सशक्त केन्द्र बिन्दु है। जिन साधारण से दीखने वाले लोगों के माध्यम से आज के सच को उद्घाटित किया गया है, वह भी गौरतलब है। एक सफल और मारक लघुकथा अपनी साधारणता में भी असाधारण बन जाया करती है, यह इसका नमूना है। बधाई !
bahut hi achhi laghukatha..
समाज की विद्रूपता ,विसंगतियां संवेदन शील ह्रदय को झकझोर देती हैं। काजल की कोठरी भी इसका अपवाद नहीं । मगर गलत रास्ते पर चलकर दूसरों की जिंदगियों से खिलवाड़ करने वाले न जाने किस मिट्टी के बने हैं ।कलम की शक्ति के धनी बलराम जी की लघुकथाएँ शायद ऐसे लोगों को शीशा दिखा सकें ।
सुधा भार्गव
एक रोजमर्रा जैसे बन चुके विषय को भी कितने अच्छे सलीके से रचनात्मक बनाया जा सकता है, यह इस लघुकथा से समझा जा सकता है।
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