भालुका तीर्थ मन्दिर, सोमनाथ(गुजरात) चित्र:बलराम अग्रवाल |
आलीशान बंगला। गाड़ी। नौकर-चाकर। ऐशो-आराम। एअरकंडीशंड कमरा। ऊँची, अलमारीनुमा तिजौरी। करीने से सजा रखी करेंसी नोटों की गड्डियाँ। माँ लक्ष्मी की हीरे-जटित स्वर्ण-प्रतिमा।
दायें हाथ में सुगन्धित धूप। बायें में घंटिका। चेहरे पर अभिमान। नेत्रों में कुटिलता। होंठ शान्त लेकिन मन में भयमिश्रित बुदबुदाहट।
“नौकरों-चाकरों के आगे महनत को ही सब-कुछ कह-बताकर अपनी शेखी आप बघारने की मेरी बदतमीजी का बुरा न मानना माँ, जुबान पर मत जाना। दिल से तो मैं आपकी कृपा को ही आदमी की उन्नति का आधार मानता हूँ, महनत को नहीं। आपकी कृपा न होती तो मुझ-जैसे कंगले और कामचोर आदमी को ये ऐशो-आराम कहाँ नसीब था माँ। आपकी जय हो…आपकी जय हो।”
2 टिप्पणियां:
भीतर-बाहर का यह भेद वाकई वहाँ सबसे अधिक पाया जाता है जहाँ उपलब्धि का आधार श्रम से इतर घटक होते हैं. श्रम है तो द्वैध की गुंजाइश कहाँ.
मां का आर्शीवाद भी तो इन पर ही होता है।
एक टिप्पणी भेजें