मित्रो,
'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की सातवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…(सातवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
‘‘हाँ–हाँ,
ज़रूर।’’ सुधाकर ने कहा,‘‘…और, वो अगर यहाँ देने आ सके तो दो चाय हमारे
लिए भी भेजवा देना।’’
‘‘जी।’’ कहकर
वह चला गया।
उसके जाते ही सुधाकर ने धीमे–से आवाज़ देकर ममता को जगा दिया। जागते
ही उसने अचरज से चारों ओर देखा, फिर
पूछा,‘‘कौन–सी जगह है?’’
‘‘नजीबाबाद का आउटर है।’’ सुधाकर ने बताया।
‘‘गाड़ी यहाँ क्यों रोक दी?’’ ममता ने दूसरा सवाल किया।
‘‘अल्ताफ को फ्रेश होने जाना था इसलिए।’’
‘‘बाबूजी किधर हैं?’’
‘‘अल्ताफ के बाद वो फ्रेश होने गए हैं।’’
‘‘मुझे क्यों जगाया?’’
‘‘अल्ताफ ने बाबूजी को घुट्टी पिला दी है कि यहीं फ्रेश हो लो।
यहाँ फ्री है, आगे
पैसे खर्च करने पड़ेंगे।’’
‘‘हे भगवान! आपको तो पता है कि मुझे चाय पिये बिना प्रेशर बनता
नहीं है।’’
‘‘मँगा ली है, लाता
ही होगा।’’ शरारती मुस्कान के
साथ सुधाकर बोले।
‘‘आप भी बस…’’ ममता
नाराजगी भरे स्वर में बोली।
‘‘मैं भी बस नहीं, बाबूजी भी बस…’’ सुधाकर अपना बचाव करते हुए बोले, ‘‘मेमसाब, इस समय हम सफर में हैं वो भी बाबूजी के
साथ। एक कहानी सुनाकर सुबह–सुबह
मुझे ‘बेवकूफ’ कहने का अपना पैतृक–अधिकार तो वे जता ही चुके हैं। इसलिए घर
की बातें घर पर। यहाँ वो…जो बाबूजी हुक्म करें। चायवाला चाय लेकर आने वाला है।
सुस्ती छोड़ो और तनकर बैठ जाओ। थोड़ी ही देर में बाबूजी भी आते ही होंगे।’’
ममता ने गहरी अँगड़ाई लेकर सुस्ती को जैसे दूर फेंक दिया और सीट
पर सीधी बैठ गई।
चायवाला जल्दी ही दो गिलासों में चाय लेकर दौड़ता चला आया। सुधाकर
के हाथों में गिलास पकड़ाते हुए उसने पूछा,‘‘बिस्कुट वगैरा कुछ–और लेंगे साब?’’
‘‘नहीं।’’ सुधाकरजी
ने कहा।
‘‘कोई बात नहीं…’’ गाड़ी में सोते बच्चों की ओर देखकर उसने पूछा,‘‘बच्चा–लोगों के लिए भी बनाऊँ?’’
‘‘वो अभी सो रहे हैं।’’ सुधाकर ने टाला।
‘‘कोई बात नहीं…’’ वह दाँत निपोरता–सा बोला,‘‘जाग
जाएँ तो आवाज़ लगा देना। दो मिनट में बना लाऊँगा।’’
यों कहकर वह चला गया।
वे दोनों चाय पीने लगे। अल्ताफ चायवाले के खोखे के पास पड़ी
लकड़ी की बेंच पर ही बैठ गया था।
ममता और सुधाकर ने अपनी–अपनी चाय खत्म करके गिलास अभी नीचे रखे
भी नहीं थे कि दादाजी आ गए। उनके हाथों में चाय के गिलास देखकर एकदम–से बोले,‘‘अरे वाह, यहाँ भी बेड–टी मिल गई!’’
‘‘जी बाबूजी, आपके
आशीर्वाद से।’’ ममता
ने कहा,‘‘पाँव छूती हूँ।’’
‘‘सदा सुखी रहो बेटा।’’ दादाजी बोले,‘‘देर
न करो, जल्दी जाओ। मैं इस
बीच बच्चों को जगाता हूँ।’’
‘‘बच्चों को सोने दीजिए बाबूजी।’’ ममता ने कहा,‘‘ये लोग तो वैसे भी देर तक सोने के आदी
हैं।’’
‘‘देर तक सोने के आदी घर में हैं या सफ़र में?’’ दादाजी तीखे स्वर में बोले,‘‘इनकी बात तुम मुझ पर छोड़ दो और इस बुद्धू
को लेकर फ्रेश होने को जाओ।’’
ममता ने सुधाकर की ओर देखा और केवल मुस्कराकर रह गईं। सुधाकर
भी चुपचाप टॉयलेट्स की ओर बढ़ गए।
‘‘मणिका–निक्की!
उठो।…उठो बेटे, देखो
नजीबाबाद आ गया।’’ उनके
चले जाने के बाद दादाजी ने सीटों पर पसरे पड़े बच्चों को जगाने के लिए हिलाना शुरू
कर दिया।
‘‘नजीबाबाद!…यहाँ से बद्रीनाथ कितनी दूर है दादाजी?’’ थोड़ी–बहुत कुनन–मुनन करने के बाद निक्की ने फुर्ती के
साथ बैठते हुए पूछा।
‘‘वह तो अभी बहुत दूर है।’’ दादाजी बोले,‘‘तुम लोग फटाफट पेस्ट वगैरा से निबटो।…दिन
अभी निकल ही रहा है बेटे। देर करोगे तो टॉयलेट के बाहर लाइन लगनी शुरू हो सकती है।
सफर के दौरान इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए।’’
‘‘पहले आप हो आइए न दादाजी।’’ मणिका अपनी सीट पर करवट बदलकर बोली,‘‘जैसे ही आप आएँगे, हम चले जाएँगे।’’
‘‘अरे, तू
भी जाग गई चुहिया?’’
‘‘गुड मार्निंग दादाजी।’’ वह आलस्यभरी आवाज़ में बोली।
‘‘वेरी गुड मार्निंग बेटा। मैं तो हो भी आया। कुल्ला–मंजन करके मुँह–हाथ धोकर एकदम तैयार खड़ा हूँ तुम्हारे
सामने।’’ दादाजी बोले।
‘‘ठीक है, पहले
मैं जाता हूँ।’’ निक्की
खड़ा होकर बोला।
‘‘बड़ा फुर्तीला बच्चा है।’’ दादाजी खुश होकर बोले,‘‘अभी रुक थोड़ी देर, मम्मी–पापा गए हुए हैं उन्हें आने दो, तब जाना।…या फिर ऐसा कर, तू जा।’’
‘‘मेरा ब्रश, पेस्ट,
तौलिया और साबुन किधर है दादाजी ?’’
निक्की ने पूछा।
‘‘उस सूटकेस के भीतर, एकदम उ़पर।’’
सामान लेकर निक्की टॉयलेट की ओर बढ़ गया।
‘‘गाड़ी यहाँ कितनी देर रुकेगी दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘कुछ देर तो रुकेगी ही। क्यों ?’’
‘‘नजीबाबाद के बाद कोटद्वार ही आएगा न, प्लेन का आखिरी स्टेशन?’’
‘‘ठीक कहा। वहीं से हम उत्तराखण्ड राज्य की सीमा में प्रवेश कर
जाते हैं।’’ दादाजी
बोले।
‘‘कोटद्वार में भी कुछ देखने लायक स्थान हैं दादाजी?’’ उठकर सीट पर सीधी बैठते हुए मणिका ने
पूछा।
‘‘देखने लायक भी और जानने लायक भी।’’ दादाजी बोले,‘‘लो, निक्की तो इतनी जल्दी लौट भी आया। उधर
तुम्हारी मम्मी शायद तुम्हारे इन्तज़ार में खड़ी रह गई है, अब तुम जाओ।’’
‘‘जाती हूँ लेकिन मेरे आने तक भैया को आप कुछ नहीं बतायेंगे
दादाजी।’’ मणिका अधिकारपूर्वक
बोली और टॉयलेट की ओर चल दी।
‘‘दीदी, तेरा
ब्रश–पेस्ट।’’ गाड़ी के निकट आकर निक्की ने सूटकेस को
देखा और मणिका का ब्रश उठाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
मणिका ब्रश लेकर आगे बढ़ गई।
अल्ताफ अभी भी चायवाले की बेंच पर ही बैठा था। वह दरअसल,
इन लोगों के पूरी तरह तैयार होने का
इन्तज़ार कर रहा था। दादाजी ने जैसे ही मणिका को टॉयलेट से बाहर आकर ब्रश करते देखा,
आवाज़ लगाकर तीन चाय ले आने का ऑर्डर
चायवाले को दे दिया। जैसा कि उसने कहा था, अगले दो ही मिनट में तीन गिलास चाय लेकर वह उपस्थित हो गया।
‘‘बच्चा–लोग
के लिए बिस्कुट वगैरा कुछ लाऊँ साबजी?’’ चाय का एक गिलास दादाजी के हाथ में पकड़ाते हुए उसने पूछा।
‘‘वह सब है हमारे पास।’’ दादाजी ने कहा,‘‘वैसे भी इतनी सुबह ये लोग कुछ खायेंगे नहीं।’’
गाड़ी में पहले रखे चाय के खाली गिलासों को लेकर वह चला गया।
‘‘अब बताइए दादाजी।’’ मणिका चाय की चुस्की लेकर बोली।
‘‘अभी नहीं।’’ दादाजी
बोले,‘‘गाड़ी चलना शुरू होगी
तब।’’
वह बेचारी चुप हो गई। ममता और सुधाकर इस दौरान इधर–उधर चहल–कदमी करने लगे थे।
दोनों बच्चों ने अपने–अपने गिलास की चाय खत्म की। दादाजी ने भी। वहीं बैठे–बैठे उन्होंने अल्ताफ को इशारा किया,
अल्ताफ ने चायवाले को। वह दौड़कर आया और
खाली गिलासों को हाथ में पकड़ते हुए अल्ताफ की ओर इशारा करके बोला,‘‘पैसे उन्होंने दे दिये हैं साबजी।’’
‘‘ठीक है।’’ दादाजी
ने कहा।
अल्ताफ को चायवाले के पास से उठकर गाड़ी की ओर बढ़ता देखकर ममता
और सुधाकर भी चले आए।
गाड़ी आगे चल दी।
बच्चों ने उत्सुकतापूर्वक दादाजी के चेहरे को निहारना शुरू
किया।
आगामी अंक में जारी…
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