मित्रो,
'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की दसवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…
(दसवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
सतपुली को पीछे छोड़कर टैक्सी इस समय आगे बढ़ चली थी। दादाजी की
आँखें लग गयी थीं। प्रकृति–दर्शन
में बच्चे भी ऐसे मग्न हुए कि सारी जिज्ञासाएँ, सारे सवाल भूल बैठे। प्राकृतिक सौंदर्य
और सम्पदा से भरी हिमालय की इस श्रृंखला का यही महात्म्य है। समस्त जिज्ञासाओं से
परे। मानव–मन यहाँ खुद–ब–खुद कविता गा उठता है। इस यात्रा में
कदम–कदम पर अगर आनन्द और
रोमांच है तो कभी–कभी
कुछ मोड़ों पर भय की सिहरन भी है। ‘अन्धा
मोड़’ लिखे साइन बोर्ड
बच्चों ने यहाँ से पहले कहीं और नहीं देखे थे।
‘‘अन्धा मोड़ का क्या मतलब होता है डैडी?’’ दादाजी को सोया हुआ देखकर मणिका ने सुधाकर
से पूछा।
‘‘अन्धा मोड़ का मतलब है वह मोड़ जो एकदम गोलाकार हो…’’ सुधाकर ने बताया,‘‘करीब–करीब ज़ीरो की तरह का ।’’
इतना बताकर वह चुप हो गए ।
किसी ज़माने में घने और भयावह जंगलों के बीच हिंस्र पशुओं और
दैवी आपदाओं से टकराते मजबूत इरादों वाले यायावर कदमों ने इन दुरूह पहाड़ियों पर
पगडंडियाँ बनाई थीं तो आज मजबूत और मेहनती कन्धों व लोहे के हाथों वाले उनके
वंशजों ने पतली पगडंडियों को लम्बी–चौड़ी सड़कों में तथा सँकरी पुलियाओं को भारी–भरकम सुविधाजनक पुलों में बदल डाला है ।
एक अन्धे मोड़ पर सामने से आती तेज़ रफ्तार कार को बचाने के
चक्कर में अल्ताफ ने टैक्सी को तेजी से काटा। उससे झटका खाकर दादाजी जाग उठे। बाहर
के दृश्यों को देखकर उन्होंने जगह को पहचानने की कोशिश की। फिर बच्चों से पूछा,‘‘पौड़ी पीछे छूट गया क्या?’’
‘‘नहीं दादाजी!’’ निक्की
ने बताया,‘‘पौड़ी तो अब आनेवाला
है।’’
‘‘अच्छा! तुमने कैसे जाना?’’ दादाजी ने पूछा।
“कॉमन सेंस से, और कैसे?” वह बोला ।
‘‘बाप पर गया है पूरी तरह!” दादाजी हँसकर बोले, “सड़क–किनारे के एक बोर्ड को पढ़कर मुझे चीट कर
रहा है बदमाश।’’
“जो भी हो, है तो इंटेलीजेंट ही न!” उनकी इस बात पर सुधाकर बोले।”
‘‘मान गया यार, तुम बाप-बेटा दोनों ही बहुत इंटेलीजेंट हो।” दादाजी ने कहा, फिर पूछा,“ अच्छा यह बताओं कि पौड़ी–क्षेत्र का देवता कौन है?’’
सुधाकर उनके इस सवाल को जैसे सुना ही नहीं, वे खिड़की से बाहर
प्राकृतिक दृश्यों को देखने में मशगूल हो गये। बच्चे दादाजी की सूरत देखने लगे ।
‘‘नाग–देवता।’’
कुछ देर इंतजार के बाद दादाजी ने स्वयं ही
बताया,‘‘उ़पर, एक पहाड़ी पर कंडोलिया गाँव है जहाँ नाग–देवता की थाती है। थाती मतलब—पुरखों के ज़माने से चली आ रही जगह। बड़ा
भारी मेला भी लगता है वहाँ पर। पौड़ी की एक–और भी विशेषता है…।’’ दादाजी आगे बोले,‘‘गुमखाल के बाद आसपास के पहाड़ों में यह सबसे उ़ँची जगह पर बसा
है। समुद्रतल से इसकी उ़ँचाई जानते हो?’’
‘‘नहीं।’’ दोनों
बच्चों ने सिर हिलाया।
‘‘तू जानता है रे बुद्धू?’’ दादाजी ने सुधाकर से पूछा जो अब ऊँघते
हुए यात्रा कर रहे थे।
‘‘आप कम से कम बच्चों के सामने तो इन्हें ‘बुद्धू’ मत कहा करो बाबूजी।’’ ममता ने बनावटी नाराजगी के स्वर में कहा।
‘‘देखा?’’ उसकी
बात पर सुधाकर एकदम–से
चहक उठे,‘‘वैसे तो मन में पटाखे
फूट रहे होंगे कि बाबूजी ने सरेआम मुझे बुद्धू कहा, लेकिन दिखावे के लिए कहेंगी––आप कम से कम बच्चों के सामने तो इन्हें
बुद्धू मत कहा करो। मतलब कि जब कहो इनके सामने कहो ताकि इनके कलेजे को ठण्डक मिला
करे।’’
ममता यह बात सुनकर नीचे ही नीचे मुस्कराती रही। बच्चे भी खुश
होते रहे और अल्ताफ भी। दादाजी भी सब समझ रहे थे। उन्होंने कुछ नहीं कहा। सिर्फ
इतना बोले,‘‘भई,
वह तो मैं इसे लाड़ में कहता हूँ…और वह
भी इसके जन्म के समय से।’’
‘‘जन्म के समय ही इनकी यह ‘खूबी’ आप ने कैसे जान ली थी बाबूजी?’’ सब–कुछ जानते हुए भी ममता ने मुस्कराते हुए
सवाल किया।
‘‘वो ऐसे कि इसका जन्म बुधवार को हुआ था।’’ दादाजी ने बताया,‘‘उसी समय मैंने सोच लिया था कि इसका नाम
मैं बुधप्रकाश रखूँगा।’’
‘‘बुध को तो यह निक्की भी पैदा हुआ था।’’ सुधाकर बोले,‘‘अपने पोते को नाम तो आपने ‘बुद्धू’ नहीं सोचा।’’
‘‘यों तो मैं खुद भी बुध को ही पैदा हुआ था…’’ दादाजी ने कहा,‘‘अब एक ही घर में तीन–तीन बुद्धू तो नहीं रह सकते थे।’’
‘‘क्यों नहीं रह सकते थे?’’ सुधाकर ने दलील दी,‘‘प्रथम, द्वितीय, तृतीय कर देते––अंग्रेजों की तरह।’’
‘‘मुझे अंग्रेजों के चलन का पता नहीं था न बेटा।’’ दादाजी व्यंग्यपूर्वक बोल,‘‘खैर। बहू, तू आगे की बात सुन—इसे स्कूल में दाखिल कराने को ले जाने
से पहले तक यह नाम घर में चलता रहा। लेकिन जब दाखिला कराने को स्कूल ले जाने लगा
तो इसकी मम्मी ने कहा—कोई
और नाम लिखवाना लड़के का, वरना
सारे साथी और अध्यापक बुधप्रकाश को बिगाड़कर तुम्हारी तरह ‘बुद्धू’ कहने लगेंगे। मुझे भी उनकी यह दलील जँच
गई और इसका नाम ‘सुधाकर’
लिखवा आया। लेकिन इसका जन्मजात नाम
मैंने नहीं बिगड़ने दिया।’’
‘‘नहीं बिगड़ने दिया बाबूजी या नहीं सुधरने दिया?’’ सुधाकर बोले।
‘‘बेटा, मैं
तुझे बुद्धू कहता जरूर हूँ लेकिन मानता थोड़े ही हूँ। मैं क्या जानता नहीं हूँ कि
तू अपने फ़न में माहिर है और मेरे जैसे तो सौ आदमियों के कान एक–साथ काटता है।’’ दादाजी सुधाकर की प्रशंसा करते हुए बोले।
‘‘कान या बाल?’’ ममता
ने चुटकी ली। उसकी इस चुटकी पर निक्की तो खिलखिलाकर हँस ही पड़ा। बाकी सब भी हँसे
बिना न रह सके।
आगामी अंक में जारी…
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें