'कथायात्रा'
में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक
बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की तेरहवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…
(तेरहवीं कड़ी)
बच्चे भी चुप पड़े रहे; लेकिन दादाजी को देर तक चुप देखकर मणिका बोली,‘‘यहाँ के बारे में कुछ और भी बताइए न
दादाजी!’’
‘‘कुछ और?
सुनो—एक–एक करके मैं तुमको यहाँ की सभी प्रसिद्ध
जगहों और महत्वपूर्ण मन्दिरों के बारे में बताता हूँ।’’ दादाजी बोले, ‘‘श्रीनगर अलकनन्दा नदी के बायें किनारे
पर बसा है और उसी के एक किनारे पर कमलेश्वर महादेव का मन्दिर है। कहते हैं कि
भगवान श्रीराम ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए यहाँ पर भारी तप किया था।
उ़ँची चोटियों से लाकर उन्होंने एक हजार ब्रह्मकमल उनके चरणों में चढ़ाए थे। तभी से
भगवान शंकर का और उस जगह का नाम कमलेश्वर महादेव पड़ गया। यह भी कहा जाता है कि उसी
जगह पर भगवान शंकर ने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र दिया था। उस मन्दिर के पास ही
कपिल मुनि की समाधि भी है।’’
‘‘ब्रह्मकमल क्या होता है दादाजी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘ब्रह्मकमल एक प्रकार का कमल ही होता है बेटे।’’ दादाजी बताने लगे,‘‘लेकिन यह सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में
होता है और वह भी बारह-चौदह
हजार फुट ऊँची किसी पहाड़ी झील में। इससे कम ऊँचाई पर यह नहीं होता।’’ फिर कुछ पल रुककर उन्होंने पूछा, ‘‘मठ तो तुम लोग समझते हो न?’’
‘‘जी हाँ, दादाजी।’’
मणिका बोली, ‘‘संन्यासियों के रहने की जगह।’’
‘‘श्रीनगर में कुछ प्राचीन मठ भी हैं जैसे—केशोराय का मठ,
शंकर मठ और बदरीनाथ मठ। इनके अलावा एक
जैन मन्दिर है, गुरु
गोरखनाथ की गुफा है, वैष्णवी
शिला है तथा लक्ष्मीनारायण, कल्याणेश्वर,
नागेश्वर, भैरों, किलकिलेश्वर महादेव…और भी न जाने कितने
मन्दिर हैं।’’
‘‘यह क्या बात हुई दादाजी।’’ निक्की अपने बिस्तर से उठकर दादाजी के
पास आ लेटा, ‘‘मन्दिर ही मन्दिर गिना दिये! कोई
मज़ेदार बात बताइए न।’’
‘‘मज़ेदार बात!’’ दादाजी
कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘…ठीक
है। लेकिन उसके बाद तुम चुप रहकर आराम करोगे, वादा करो।’’
‘‘क्यों?’’ मणिका
चिहुँकी और कूदकर वह भी दादाजी के साथ ही आ लेटी।
‘‘इसलिए कि आराम नहीं करोगे तो बिना थके घूमोगे कैसे?’’
‘‘ठीक है, वादा
किया।’’ दोनों बोले।
‘‘सुनो, नारदजी
को…’’ दादाजी ने सुनाना
शुरू किया फिर टोकते हुए पूछा, ‘‘नारदजी
के बारे में तो जानते हो न?’’
‘‘हाँ,’’ निक्की
तुरन्त बोला, ‘‘गंजा
सिर, ऊँची खड़ी हुई चोटी,
हाथ में एकतारा…’’
‘‘…और मुँह में—ना…ऽ…रायण–ना…ऽ…रायण!’’ मणिका उपहास के अन्दाज़ में बोली, ‘‘उधर की बात इधर और इधर की बात उधर करने
वाले चुगलखोर ऋषि।’’
मणिका के इस अन्दाज़ पर निक्की तो खिलखिलाकर हँस दिया लेकिन
दादाजी गम्भीरतापूर्वक उसका चेहरा ताकते रह गए। कुछ देर बाद वह बोले,‘‘देखो बेटा, नारदजी ब्रह्मज्ञानी ऋषि हैं और उनके–जैसा निश्छल और निष्कपट व्यक्ति सृष्टि
में दूसरा नहीं हुआ। वे ऐसे ऋषि हैं जो न काले हृदय वाली नीति जानते हैं न राजनीति; उनके मन में
केवल एक बात रहती है, वो
ये कि दूसरों का भला कैसे किया जाय। दूसरों का भला करने की इस भोली–भाली कोशिश में ही उनके द्वारा दूसरों
का अहित हो जाता है। इस दुनिया में आज भी ऐसे निष्कपट लोगों की कमी नहीं है जो
अपनी बातों से करना तो दूसरों का भला चाहते हैं लेकिन सीधेपन के कारण धूर्त और चालाक
लोगों की बदौलत दूसरों का अहित कर बैठते हैं।’’
बच्चे कान लगाकर उनकी बातें सुन रहे थे।
‘‘उधर की बात इधर और इधर की बात उधर पहुँचाने की नारदजी की आदत
में और चुगली करने की आदत में सबसे बड़ा फ़र्क यही है कि चुगली करने में अपना हित और
दूसरे का अहित करने की भावना छिपी रहती है। चुगली करने वाले को पता रहता है कि इस
व्यक्ति से जो मैं उस व्यक्ति के बारे में बातें कह रहा हूँ उसका उद्देश्य अपना
हित साधना है भले ही उन दोनों के बीच झगड़ा पैदा हो जाए; जबकि नारदजी वे सब बातें
परहित की भावना से करते थे। उन्हें लगता था कि इस व्यक्ति से ये बातें मैं इसका
भला करने की नीयत से कह रहा हूँ।’’
‘‘जबकि हो उसका उल्टा जाता था ।’’ मणिका ने कहा।
‘‘सभी के साथ उलटा नहीं होता था। तुम्हें मालूम है, पार्वतीजी जब छोटी थीं, नारदजी ने संकेत
की भाषा में तभी उन्हें बता दिया था कि उनका विवाह भगवान शंकर से होगा इसलिए वो
अभी से उनकी आराधना करें और पार्वतीजी ने वैसा ही किया था। इसलिए उनकी बात को
सुनकर जो लोग उसकी गहराई को नहीं समझते थे उनके साथ उलटा हो जाता था और फिर वे लोग
नारदजी को भला–बुरा
कहते थे, गालियाँ देते थे।’’
‘‘अच्छा, अब
आगे की कहानी सुनाइए दादाजी।’’ निक्की
बोला।
‘‘मैं तुम लोगों को सुना रहा था कि नारदजी को एक बार इस बात का
बड़ा घमण्ड हो गया कि एक मामले में वे ब्रह्माजी, शिवजी और विष्णुजी––इन तीनों से कहीं ज्यादा महान हैं।’’
‘‘यह कहानी है न दादाजी?’’ निक्की ने संदेहभरी निगाहों से देखते हुए उन्हें बीच में टोका।
‘‘टोका–टाकी
अब बन्द ।’’ दादाजी
बोले, ‘‘सुनते जाओ बस।…तो
नारदजी को घमण्ड हो गया कि इस पूरी सृष्टि में सिर्फ वही हैं जिसके मन में कभी
विवाह करने का लालच नहीं जागा। विष्णुजी को पता चला तो उन्होंने चला
दिया उनके इस घमण्ड को तोड़ने का चक्कर। नारदजी को एक सुन्दर राजकुमारी भा गई। पता
करने पर मालूम हुआ कि कुछ दिन बाद ही उसका स्वयंवर होने वाला है। दौड़े–दौड़े वे पहुँचे विष्णुजी के पास और बोले—बहुत जल्दी एक स्वयंवर होने वाला है
भगवन्। ‘टिप–टॉप हीरो’ बना दो…तुरन्त।’’
‘‘आप भी क्या खूब सुनाते हैं दादाजी।’’ मणिका हँसी।
‘‘दीदी! ‘टिप–टॉप हीरो’।’’ निक्की भी हँसा।
‘‘विष्णुजी ने तो जाल फैलाया ही था। वह तुरन्त उन्हें ले गए एक
सरिता यानी नदी के किनारे और बोले—‘इस
नदी के बीचों–बीच
खड़े होकर मन ही मन उस कन्या का ध्यान करिए जिससे आप विवाह करना चाहते हैं और लगाइए
तीन डुबकियाँ इस पावन जल में। बहुत ही सुन्दर होकर निकलेंगे।’ नारदजी फटाफट जलधारा में उतरे और उसके
बीचों–बीच पहुँचकर तीन
डुबकियाँ जो लगाईं उस कन्या के रूप का ध्यान करके, तो कितना सुन्दर चेहरा लेकर जल से बाहर
निकले, जानते हो?’’
‘‘बन्दर जितना।’’ दोनों
बच्चे एक–साथ बोले।
‘‘रामचरितमानस पढ़ते समय यह कहानी एक बार पहले भी सुनाई थी आपने।’’
मणिका ने कहा।
‘‘हाँ, लेकिन
तब मैं बहुत छोटा था। बात पूरी तरह समझ में नहीं आई थी।’’ निक्की ने कहा।
‘‘तू पूरी बात समझता ही कब है, हाफ माइंड!’’ मणिका ने ताना कसा।
‘‘…और तू क्रेक!’’ निक्की ने पलटवार किया।
‘‘तू महाक्रेक!!’’ मणिका उसकी ओर जीभ निकालकर चिढ़ाती हुई बोली।
अब, महाक्रेक से आगे की उपाधि निक्की जानता
नहीं था । फिर भी बोला, ‘‘तू महा–महा–महाक्रेक!!!’’ और यह कहकर उसने एक मुक्का मणि की कमर
पर दे मारा। दादाजी कुछ समझ पाते, उससे
पहले ही दोनों के बीच हाथापाई शुरू हो गई। इस काम में दोनों काफी माहिर थे। निक्की
‘हाथा’ में माहिर था और मणि ‘पाई’ में; यानी निक्की के हाथ ज्यादा चलते थे
और मणि के पैर। लड़ते–लड़ते
दोनों पलंग से नीचे जा गिरे। यह देख दादाजी थोड़ा घबराए कि किसी को चोट न लग गई हो;
लेकिन जब देखा कि दोनों ठीक–ठाक हैं तो निश्चिंत बैठे रहे। यह तो इन
दोनों का रोज़ का काम है—मिलना–जुलना, चिढ़ाना–चिढ़ना, कभी मारपीट और कभी हाथापाई पर उतर आना,
कुछ घण्टों के लिए आपस में बोलचाल बन्द कर देना…और उसके बाद? उसके बाद पुन: एकजुट हो जाना मम्मी,
डैडी या दादाजी में से जो भी हत्थे चढ़
जाए उसकी जान खाना। दादाजी अब उस पल का इन्तज़ार करने लगे जब थक–हारकर दोनों में से कोई एक रोता हुआ उठ
खड़ा होगा और औंधे मुँह अपने पलंग पर जा पड़ेगा।
आगामी अंक में जारी…
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें