'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत
है उक्त उपन्यास की सत्रहवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…(सत्रहवीं कड़ी)
चित्र:राजेश उत्साही |
अगला दिन। दादाजी तो अपने नियम के अनुसार सुबह के लगभग साढ़े
चार बजे जाग ही गए थे। बच्चों को उन्होंने सोता रहने दिया। ‘ठीक ही रहा जो सुधाकर ने आगे की यात्रा
आराम से करते हुए चलने का सुझाव दिया’—वे सोचने लगे। बच्चों को
कमरे में अकेले सोया हुआ छोड़कर वे घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकते थे।
इसलिए शौच आदि से निवृत्त होकर कमरे में ही हल्का–फुल्का व्यायाम करने लगे। काफी देर बाद,
जब उन्हें बाहर से कुछ आवाजें आने लगीं
तो उन्होंने घड़ी देखी। सुबह के छ: बज रहे थे। बच्चे कल काफी थक गए थे इसलिए अभी भी
गहरी नींद में सो रहे थे। ममता और सुधाकर तो छुट्टी के दिन से पहली रात को सोते ही
घोड़े बेचकर हैं—यह
सोचकर वे मुस्करा–से
दिए। अपने आराम में रुकावट न आए, इस
बदमाश ने इसीलिए आराम से यात्रा करने का सुझाव दिया होगा—वे सोचने लगे—जो भी हो, सुझाव उसका है ठीक ही।
आगामी एक घण्टा उन्होंने स्नान–ध्यान आदि में बिता दिया। सात बजे के
करीब सुधाकर का फोन आया—‘‘चरण
छूता हूँ बाबूजी।’’
‘‘सुखी रहो बेटा।’’ वे बोले।
‘‘जागने में देर हो गई, माफी चाहता हूँ।’’
‘‘देर कहाँ हुई? यह
तो तेरा रोज़ाना का ही टाइम है।’’ दादाजी
ने चुटकी ली।
‘‘आप भी बस…’’ सुधाकर
ने शर्माकर कहा। फिर पूछा,‘‘बच्चे
तो अभी सो ही रहे होंगे?’’
‘‘मेरा बच्चा होकर जब तू जल्दी बिस्तर छोड़ना नहीं सीख पाया तो
तेरे बच्चे होकर ये कैसे जल्दी बिस्तर छोड़ देंगे?’’
‘‘अरे, आप
मुझे नहीं सुधार पाए, इन्हें
तो सुधार लीजिए!’’ सुधाकर
ने ताना कसा,‘‘इन
दिनों तो ये शत–प्रतिशत
आपके चार्ज में हैं।’’
‘‘उड़ा ले मेरी कमजोरी का मज़ाक बेटा।’’ दादाजी हँसकर बोले,‘‘बड़े–बूढ़ों का लाड़ बच्चों आरामतलब बना देता
है, मैं जानता हूँ।’’
‘‘मैं चाय आर्डर कर रहा हूँ।’’ बात को विराम देते हुए सुधाकर ने कहा,‘‘बच्चों को भी जगा दीजिए। अपने लिए हमने
इधर ही मँगा ली है।’’
‘‘ठीक है बेटे।’’ दादाजी
ने कहा और फोन को रखकर बच्चों को जगाने लगे।
खा–पीकर
पूरी तरह तैयार होने और यात्री–निवास
से बाहर निकलने में उनको दस बज गए। सुधाकर ने अल्ताफ को फोन कर दिया था। उसने जैसे
ही टैक्सी को यात्री–निवास
के गेट पर लगाया, कई
कुली उधर दौड़ आए। सुधाकर से तय करके एक कुली यात्री–निवास के अन्दर से सामान उठाकर टैक्सी
में रखवाने लगा। ममता, मणिका
और निक्की के साथ दादाजी टैक्सी में बैठ गए। कुली को उसकी मजदूरी चुकाकर सुधाकर भी
उसमें जा बैठे।
टैक्सी रुद्रप्रयाग की ओर बढ़ चली।
‘‘यह आप दोनों ने अच्छा किया।’’ दादाजी बच्चों से बोले, ‘‘पूरे रास्ते अलकनन्दा उसी ओर बहती नजर
आएगी।’’
‘‘टैक्सी को आराम–आराम
से चलाना अल्ताफ अंकल!’’ मणिका
ने अल्ताफ से कहा।
‘‘हाँ,’’निक्की
बोला,‘‘ और दादाजी, आप रास्ते में आनेवाली जगहों के बारे
में हमें बताना नहीं भूलना।’’
‘‘अच्छा! अरे भाई, मैं तो आप लोगों के साथ आया ही इसलिए हूँ। सुनो,’’ दादाजी
बताने लगे,‘‘यहाँ
से कुछ ही आगे शकुरना गाँव आएगा। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य ने इस गाँव में कठोर
तप किया था। उसके बाद आएगा फरासू। इस गाँव के पास
अलकनन्दा के किनारे परशुराम कुण्ड है। कहते हैं कि भगवान परशुरामजी ने इस जगह के
निकट बहुत समय तक तपस्या की थी।’’
‘‘उसके बाद?’’ मणिका
ने पूछा।
‘‘उसके बाद आने वाली जगह प्रसिद्ध भी है और बरसात के दिनों में
भयानक रूप धारण कर लेने वाली भी।’’
‘‘वह कौन–सी
जगह है दादाजी?’’ दोनों
बच्चों ने एक साथ पूछा।
‘‘वह है कलियासौड़। इस जगह के आसपास कुछ गुफाएँ हैं जिनमें
महिमामयी जगद्माता महाकाली के बहुत–से
भक्त तपस्या में लीन रहते हैं। कलियासौड़ के पास सड़क के ऊपर वाला एक पहाड़ बरसात के
दिनों में दलदल के रूप में बहने लगता हैय जिसके कारण कभी–कभी यातायात कई–कई दिनों तक बन्द रहता है।’’
‘‘यानी इधर के यात्री इधर और उधर के यात्री उधर!’’
‘‘हाँ, रुकना
ही पड़ता है।’’ दादाजी
बोले,‘‘कोई दूसरा रास्ता तो
जाने–आने के लिए है नहीं।’’
बातें करते और अलकनन्दा की रमणीयता का आनन्द लेते उन्हें पता
ही नहीं चला कि उनकी टैक्सी कलियासौड़ तक आ पहुँची है। अब इसे दुर्भाग्य कहा जाए या
सौभाग्य कि जिस पहाड़ी के बारे में दादाजी ने कुछ समय बताया था, कल रात उस पर बारिश हो गई और भारी
मात्रा में उससे बहकर आई हुई कच्ची मिट्टी सारी सड़क पर फैलती हुई नीचे नदी की ओर
जा रही थी।
‘‘रात तीन बजे के करीब हुई थी बारिश।’’ आसपास के लोगों ने बताया,‘‘यह तो अच्छा हुआ कि कोई वाहन उस समय
यहाँ से नहीं गुजर रहा था।’’
यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों के रोंगटे खड़े हो गए।
हालाँकि बारिश अब बन्द हो चुकी थी लेकिन दलदल अभी भी तेजी से नीचे की ओर आ रहा था।
उसके चलते कोई वाहन तो क्या, पैदल
व्यक्ति भी एक ओर से दूसरी ओर जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। स्थानीय लोगों ने
बताया कि सीमा सड़क सुरक्षा के जवान इस सारे दलदल को कुछ ही घण्टों की मशक्कत के
बाद नीचे नदी में धकेल देंगे और रास्ते को जाने–आने लायक साफ कर देंगे।
बच्चों को इस बहाने एक नया अनुभव प्राप्त हो रहा था। डैडी की
देखरेख में वे उस सारे दृश्य को नजदीक से देखकर आए।
करीब तीन घण्टे की
मशक्कत के बाद सुरक्षा जवानों ने सड़क को पूरी तरह साफ कर दिया। पहले उन्होंने
बायीं ओर खड़ी बसों और कारों की सब सवारियों को उतरवा दिया, फिर खाली बसों को धीरे–धीरे दूसरे ओर भेजना शुरू किया। अल्ताफ
भी मुस्तैदी के साथ अपनी सीट जा बैठा। उसकी टैक्सी एक बस के पीछे खड़ी थी। वह धीरे–धीरे चलाता हुआ उसे उस पार ले गया। बूढ़े
व कमजोर यात्रियों, बच्चों
तथा महिलाओं को सैनिकों व स्थानीय नागरिकों ने सहारा देकर दूसरी ओर पहुँचाने का
काम किया। कुछ समय तक सुधाकर ने भी इस काम में उनका हाथ बँटाया। जब एक ओर की सारी
गाड़ियाँ व सवारियाँ दूसरी ओर पहुँच गईं, तब दूसरी ओर की गाड़ियों व सवारियों को इस ओर लाने का काम शुरू
हुआ।
‘‘ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है।’’ दूसरी ओर पहुँचकर टैकसी में बैठने के
बाद दादाजी बोले,‘‘श्रीनगर
के यात्री–निवास को छोड़कर सुबह
जल्दी चल दिए होते तो हमें बहुत परेशान होना पड़ सकता था।’’
‘‘दरअसल, गढ़वाल
का पहाड़ ज्यादातर कच्चा पहाड़ है बाबूजी।’’ सुधाकर बोले,‘‘इसलिए
जरा–सी बारिश में ही दलदल
बनकर बहने लगता है।’’
‘‘जो भी हो, तेरी
राय मानने से लाभ ही हुआ।’’
‘‘भूल न जाना, आगे
भी ध्यान रखना यह बात।’’
‘‘जरूर।’’
आगामी अंक में जारी…
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