बुधवार, अक्तूबर 26, 2016

एक था टुइयाँ / बलराम अग्रवाल



कार, स्कूटर और बाइक की सर्विस के लिए पिछले करीब तीस साल से शहर में सबसे अच्छा वर्कशॉप  ‘गट्टू ऑटोमोबाइल्स’ को माना जाता है। वर्कशॉप के कार्यालय की दीवार पर, मैनेजर की कुर्सी के ऐन ऊपर गट्टू जी की एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी है। और उसी फ्रेम में, गट्टू जी के बायीं ओर वाली खाली जगह में चिपकी है एक चवन्नी।
जिन लोगों ने उन्हें देखा था, वे बताते हैं कि गट्टू काफी छोटे कद के इंसान थे। दस साल की उम्र तक वे घर के पास वाली नगर पालिका की प्राइमरी पाठशाला में जाते रहे और कक्षा दो तक पहुँच भी गये थे। उसके बाद उनका मन पढ़ाई से हट गया। स्कूल जाने की बजाय वे अम्मा के साथ मजदूरी करने को खेतों में जाने लगे। चौदह-पन्द्रह साल के हुए तो पिता ने गारा-मजदूरी करने के लिए अपने साथ ले जाना शुरू कर दिया। उसी दौरान मेहनती स्वभाव, मीठे व्यवहार और गठे हुए शरीर की बदौलत वे एक तहसीलदार की नजर में चढ़ गये। उसने चपरासी के तौर पर उन्हें अपने साथ रख लिया। उसने दैनिक भत्ता चपरासी के तौर पर उन्हें अपने साथ रख लिया। शुरू के दो साल वे दैनिक भत्ते पर उसके साथ रहे; फिर उसने उन्हें कार्यालय के अस्थाई कर्मचारी के तौर पर प्रोन्नत कर दिया; और अन्त में वे स्थाई कर्मचारी बन गये; तथापि सम्बन्धित कार्य में दक्ष हो जाने के कारण रहे वे हमेशा तहसीलदार की सेवा में ही। गट्टू के दो बेटे हुए—मोहन और सोहन। उनके माँ-बाप काफी पहले मर चुके थे; और बीवी की मौत सोहन के पैदा होने के दो साल बाद अचानक हो गयी थी। गरीबी के कारण समझ लो या बेटों से प्यार के कारण, गट्टू ने दूसरी शादी नहीं की। मोहन उस समय बारह साल का था। सोचा, दो चार साल बाद मोहन का ही ब्याह करके घर में बहू ले आयेंगे। इसी नीति के तहत मोहन को उन्होंने पाँचवीं पास करते ही स्कूल से हटा लिया और कचहरी के नजदीक एक कार मैकेनिक के पास जा छोड़ा। सवेरे वे उसे अपने साथ घर से ले जाते और शाम को अपने साथ ही घर वापस ले आते। सालभर की मेहनत के बाद मोहन कार के छोटे-मोटे नुख्स सुधारने का काम सीख गया और घर खर्च में पिता का हाथ बँटाने लायक कमाने भी लगा।
मगर सोहन! इकहरी हड्डियों का ढाँचा भी भगवान ने उसे खैरात जितना ही दिया था। कद में वह पिता से उन्नीस ही रहा। इसी गुण के चलते मुहल्ले और स्कूल के साथियों के बीच उसका नाम निकला—टुइयाँ। शरीर से वह इतना फुर्तीला था कि कबड्डी खेलते हुए दस लड़कों के बीच से करकेंटे की तरह निकल आता था…उधर वाले दस के दस चित। अकेले टुइयाँ के बल पर टीम जीत जाती थी। लेकिन पढ़ाई-लिखाई में वह उतना ही ठस भी था। ले-देकर सौ तक गिनतियाँ और पाँच तक पहाड़े ही याद कर पाया था और लगातार सात साल स्कूल जाने के बावजूद चौथी कक्षा से आगे नहीं बढ़ सका। साक्षरों की संख्या बढ़ाने का आज जैसा सरकारी नियम होता तो वह भी आठवीं-दसवीं तक तो आसानी से पहुँच ही जाता।
टुइयाँ उसी उम्र में स्कूल छोड़कर भागने का आदी हो गया था और पता नहीं कैसे जेब कतरने की कला सीख गया था। घर और मुहल्ले वालों को उसकी इस कला का पता तब चला जब एक दिन वह बाजार में एक दुकानदार के गल्ले से रुपए साफ करते रंगे हाथों पकड़ लिया गया और पीट-पाटकर पुलिस चौकी पहुँचा दिया गया।  गट्टू क्योंकि तहसीलदार का चपरासी थे, सो उनका हवाला दे, चौकी इंचार्ज के हाथ जोड़कर, टुइयाँ से माफी मँगवाकर उसे छुड़ा लाए थे। पुलिस चौकी से घर लाकर उन्होंने उसकी वो तुड़ाई की कि बाजार और पुलिस चौकी, दोनों जगह की पिटाइयाँ उसे फूल की डंडियाँ छुआने जैसी लगीं। अगले दिन साथ लेजाकर उन्होंने उसे भी उसी कार मैकेनिक की वर्कशॉप पर छोड़ दिया जिस पर मोहन ने काम सीखा था। लेकिन टुइयाँ पिछले दिन की तीन-तीन पिटाइयों  से जरा भी नहीं सुधरा। वर्कशॉप छोड़कर दोपहर को कहीं भाग गया और शाम को सीधा घर ही पहुँचा।
“वर्कशॉप छोड़कर कहाँ भाग गया था?” मोहन की शिकायत पर गट्टू ने उससे पूछा।
“एक दोस्त के साथ चला गया था।” सिर नीचा किए टुइयाँ धीमी आवाज में बोला, “उसने कहा था कि वह नौकरी लगवा देगा।”
“फिर, लगवा दी नौकरी?”
“जी।”
“लगवा दी?” उसकी ‘हाँ’ सुनकर गट्टू और मोहन, दोनों के गले से एक-साथ निकला।
“जी। अपनी ही कम्पनी में लगवा दी उसने।” टुइयाँ बोला, “दोपहर का खाना वहीं मिला करेगा; और शाम को देर हो गई तो रात का भी।”
“यह तो बढ़िया है।” गट्टू खुश होकर बोले, “पगार कितनी मिलेगी?”
“कहा है काम देखकर तय करेंगे।”
“इसका मतलब है—मेहनत से काम करो बेटा।” गट्टू ने टुइयाँ के सिर पर हाथ फेरकर कहा और सोने को चले गये।
अगले दिन से, टुइयाँ सवेरे ही घर से निकलने लगा। थका-हारा-सा अक्सर देर रात को घर में घुसता। कभी-कभार रुपए-पैसे भी पकड़ाने लगा था लाकर, इसलिए गट्टू ने देर से घर आने को लेकर उसे टोकना ठीक नहीं समझा।  टुइयाँ की दरियादिल कम्पनी का भाँडा लेकिन ज्यादा दिन टिका नहीं रह सका, जल्द फूट गया। गट्टू के पास एक दिन कचहरी में ही खबर पहुँच गयी कि टुइयाँ को पुलिस चौकी में पूजा जा रहा है। गट्टू बेचारे पिछले दिन की तरह ही भागे-भागे पुलिस चौकी पहुँचे। पिछले दिन की तरह ही चौकी इंचार्ज के हाथ-पैर जोड़े। मिन्नतें कीं। इस बार चढ़ावा भी चढ़ाना पड़ा और भरोसा दिलाया कि अब के बाद टुइयाँ उन्हें शिकायत का मौका नहीं देगा; और अगर दिया तो वे उसे छुड़ाने को नहीं आयेंगे। पिछली बार के मुकाबले इस बार उन्होंने खुद को बेइज्जत भी ज्यादा महसूस किया। इसलिए घर लाकर टुइयाँ की तुड़ाई भी पिछली तुड़ाई के मुकाबले कुछ ज्यादा हुई; लेकिन  इस बार मार का असर उस पर कुछ खास नहीं पड़ा। गट्टू ही थक-हारकर अपनी खाट पर जा पड़े और सो गये।
सुबह, आँख खुली तो टुइयाँ उन्हें दिखाई नहीं दिया। निकलकर जा चुका था घर से। गट्टू और मोहन ने उसके चले जाने की ज्यादा चिन्ता नहीं की। मरा मान लिया हरामजादे को; और अपने-अपने काम पर निकल गये। रात को टुइयाँ लौट आया। बाप या भाई में से कोई उससे नहीं बोला। उसने भी किसी से बात नहीं की और हल्का-फुल्का जो भी रसोई में रखा मिला, उसे खाकर अपनी खाट पर जा लेटा। उस दिन के बाद घर में उन तीनों प्राणियों के रहने, रुकने, आने, जाने, खाने और सोने का यही क्रम चल निकला। यह क्रम उस दिन टूटा जिस दिन टुइयाँ के फिर से पकड़े जाने की खबर गट्टू को मिली और गट्टू उसे छुड़ाने को पुलिस चौकी नहीं गये। उस दिन टुइयाँ का नाता चौकी से आगे, हवालात से भी जुड़ गया। जब वह बार-बार पकड़ा जाने लगा तो समाज में अपनी इज्जत की खातिर गट्टू ने उसे अपना बेटा ही कहने से इंकार कर दिया। नतीजा यह निकला कि कुछ ही महीनों में टुइयाँ हवालात से प्रोन्नत होकर जेल की हवा खाने का भी अभ्यस्त हो गया।

करीब-करीब हर रोज, मुहल्ले के किशोर और युवा लड़के देर शाम से लेकर रात के नौ-दस बजे तक गप-गोष्ठी और बतकही के लिए बैठते थे। बैठकी जमने की कोई एक जगह निश्चित नहीं थी। कभी वे पंचायती कुएँ के चबूतरे पर बैठते, कभी नाले की पुलिया पर, कभी मन्दिर के अँधेरे कोने में खड़े कद्दावर पीपल के नीचे। ये सभी जगहें घर से पचास मीटर के दायरे में होती थीं। सभी के घर वालों को उनके बैठने और गपियाने के इन सभी ठिकानों का पता होता था। मतलब यह कि वे ऐसी जगह बैठते थे जहाँ पहुँचकर घर का छोटे से छोटा सदस्य भी, जब चाहे तब उन्हें बुलाकर ले जा सकता था।
गिरहकट और उठाईगीर के रूप में ख्यात हो जाने के बावजूद टुइयाँ में सामान्य जीवन से जुड़ा रहने की ललक थी शायद। इसीलिए अक्सर ही रात को घर जाने से पहले वह भी उनमें जा मिलता था। वह उम्र में खुद से छोटे-बड़े बचपन के अपने साथियों की हँसी-मजाक में शामिल होता और दिनभर के अपने किस्से सुनाता। वे सब भी, उससे दूर रहने की घर वालों की लाख हिदायतों के बावजूद उसे अपने बीच बैठने देते थे। वह आता और चल रही बात को बीच में काटते हुए एकदम से बोलता, “भाई, आज का किस्सा सुनाऊँ...”
उसके ऐसा बोलते ही उनका-अपना  किस्सा जहाँ का तहाँ रुक जाता था। उन्हें उसका सुनाया हर किस्सा परीलोक के किस्से जैसा रोमांचक लगता था; क्योंकि वह उनके सीमित दायरे से अलग, एक बड़े दायरे में घूम-फिर उन्हें समेटकर लाता था।
“हाँ।” उनके गले से निकलता और सब के सब उसकी ओर मुँह बा कर बैठ जाते। कान चौकन्ने हो जाते। आँखें उत्सुकतावश फैल जातीं।
पीपल के पेड़ पर भूत-प्रेत का वास होता है, ” एक दिन आया तो और दिनों से अलग दूसरी ही बात कहने लगा।
“भाई, तुझसे बेहतर कंकाल इस पूरे इलाके में नहीं है।” उसकी इस बात पर नत्थी ने कहा, “जब हम तुझसे ही नहीं डरते तो किसी और से क्या डरेंगे!”
“असली बात यह है कि भूत-प्रेत भी हमारी बतकही का पूरा मजा लेते हैं,” किशन बोला, “इंतजार करते हैं हमारे आ बतियाने का।”
उन सब के बीच शिब्बू शर्मा कमजोर दिल का लड़का था। वह तुरन्त बोला, “देखो, भूत-प्रेत की बात मेरे सामने मत किया करो।”
“क्यों?” किसी ने मजा लिया।
“नहीं मानोगे तो मैं उठकर चला जाऊँगा।” ‘क्यों’ का जवाब देने की बजाय वह धमकी वाले अंदाज में बोला। दो टूक आवाज आई, “चला जा।”
शिब्बू यह चेलैंज सुनकर थोड़ा सा हिला,  फिर जहाँ का तहाँ बैठा रह गया। पीपल और घर के बीच घुप अंधकार जो था। गुस्साभरे स्वर में टुइयाँ से बोला, “अपनी राम-कहानी सुना सकता हो तो बैठ, वरना भाग यहाँ से।”
“सोमवार का दिन था न, सो आज पेंठ थी...” उसके कहते ही टुइयाँ ने सुनाना शुरू किया, “बड़ी भीड़ थी।…देखकर मन खुशी से उछल पड़ा।”
“क्यों?” शिब्बू ने सवाल किया।
“पंडज्जी…हमारा तो धन्धा ही भीड़-भाड़ में चलता है।”  शिब्बू के नादान सवाल पर वह अपनी पतली-सी बाँह को हवा में लहराकर बोला, “इसकी, उसकी… जिसकी चाहो जेब टटोल लो, भीड़ ज्यादा हो तो किसी को पता ही कुछ नहीं चलता है।”
“अच्छा, आगे बक।” उसके ताने से चिढ़कर शिब्बू उसे झिड़कता-सा बोला।
“मैंने देखा कि एक ताऊ के कुर्ते की दायीं जेब बड़ी भारी-सी लटक रही थी। मैं फुर्ती से उसके पास जा पहुँचा और बराबर-बराबर चलने लगा। मौका पाकर मैंने बायें हाथ की ‘कैंची’ ताऊ की जेब में डाल दी…”
“छोटी वाली कैंची ?” शिब्बू ने पूछा, “साथ लेकर निकलता है?”
 “अब इन्हें कैंची का मतलब समझाओ !” अपने माथे में हाथ मारते हुए टुइयाँ बुदबुदाया; फिर तर्जनी और मध्यमा को हवा में कैंची की तरह चलाता हुआ शिब्बू से बोला, “ये दो उँगलियाँ देख रहे हो?
“हाँ।”
“हमारे धन्धे में इसे कैंची कहते हैं।” टुइयाँ बोला, अब बीच में टोकना मत, वरना मैं किस्सा सुनाए बिना चला जाऊँगा।”
“अच्छा, भाव मत खा; आगे सुना।” नत्थी ने टुइयाँ को झिड़का।
“तो मैंने ताऊ की जेब में कैंची डाल दी।” टुइयाँ ने बात के खोए हुए सिरे को पकड़कर बताना शुरू किया, “लेकिन जेब में जो पोटली थी, मोटी थी; कैंची में फँस नहीं रही थी। सो मैंने पूरा हाथ उसमें घुसेड़ दिया और पोटली को मुट्ठी में जकड़ लिया।”
“फिर !” शिब्बू ने सवाल किया। बाकी सब तन्मय होकर सत्यनारायण की कथा के श्रोताओं की तरह निश्चल बैठे थे।
“फिर ! …” टुइयाँ आवाज को रहस्यात्मक बनाकर बोला, “जेब का मुँह छोटा था। हाथ उसमें फँस गया।”
“अरे बाप रे !” सब के मुँह से एक-साथ निकला।
“फँस कैसे गया?” शिब्बू ने जिज्ञासा जाहिर की।
“पूरे घनचक्कर हो पंडज्जी।” टुइयाँ गुर्राया, “अक्कल से पैदल।”
“अरे, इसमें अक्कल से पैदल वाली बात कहाँ से आ गई?” शिब्बू भड़ककर बोला, “जो हाथ जेब में घुस सकता है, वो ऐसे फँस कैसे सकता है? आ गया बुद्धू बनाने को।”
“बुद्धू तो तुम बने बनाए हो पंडज्जी…” टुइयाँ ने ताना कसा, “हमें क्या जरूरत है मेहनत करने की?” और यों कह खिलखिलाकर हँस पड़ा।
“अच्छा, अब पका मत, ” किस्सा बीच में रुक जाने से परेशान नत्थी टुइयाँ को दोबारा डाँटता-सा बोला, “आगे बढ़।”
लेकिन इस बार टुइयाँ ने उसकी धमकी पर ध्यान दिये बिना शिब्बू को ही सम्बोधित करना जारी रखा। अँगूठे समेत, हाथ की सारी उँगलियों के पोर एक जगह मिलाकर उसने नोंक-सी बनाई और उत्तेजित आवाज में उसे समझाता हुआ बोला, “जेब में घुसते समय हाथ यों था…” फिर सारी उँगलियों को मुट्ठी की मुद्रा में लाकर बताया, “और माल को जकड़ लेने के बाद हाथ यों हो गया।”
“हाँ…ऽ…” बात को समझ लेने के बाद शिब्बू के कंठ से निकला, “फिर क्या हुआ?”
“हालत ये हो गयी कि माल को छोड़ दूँ और जान बचाऊँ; या जान की बाजी लगाकर माल को खींच ले जाऊँ!” टुइयाँ बोला।                                                                            
“ठीक।”
“क्या ठीक?” उसने तुरन्त सवाल किया।
“यही कि तू दोराहे पर जा खड़ा हुआ।” एकाएक ऐसा सवाल सुन शिब्बू सकपकाकर बोला।
“दोराहे पर नहीं पंडज्जी, चौराहे पर।” वह बोला, “हाथ में आए माल को छोड़ना इतना आसान होता है क्या? आदमी वो शय है जो चमड़ी उतरवा लेगा लेकिन हाथ में आई हुई दमड़ी को नहीं छोड़ेगा।”
“तब, क्या किया तूने?” इस बार नत्थी ने पूछा।
“कुछ समझ में नहीं आ रहा था, सो जेब में फँसे हाथ को लेकर चलता रहा ताऊ के बराबर-बराबर।”
“भरी पेंठ में?”
“हाँ जी, भरी पेंठ में।” टुइयाँ गर्व के साथ ऐसे बोला जैसे उसने वह कारनामा कर दिखाया हो जो बड़े से बड़ा गिरहकट भी नहीं दिखा सकता था।
“आखिर में हुआ क्या?” किशन ने पूछा, “हाथ जेब से माल समेत निकला या खाली निकालना पड़ा?”
“भाई, ” किशन के सवाल पर टुइयाँ गहरी साँस लेकर बोला, “माल तो जेब में छोड़ देना पड़ा; लेकिन हाथ खाली नहीं निकला।”
इस पहेली ने वहाँ बैठे शिब्बू, शिब्बा, किशन, रम्मा, नत्थी, तिल्लोकी, सुरेश सभी के दिमाग को चकरा दिया। रम्मा से बिना पूछे रहा नहीं गया; सो पूछ बैठा, “यह उलट बाँसी तो समझ में नहीं आई रे टुइयाँ। ऐसा कैसे हो सकता है कि मुट्ठी में जकड़ा हुआ माल जहाँ का तहाँ छोड़ दिया जाए और हाथ भरा हुआ निकले ?”
“नहीं हो सकता; लेकिन हुआ।”
“सो कैसे?”
“सो ऐसे...” टुइयाँ बताने लगा, “कि चलते-चलाते, सिर पर पीछे से किसी ने एक चपत लगाई। मैंने गरदन घुमाकर देखा। एक ताई थी। उसे देखकर मैं घबरा-सा गया। समझ नहीं सका एकदम-से कि क्या करूँ? तभी, ताई ने ताऊ की जेब में फँसे मेरे हाथ की ओर उँगली दिखाकर इशारे में ही कहा कि मैं उसे निकाल लूँ। घबराकर मैंने मुट्ठी में जकड़ रखी ताऊ की पोटली छोड़ दी और हाथ को जेब से बाहर निकाल लिया। उसके बाद ताई ने मेरा हाथ पकड़ा और घसीटती हुई भीड़ से बाहर ले गयी।”
“पुलिस वाली थी?” इस बार शिब्बू ने पूछा।
“पंडज्जी, पैदल हो पूरी तरह। हमने तो मान रखा है, तुम भी मान ही लो।” उसका यह सवाल सुनते ही टुइयाँ खीझकर बोला।
“लो सुन लो, ” शिब्बू इस बार भड़क उठा, “गलत क्या पूछ लिया?”
“भैय्या…ऽ…”  टुइयाँ शिब्बू की अक्ल पर अफसोस जताता-सा बोला, “पुलिस वाली होती तो जेब से हाथ निकालने का इशारा क्यों करती? रंगे हाथ ना पकड़ती बीच पेंठ में?” फिर बाकी सब से पूछ बैठा, “है कि नहीं?”
“बिल्कुल।” सब के मुँह से एक साथ निकला।
शिब्बू शतरंज के मात खाए बादशाह-सा चुप बैठा रह गया।                          
“भीड़ के बीच से निकालकर ताई एक खाली-सी जगह देखकर उकड़ू बैठ गयी।” टुइयाँ आगे बताने लगा,  “मेरे दोनों हाथ उसने अपनी बायीं मुट्ठी में जकड़ लिए; फिर धमकाते हुए बोली, “किसने सिखाया रे जेब काटना? माँ ने?”
मुझे उसका ऐसा कहना बहुत बुरा लगा; लेकिन कुछ न बोल सका। डरा-सहमा धीमे से बोला, “माँ नहीं है।”
“तभी तो...” उसके मुँह से निकला।
“फिर?” इस बार सुरेश और सुभाष ने एक साथ पूछा।
“फिर एक चवन्नी उसने मेरी हथेली पर रखी, ” टुइयाँ बोला, “कहा—ले, चना-चबेना कुछ खा लेना। पर, यह सब छोड़कर कोई ऐसा करतब सीख कि अपनी जेब से निकालकर लोग मुँहमाँगी रकम खुद तेरी ओर बढ़ाने लगें, तुझे इस तरह किसी की जेब में अपना हाथ न डालना पड़े। बड़ी तकलीफभरी आवाज में उसने कहा—चोरी-छिनाली करने वाले बच्चों के माँ-बाप जीते-जी नरक में पड़ जाते हैं बेटे ! मरने वाली पर ऊपर क्या बीत रही होगी, तू खुद सोच।”
इस बार किसी ने कोई सवाल नहीं किया। सब बुत बने उसी के बोलने का इंतजार करते रहे।
“फिर उसने मेरे हाथ छोड़ दिये और खड़ी होकर भीड़ में गुम हो गयी। कुछ देर की खामोशी के बाद टुइयाँ बोला और चुप बैठ गया। चारों ओर खामोशी पसर गयी।  
“बस?” उस खामोशी को तोड़ते हुए किशन ने सवाल किया।
“अभी है।उसके सवाल पर टुइयाँ उदास आवाज में बोला, “अम्मा के मरने के समय बहुत छोटा था मैं। याद नहीं है कि वह दिखती कैसी थी; लेकिन उस ताई की झिड़की सुनकर अम्मा का दुखभरा चेहरा आँखों के आगे घूम गया।” फिर बैठे-बैठे  ही उसने दायीं टाँग को लम्बी फैलाकर अपने पाजामे की जेब में हाथ डाला। उसमें से कुछ चीज निकाली और टप् से उन सब के बीच जमीन पर टिकाकर बोला, “...ये है वो चवन्नी।”
काफी देर तक वे बीचों-बीच रखी उस चवन्नी को ताकते बैठे रहे। एकाएक रम्मा उससे पूछ बैठा, “हमें क्यों दिखा रहा है इसे?”
“इसलिए कि सिर्फ चवन्नी नहीं है ये !” इस सवाल पर टुइयाँ लगभग तड़पकर बोल उठा, “ध्यान से देखो— सिर्फ चवन्नी नहीं है ये।”
“क्या है?” रम्मा ने उपहासभरे अंदाज में पूछा।
“आसिरवाद है मैया का।” टुइयाँ ने कहा, “आसिरवाद, जो ताई बनकर वो हमें दे गई है।”  फिर ऊपर की ओर हाथ जोड़कर बोला, “पीपल बाबा !  आज से…आज क्या अभी से, उठाईगीरी और जेबतरासी के धन्धे पर—थू ! कल सुबह से मोहन के साथ मेहनत सुरू । न करूँ तो आप पर बसने वाले सभी प्रेत पटक-पटककर मुझे मार डालें।”
उसकी यह बात सुन सबकी गरदनें पीपल के घटाटोप की ओर उठ गयीं।
“पीपल बाबा ! …बिगड़ा हुआ यह प्रेत आज इन्सान बनने की कसम खा रहा  है, ध्यान रखना।” नत्थी के मुँह से निकला। उन सब में वही सबसे ज्यादा उम्र का था। टुइयाँ ने उसकी बात जैसे सुनी ही नहीं। अपनी बात कहकर उसने जमीन पर रखी चवन्नी उठा ली। बारी-बारी दायीं-बायीं दोनों आँखों से उसे लगाया, चूमा और उठ खड़ा हुआ।

               एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
                                                                                                     मोबाइल : 8826499115
                                                                                                                                                                                                                             
                                                                                                                                                                Lamhi Oct-Dec 2016/3060/13-7-2016


कोई टिप्पणी नहीं: