बुधवार, नवंबर 29, 2017

हत्या एक रक्तपायी की / बलराम अग्रवाल

अपने-आप को अचानक मैंने एक दिव्य-स्थान पर खड़ा पाया। यह कौन-सी जगह हो सकती है?—सोचते हुए मैंने इधर-उधर देखा। मेरे सिर के आसपास पिनपिना रहे एक अदद मच्छर के अलावा वहाँ मुझे कोई और नज़र नहीं आया। ऐसी दिव्य जगह पर मच्छर! मेरे भीतर एक आश्चर्य-सा सवाल बनकर उभरा। फिर तुरन्त ही समाधान भी आया—दुष्ट-आत्माएँ कभी-भी और कहीं-भी प्रकट हो सकती हैं।
‘‘सुनो मानव, इस मशक का आरोप है कि तुमने अकारण ही इसकी हत्या की है।’’ एकाएक एक दिव्य-स्वर मेरे कानों में पड़ा। मैं भौंचक-सा इधर-उधर देखने लगा। मानव! मशक! ...ओह! यह पृथ्वीलोक नहीं है—मेरे मन ने कहा—परलोक है शायद।
‘‘उत्तर दो।’’ दिव्य-स्वर ने आदेश दिया।
‘‘क्या उत्तर दूँ?’’ मेरे अन्तर के पता नहीं किस कोने से स्वर फूटा, ‘‘अब तक के जीवन में पता नहीं कितने खटमलों और मच्छरों ने मेरा लहू पिया है। उनमें से ज्यादातर का तो मुझे पता तक न चला। जिनका पता चला, उनमें-से भी ज्यादातर का मैं कुछ बिगाड़ ही न सका। जिन पर मेरा वश चला, वे ही मारे जा सके, बस। आप ही बताइए, कि इनके लिए मेरा लहू पीना अनुचित नहीं था तो मेरे लिए इनको मार डालना क्यों अनुचित है?’’
‘‘लेकिन परमपिता, मैं तो उड़ान से थककर इसकी बाँह पर बैठा भर था।’’ तभी मच्छर की ओर से आवाज़ आई, ‘‘खून तो मैं किसी और का पीकर आया था। इसने अकारण ही मसल डाला मुझ निरपराध को।’’
अजीब बात है! दूसरों के लहू पर जीने वाला जीव अपनी हत्या पर हाय-तौबा मचा रहा है! लहू तो मेरा पिया जाता रहा है। अपील तो मेरी ओर से दाखिल होनी चाहिए थी। मेरे भीतर तूफान उठता रहा, उठता रहा। ‘‘बड़ा अच्छा बहाना है।’’ मेरे अन्तर ने बोलना शुरू किया, ‘‘और, ये रक्तपायी निरपराध भी होने लगे? क्षमा करें महाप्रभु, इसकी हत्या करने का मुझे कोई अफसोस नहीं है।’’
‘‘बड़े गंदे हो, छिः!’’ उसी दौरान भोजन की थाली को मेज पर रख चुकी पत्नी की सड़ी-सी आवाज ने मेरी तन्द्रा को भंग किया। बोली, ‘‘बाँह पर मच्छर को मारकर इतनी देर से खून को तके जा रहे हो। घिन नहीं आती?’’

‘‘आती थी...!’’ बाँह पर जम गए उसके रक्त को धोने के लिए उठते हुए मैंने कहा, ‘‘लेकिन, आनी नहीं चाहिए थी।’’                                      ⧭⧭⧭

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