भले ही उसने ‘शराब न पी रखी हो, लेकिन हाव-भाव से वह नशे में ही नजर आ रहा था। आँखें बाहर को उबली पड़ रही थीं। चेहरे पर तनाव था और शरीर में कम्पन। सभा-भवन में घुसते ही वह चिल्लाया—“ओए…,तुम में दिल्ली से आया हुआ कौन-कौन है?”
हालाँकि वह खाली हाथ था। न कोई पिस्तौल, न चाकू-छुरा, न डण्डा-लाठी। लेकिन उसकी आवाज़ बेहद धारदार थी। सभा-भवन में मौजूद हर शख्स का चेहरा उसकी ओर घूम गया। बातचीत पर विराम लग गया। सन्नाटा छा गया।
एक जगह खड़े होकर उसने भीतर बैठे समस्त प्रतिनिधियों पर अपनी उबाल-खायी आँखें दौड़ायीं, जैसेकि दिल्ली से आने वाले प्रतिनिधियों को वह देखते ही पहचान लेगा और घसीटकर बाहर फेंक देगा।
बदतमीजी और दादागीरी से लबालब थी उसकी यह हरकत। वहाँ मौजूद करीब-करीब हर आदमी का चेहरा तमतमा उठा। संयोजकों में से एक ने हालात की नाजुकता को भाँप लिया। वह फुर्ती-से उठा और पास जाकर संयत स्वर में उससे पूछा,“क्या हुआ कामरेड!…किस दिल्ली वाले को ढूढ़ रहे हैं आप?”
“किसी खास को नहीं…सभी को।” वह बोला,“जो-जो भी दिल्ली से आया है, उसे बाहर निकालो इस हॉल से…।”
“आखिर हुआ क्या?” इस बीच एक अन्य संयोजक ने वहाँ पहुँचकर पूछा,“किसी दिल्ली वाले ने कुछ उलट-सुलट कर दिया क्या?”
“इस मीटिंग को अगर सफल बनाना है कामरेड, तो दिल्ली से आए हर आदमी को यहाँ से बाहर करना ही होगा।” वह बोला।
“लेकिन क्यों कामरेड!…आखिर बात क्या है?”
“दिल्ली का आदमी…” वह किंचित उत्तेजित आवाज में बोला,“सभा के बीच में बैठकर लफ्जों की मिसाइलें तो दाग सकता है, लेकिन मैदान में कदम से कदम और कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चल सकता…।”
संयोजक चुपचाप उसकी दलील को सुनते रहे।
“लफ्जों के लुभावने जाल से अपनी मीटिंग और आन्दोलन को बचाना है…उसे ठोस रूप देना है, तो दिल्ली की हवा से इसे दूर रखना होगा कामरेड!” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह निर्णायक अन्दाज़ में प्रतिनिधियों से बोला; फिर देश के हर प्रांत से आए, हॉल में बैठे प्रतिनिधियों पर चीखा,“सुना नहीं क्या? …दिल्ली से जो-जो भी आया है, बाहर निकल जाओ…!”