फोटो:आदित्य अग्रवाल |
“जरूरत नहीं पड़ी कभी।” उसके इस सवाल पर लड़के ने स्थिर अंदाज में उत्तर दिया।
“क्यों?” उसने पूछा।
“पूर्वजन्मों के सत्कर्मों के बल पर हर बार ब्राह्मणों के परिवार में जन्म लेता हूँ सेठ। इसी से वाणी को इतना सत्व मिला है कि बिना पढ़े भी मुख से निकला हर शब्द श्लोक है।” जड़-विश्वास से भरे स्वर में वह बोला।
“यह किसने बताया तुम्हें?”
“बताने की जरूरत ही कुछ नहीं है। ब्रह्मवेत्ता पूर्वजों का वंशज होने के नाते इतना ज्ञान तो स्वत: ही प्राप्त है।” वह बोला।
“आत्मज्ञानी होकर भीख माँगते हो, शर्म नहीं आती?”
“परमारथ के कारने साधुन धर्या सरीर।” इस पर वह त्रिपुण्डधारी दर्पपूर्वक बोला,“नीची जातियों में जन्मे मनुष्यों को इस और उस दोनों लोकों में सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दे सकने वाली जाति में पैदा हुआ हूँ। पेट पालने के लिए इस उपकार के बदले थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा लेने में शर्म कैसी?”
उसे लगा कि इस मूर्ख के पास वह अगर दो पल भी और रुका तो रक्तचाप बहुत बढ़ जाएगा।
“है कुछ देने और आशीर्वचन लेने की नीयत?”
“शटा…ऽ…प!” बाढ़ का पानी जैसे बाँध को तोड़कर फूट पड़ता है, वैसे ही वह चिल्लाया और बामुश्किल ही अपनी हथेली को झापड़ बनने से रोक पाया।