बुधवार, अप्रैल 30, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की इक्कीसवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                     (इक्कीसवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘चमोली तो जिला है न दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘हाँ बेटे,’’ दादाजी बोले,‘‘लेकिन कुछ अजीब तरह से।’’
‘‘सो कैसे?’’
‘‘सो ऐसे कि चमोली नामभर को ही जिला रह गया है। इसके सारे के सारे प्रशासनिक मुख्यालय ऊपर गोपेश्वर में ही हैं।’’
‘‘तो चमोली में कुछ नहीं है क्या?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘है। बाजार है। जिला जेल है और… अलकनन्दा का पावन किनारा है।’’
‘‘दीदी!’’ निक्की अचानक एक बार पुन: चहका।
‘‘क्या!!’’ मणिका ने टैक्सी की विंडो से बाहर झाँकते हुए पूछा।
‘‘उधर देख, ऊपर। कितने छोटेछोटे घर!’’
‘‘ओह दादाजी, कितने छोटेछोटे घर, देखिए।’’ एक पहाड़ी पर ऊपर की ओर उँगली से दशारा करती हुई मणिका भी चहकी।
‘‘इसका मतलब है कि इस समय हम चमोली के निकट ही हैं।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘आपने कैसे जाना?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘आप लोग जिन्हें छोटेछोटे मकान कह रहे हैं वह चमोली से गोपेश्वर की ओर जाते हुए रास्ते की एक पहाड़ी पर बसा गाँव हैनेग्वाड़।’’ दादाजी बोले,‘‘अपनी जवानी के दिनों में, तुम्हारे डैडी जब तुमसे भी कम उम्र के और बुआजी मणिका जितनी थीं, तब हम लोग उस नेग्वाड़ में ही किराए का एक मकान लेकर रहते थे।’’
‘‘अच्छा! और चाचाजी कितने बड़े थे?’’
‘‘चाचाजी तब तक पैदा नहीं हुए थे। मकान की बालकनी में बैठकर हम लोग महिमामयी इस अलकनन्दा से पैदा होकर आसमान की ओर उठते बादलों को देखने का आनन्द लूटा करते थे।’’ दादाजी अतीत को याद कर उठे,‘‘दू…ऽ…र पहाड़ों के पीछे से त्रिशूल की बर्फीली शिखा दिखाई देती थी। कभी लाल, कभी पीली तो कभी हंस के परोंसी सफेद। जिस तरह इस जगह से उन छोटे मकानों को देखकर तुम खुश हो रहे हो, उसी तरह उस बालकनी में बैठकर इस सड़क पर दौड़ने वाली बसें और कारें हमको खिलौनोंसी दिखाई देती थीं। संसारभर में कुछ गिनेचुने भाग्यशालियों को ही यह सब देखने का सुख मिलता है बेटे।’’
बच्चे विस्मयपूर्वक एक बार फिर जादूनगरीजैसे उस गाँव और उसके उन प्यारेप्यारे मकानों को देखने लगे।
दादाजी ने टैक्सी को चमोली में भी कुछ देर के लिए रुकवाया। उसके बाद वे आगे बढ़े।
‘‘सही माने में तो हमारी बदरीनाथ यात्रा अब शुरू होती है।’’ टैक्सी के चमोली से चलते ही दादाजी ने कहा,‘‘अब सबसे पहले हम पीपलकोटी पहुँचेंगे।’’
दादाजी की इस बात पर बच्चों ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस समय वे जैसे किसी स्वप्नलोक की सैर कर रहे थे। अभी, कुछ देर पहले उन्होंने वह परीलोक देखा था, जहाँ उनके पूज्य दादादादी और डैडी के सुनहरे दिन गुजरे थे। काश, उनके पास समय होता और वे नेग्वाड़ के उसी मकान की उसी बालकनी में कुछ दिन बिता पाते । नीचे फैले पड़े चमोली के कैनवास पर बहती अलकनन्दा के निर्मल जल से उठते बादलों को चारों ओर दूरदूर तक सिर उठाए खड़े पर्वतों को और उनके पीछे बर्फ का ताज सिर पर बाँधे खड़े त्रिशूल को देख पाते। देख पाते कि सूर्य की गति के साथसाथ उसका हिममुकुट किस तरह हर पल रंग बदलकर अपनी छटा बिखेरता है।
टैक्सी से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों और दादाजी के अतीत की कल्पनाओं ने मणिका और निक्की के मन में एक अनोखा ही चित्र खींच दिया। टैक्सी दौड़ती रही और बच्चे चुपचाप बैठे बाहर की दुनिया को देखते रहे। पीपलकोटी, गरुड़गंगा सब पीछे छूट गए और टैक्सी जोशीमठ पहुँच गई।
‘‘जोशीमठ वह जगह है बेटे, जहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे आदिशंकराचार्य को दिव्यज्योति के दर्शन हुए थे। इसी कारण उन्होंने इस स्थान को ज्योतिर्मठनाम दिया जो बिगड़कर अब जोशीमठ हो गया है।’’ दादाजी काफी देर बाद पुन% बोले तो बच्चे जैसे तन्द्रा से जाग उठे।
‘‘यह तो बेहद खूबसूरत नगर है दादाजी।’’ मणिका बोली।
‘‘यह सच है बेटे । जोशीमठ को गढ़वाल का हर दृष्टि से सुन्दर नगरक्षेत्र माना जा सकता है। इससे कुछ ही दूर औलीनाम का बुग्याल है।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘बुग्याल क्या होता है?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘बुग्याल…सही बात तो यह है कि बुग्याल का अर्थ बताने वाला कोई एक शब्द हिन्दी में नहीं है।’’ दादाजी बताने लगे,‘‘शब्दकोश में देखोगे तो बुग्याल का अर्थ चरागाह लिखा मिलेगा। परन्तु चरागाह इसके अर्थ को पूरी गहराई के साथ ध्वनित नहीं कर पाता है। फिर भी, तुम लोग इसे इस तरह समझ सकते हो कि विशेष प्रकार की अपेक्षाकृत मोटी पत्तियोंवाली घास के मैदान सर्दी के मौसम में बर्फ की मोटी तह से ढँक जाते हैं। महीनों बर्फ में दबी रहने के कारण वह घास बेहद मुलायम और घनी गद्देदार हो जाती है। इतनी गद्देदार कि बहुत ऊपर से भी इस पर कूदो तो चोट न लगे। गर्मी के मौसम में बर्फ की परत पिघलकर बह जाती है और घास की मोटी तह वाला बुग्याल उभर आता है। औलीजैसे बड़े बुग्याल बहुतकम पहाड़ों पर मिलते हैं। यहाँ पिछले कई सालों से सर्दी के मौसम में स्कीइंग आदि के प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं। जिसमें कई देशों के प्रशिक्षार्थी भाग लेते हैं।’’
‘‘तब तो जोशीमठ को एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटनस्थल माना जाना चाहिए दादाजी।’’ मणिका बोली।
‘‘इतनी ही बात नहीं है।’’ दादाजी ने बताया,‘‘जोशीमठ धार्मिक दृष्टि से भी अच्छा और महत्वपूर्ण नगर है। नरसिंह भगवान का यहाँ पर बेहद प्राचीन मन्दिर है। सर्दी के मौसम में जब बदरीनाथ का सारा क्षेत्र बर्फ से ढँक जाता है, मन्दिर के कपाट भी बन्द कर दिए जाते है, तब यहाँ, जोशीमठ में ही, भगवान बदरी विशाल की आरती उतारी जाती है। उस दौरान बदरीनाथ कमेटी के सारे पदाधिकारी भी यहीं रहते हैं।’’
जोशीमठ के बाद बदरीनाथ तक का रास्ता या तो निरा ढलान है या निरा उठान, बीचबीच में बस्तियाँ और खेत हैं। लेकिन पीछे देखे जा चुके पहाड़ों के मुकाबले कम और दूरदूर। इसलिए प्रकृति की सुरम्यता और रमणीयता का आनन्द विशेष रूप से अब ही आना प्रारम्भ होता है। बच्चे इस सारे आनन्द से अभिभूत थे। इससे पहले हालाँकि वे महामाता वैष्णोदेवी के दर्शनों के लिए जम्मू से कटरा तक पहाड़ों के बीच से गुजर चुके थे लेकिन उस यात्रा से कहीं अधिक आनन्द और रोमांच का अनुभव वे इस यात्रा में कर रहे थे।
‘‘यह विष्णुप्रयाग है।’’ काफी देर बाद बस जब एक छोटे पुल पर से गुजरने लगी तो दादाजी ने बताया,‘‘नारद जी ने यहाँ पर भी भगवान विष्णु की आराधना की थी। यह धौली गंगा और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’
बस इस समय किसी सँकरी गलीजैसे रास्ते से गुजर रही थी। दोनों तरफ बेहद ऊँची पहाड़ियाँ और बीच में एक गहरी दरार के तल पर जूँ की तरह रेंगती हुई बसें और कारें। एकदम ऐसा रास्ता, जैसे किसी ऊँचे केक के बीच से एक पतली फाँक पूरी गहराई तक काटकर अलग निकाल दी गई हो। विष्णुप्रयाग के बाद टैक्सी गोविन्दघाट पहुँचकर रुकी। पहले से ही वहाँ खड़ी कुछेक बसों और अन्य यात्री वाहनों से उतरे सभी श्रद्धालु यात्रियों के साथसाथ दादाजी, ममता, सुधाकर, मणिका और निक्की ने भी यहाँ स्थित एक सुन्दर राम मन्दिर में मत्था टेका।
आगामी अंक में जारी

रविवार, अप्रैल 20, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की बीसवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                        (बीसवीं कड़ी)
                                               चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘आप कर्ण की तपस्या के बारे में बता रहे थे न दादाजी।’’ विकास ने याद दिलाया।
‘‘हाँ। कहते हैं कि कर्ण के शरीर पर जन्म से ही एक दिव्य कवचथा और उसके दोनों कानों में भी दिव्य कुण्डलजन्म से ही थे। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इसी क्षेत्र में सूर्यदेव ने उसे कभी भी खाली न होने वाला एक तरकश यानी अक्षय तूणीरभी उसे दिया था। इन तीन चीजों का स्वामी होने के कारण वह अपने समय का अजेय योद्धा था। इसके बावजूद भी वह दानप्रिय व्यक्ति था। कहते हैं कि कर्ण के दरवाजे से कोई भी याचक कभी खाली हाथ वापिस नहीं गया। उसके इसी गुण का लाभ भगवान् कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय उठाया था। उन्होंने एक दिन याचक के वेश में इन्द्र को उस समय कर्ण के सामने भेज दिया जब वह गंगानदी में खड़ा होकर संध्याउपासना कर रहा था। इन्द्र ने दान में उससे उसके कवच और कुण्डल माँग लिए। ऐसी अद्भुत माँग सुनकर कर्ण समझ गया कि इस समय कोई साधारण याचक नहीं, स्वयं इन्द्र उसके सामने खड़े हैं। उसने कहाभगवन्, मैं जान गया हूँ कि आप साधारण याचक के वेश में स्वयं देवराज इन्द्र हैं और अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए मेरे शरीर से कवच और कुण्डल उतरवाने के उद्देश्य से यहाँ आए हैं। फिर भी, मैं आपको निराश नहीं करूँगा। यों कहकर उसने अपने जन्मजात कवच और कुण्डल उतारकर इन्द्र को दान कर दिए। ऐसे महादानी कर्ण का मन्दिर, कर्णशाला और कर्णकुण्ड अभी भी पिंडर नदी के किनारे पर कर्णप्रयाग में स्थित हैं।’’
‘‘सारे महापुरुष इसी इलाके में तपस्या क्यों करते थे दादाजी?’’
‘‘सारा हिमालय क्षेत्र तपस्वियों और संन्यासियों का क्षेत्र रहा है। यह क्षेत्र भी हिमालय की ही पर्वतश्रृंखला है। देवता तक यहाँ विचरण के लिए आते हैं। इसी कारण इसे देवभूमि और स्वर्गभूमि भी कहा जाता है।’’
‘‘कर्णप्रयाग में देखनेसुनने लायक और क्याक्या है?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘बहुतकुछ है…लेकिन कर्णप्रयाग का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यहाँ केवल नदियों का नहीं, रास्तों का भी संगम होता है। कुमाऊँ के जिलों यानी अल्मोड़ा, रानीखेत, हल्द्वानी और नैनीताल आदि को गढ़वाल से जोड़ने वाला यह प्रमुख स्थान है। यहीं से हम नन्दादेवीधाम, आदिबदरी और रूपकुण्ड जैसी विश्वप्रसिद्ध जगहों के लिए भी जा सकते हैं।’’
‘‘रूपकुण्ड में क्या है दादाजी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘प्राकृतिक सुषमा से प्रेम करने वालों के लिए रूपकुण्ड विशेष आकर्षण की जगह है। सागरतल से उसकी ऊँचाई करीब पन्द्रह हजार फुट है और गहराई!…उसका तो आज तक पता ही नहीं है। प्रकृति के प्रेमी वहाँ पहुँचकर अपनाआपा भूलकर उसी जगह के हो जाते हैं। संसारभर में ऐसे मनभावन स्थान गिनेचुने ही हैं। उसके पास ही बर्फ की एक नदी बहती है। चारों तरफ बर्फ से ढँकी ऊँची चोटियाँ हैं। एक तरफ त्रिशूली यानी तीन चोटियोंवाला पूरे वर्ष बर्फ से ढँका रहनेवाला पर्वत। उसकी गिनती हिमालय की ऊँची चोटियों वाले अनेक पर्वतों में होती है। अगर सही कहा जाय तो उस त्रिशूल पर्वत के नीचे ही रूपकुण्ड स्थित है। त्रिशूल से निकलने वाली जलधारा नन्दाकिनीनदी के नाम से जानी जाती है।
कर्णप्रयाग बातोंबातों में पीछे छूट गया था। टैक्सी को हालाँकि कुछ खरीदने के लिए अल्ताफ ने वहाँ थोड़ी देर के लिए रोका भी था। लेकिन बाहर के खुशनुमा दृश्यों और दादाजी द्वारा सुनाई जा रही रोचक व ज्ञानवर्द्धक कथाओं में बच्चे कुछ इस कदर तल्लीन थे कि कौनसी जगह कब पीछे छूट गई, उन्हें कुछ पता ही नहीं चल रहा था।
लम्बी और महत्वपूर्ण यात्राओं में एक आदमी अगर सम्बन्धित स्थानों की जानकारी देनेवाला साथ में हो तो यात्रा का आनन्द असीम हो जाता है। यात्रा की इस जरूरत से ही शायद गाइडों का चलन शुरू हुआ होगा।
‘‘आप तो चुप बैठ गए दादाजी।’’ अल्ताफ ने जब टैक्सी को एक जगह अचानक ब्रेक लगाए तो उससे उत्पन्न झटके से ध्यान भंग होने पर निक्की ने कहा।
‘‘आप लोग भी तो चुप थे!’’ दादाजी मुस्कराए।
‘‘तो क्या हुआ, आप बताते रहिए न!’’ मणिका बोली।
‘‘यह खूब रही! आप सब तो बाहर प्रकृति का मज़ा लेते रहें और मैं कुछ न देखँ!…बकझक किए जाऊँ!!’’
‘‘अपने बच्चों को ज्ञान की बातें बताने को बकझककैसे कह सकते हैं आप?’’ मणिका ने निक्की का पक्ष लेते हुए दादाजी को टोका।
‘‘अच्छा बाबा, ठीक है।’’ उसके इस तर्क के आगे हार ही गए दादाजी,‘‘सुनो, अब हमारी टैक्सी नन्दप्रयाग पहुँचेगी।’’
‘‘इसको भगवान कृष्ण के नन्दबाबा ने बसाया होगा।’’ निक्की तुरन्त बोला,‘‘या फिर यहाँ पर उन्होंने तपस्या की होगी।’’
‘‘नहीं।’’ दादाजी मुस्कराकर बोले,‘‘तुक्का हर जगह फिट बैठ जाए, जरूरी नहीं है। पीछे मैंने त्रिशूल पर्वत और रूपकुण्ड की बात बताई थी।’’
‘‘जी दादाजी।’’
‘‘त्रिशूल से निकलने वाली नन्दाकिनी नदी के बारे में भी बताया था।’’
‘‘जी।’’
‘‘उस नन्दाकिनी और अलकनन्दा के संगम पर ही यह नन्दप्रयाग बसा है।’’
‘‘दीदी,’’ अचानक निक्की चिल्लाया,‘‘उधर…वहाँ देखपीला पहाड़!’’
‘‘अरे वाह!!’’ पीला पहाड़ देखकर मणिका पुलकित स्वर में चीखसी उठी।
‘‘ऐसे बहुतसे पहाड़ तुमको आगे भी नजर आएँगे।’’ दादाजी बताने लगे,‘‘दरअसल घास के साथ ही किसीकिसी पहाड़ पर एकाध पौधा गेंदा का भी उग आता है। कच्चे फूलों को तोड़ने के लिए कोई चढ़ता तो है नहीं पहाड़ पर। इसलिए पक जाने पर उनकी पंखुड़ियाँ वहीं पर झर जाती हैं और अनुकूल मौसम आने पर अंकुरित होकर अनेक पौधे बन जाती हैं जिन पर पहले की तुलना में कई गुना फूल खिलते हैं । इस तरह खिलते, पकते, झरते और अंकुरित होकर बढ़तेबढ़ते दोतीन सालों में फूलों के ये पौधे पूरी पहाड़ी पर छा जाते हैं। यह सामने वाला पहाड़ भी गैंदे के फूलों से लदाफदा है।’’
दादाजी के मुख से यह तर्कपूर्ण रहस्योद्घाटन सुनकर बच्चों के साथसाथ ममता और सुधाकर भी उत्सुकतापूर्वक अन्य ऐसी पहाड़ियाँ तलाशने को निगाहें चारों ओर घुमाने लगे। नन्दप्रयाग अब आने ही वाला था।
‘‘नन्दप्रयाग के निकट ही दसौली गाँव पड़ता है।’’ दादाजी ने आगे बताया,‘‘कहते हैं कि लंका के राजा रावण ने इसी जगह पर शंकर भगवान को प्रसन्न करके दस सिर पाए थे। बस, तभी से इस जगह का नाम दसौली पड़ गया।’’
बातें करते, पहाड़ों की नैसर्गिक सुन्दरता का आनन्द लेते वे नन्दप्रयाग पहुँच गए। टैक्सी को एक ओर रुकवाकर सुधाकर ने ठण्डे पानी की बोतलें खरीदीं क्योंकि उनके पास जो पानी था वह काफी गर्म हो गया था। थोड़ाबहुत बच्चों को भी इधरउधर घुमाकर उन्होंने टैक्सी को आगे बढ़वाया।
‘‘नन्दप्रयाग के बाद अब चमोली आएगा।’’ दादाजी खुद ही बताने लगे,‘‘जिस तरह हम रुद्रप्रयाग से गौरीकुण्ड के रास्ते केदारनाथ को जा सकते हैं, उसी तरह चमोली भी केदारनाथ और बदरीनाथ को जाने वाले रास्तों का संगम है। चमोली से गोपेश्वर, ऊखीमठ आदि के रास्ते हम केदारनाथ पहुँच सकते हैं और पीपलकोटीजोशीमठ आदि के रास्ते से बदरीनाथ जाते हैं।’’
आगामी अंक में जारी

शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की उन्नीसवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                       (उन्नीसवीं कड़ी)
                                                               चित्र:बलराम अग्रवाल
बदरीनाथ की ओर जाने वाली पहली बस रुद्रप्रयाग से सुबह  पाँचसाढ़े पाँच बजे चल देती है। चलने से पहले बस का ड्राइवर  बारबार इतनी तेज़ हॉर्न बजाता है कि आसपास की इमारतों के मालिक और उनके बीवीबच्चे अपनेआप को कोसने लगते हैं कि उन्होंने क्यों इतनी गलत जगह पर मकान बनवा लिया? दादाजी की भी नींद खुल गई। उनके मन में एक बार तो यह विचार अवश्य आया कि बच्चों को भी जगा दें और बाहर का नज़ारा दिखाने को ले जाएँ लेकिन  अन्तत: उन्हें लगा कि बच्चों को सोने देना चाहिए अन्यथा दिन के समय वे टैक्सी में सोते हुए जाएँगे और यात्रा का पूरा मज़ा नहीं ले पाएँगे। यह सोचकर वे अकेले ही कमरे से बाहर निकले तो देखा कि विश्रामघर का मैनेजर भी तैयार होकर अपनी कुर्सी पर आ जमा है।
‘‘जय बद्री विशाल बाबूजी!’’ उन्हें देखकर मैनेजर ने अभिवादन किया।
‘‘जय बदरी विशाल भाई मैनेजर साहब!’’ उसकी मेज के सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए दादाजी ने उससे पूछा,‘‘इतनी जल्दी जाग जाते हो?’’
‘‘माताजीपिताजी ने बचपन से ही चार बजे जाग जाने की आदत डाल दी है बाबूजी…’’ मैनेजर ने कहा,‘‘नित्यकर्म से निबटकर सुबह पाँच बजे भगवान बद्रीनाथ को स्नान कराके, पुष्प अर्पित करते हैं और अगरधूप दिखाकर, प्रणाम करके जनता की सेवा के लिए इस कुर्सी पर बैठ जाते हैं।’’
‘‘अभी पाँच तो बजे भी नहीं हैं!’’ दादाजी ने घड़ी की ओर इशारा किया।
‘‘नहीं बजे हैं तो बज जाएँगे…’’ मैनेजर मुस्कराकर बोला। फिर पूछा,‘‘चाय लेंगे?’’
‘‘आसानी से मिल जाए तो ले लेंगे।’’
मैनेजर ने तुरन्त अपनी मेज पर रखे टेलीफोन का चोगा उठाया और कोई नम्बर डायल करके कहा,‘‘दो चाय इलायची वाली।’’
दस मिनट बाद ही कम उम्र की एक लड़की चाय से भरे काँच के दो गिलास लोहे के तारों से बने एक छीके में रखकर ले आई। मैनेजर ने छीके से निकालकर एक गिलास बाबूजी की ओर बढ़ाया और दूसरा अपने हाथ में लेकर उनसे बोला,‘‘शुरू कीजिए।’’
‘‘धन्यवाद।’’ बाबूजी ने कहा और चाय पीना शुरू कर दिया। काफी देर तक वे दोनों उत्तराखण्ड की संस्कृति पर बातें करते रहे। मैनेजर उत्तराखण्ड की संस्कृति सम्बन्धी दादाजी के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। उनकी यह मीटिंग तब समाप्त हुई जब जागने के बाद बाबूजी की आवाज़ सुनकर सुधाकर अपने कमरे से निकलकर इनके पास आ गए।

                                                                       चित्र:बलराम अग्रवाल
सुबह के सारे कर्म रुद्रप्रयाग में निबटाकर यह कारवाँ दसग्यारह बजे आगे की यात्रा पर चला।
‘‘दो नदियों के संगम को ही प्रयाग कहते हैं न दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘बिल्कुल सही।’’ दादाजी उसके सिर पर हाथ घुमाकर बोले,‘‘यह रुद्रप्रयाग भी मंदाकिनी और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’
‘‘बदरीनाथ यहाँ से कितनी दूर होगा?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘होगा करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर।’’
‘‘अब रुद्रप्रयाग के बाद कौनसी जगह आएगी?’’ टैक्सी ने नदी का पुल पार किया तो निक्की ने दूसरा सवाल किया।
‘‘घोलसिर।’’
‘‘और उसके बाद?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘उसके बाद आएगागौचर।’’ दादाजी ने बताया,‘‘यह भी तुमको एकदम प्लेन जैसा लगेगा। हर साल बालदिवस यानी 14 नवम्बर से यहाँ के मैदान में एक बड़ा मेला लगता है। दूरदूर के व्यापारी और मेला देखने के शौकीन लोग इस मेले में आते हैं।’’
बच्चे अब प्रकृति के सौंदर्य का आनन्द लेते हुए चुपचाप चलने लगे थे। तेज गति से बहती अलकनन्दा की धारा उनका मन मोह रही थी। धारा के बीच में पड़ी शिलाओं से टकराकर जल में लहरें पैदा होतीं और पीछे से आ रही लहरों की दौड़ में शामिल हो जातीं। कहीं किसी गहरे मोड़ पर अलकनन्दा यदि आँखों से ओझल हो जाती तो बच्चे बेचैन हो उठते। ऐसा अद्भुत खेल तो उन्होंने कभी सोचा भी न था। काश! टैक्सी चलती रहे, अलकनन्दा की धारा, ऊँचेऊँचे पर्वत और शुद्ध सफेद बादलों में बनतेबिगड़ते आकार दिखाई देते रहें तथा वे देखते रहें यों ही बस!
टैक्सी गौचर पहुँच गई। जैसाकि दादाजी ने बताया थागौचर में काफी बड़ा मैदान उन्हें नजर आया। यह नगर भी उनको श्रीनगरजैसा ही विकसित लगा।
‘‘यहाँ से चलकर हम कहाँ पहुँचते हैं दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘जहाँ के लिए चलते हैं वहीं।’’ दादाजी बोले।
‘‘ओह दादाजी, ठीकठीक बताइए न।’’
‘‘ठीकठीक बताने के लिए मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँकुन्ती कौन थी?’’
‘‘पाण्डवों की माँ।’’ निक्की तेजी से बोला।
‘‘कितने बेटे थे उनके?’’ दादाजी ने पुन: पूछा।
‘‘पाँच।’’ उसी तेजी के साथ निक्की पुन: बोला।
‘‘गलत।’’ मणिका बोली।
‘‘तुम बताओ।’’ दादाजी ने उससे पूछा।
‘‘तीन।’’ वह बोली,‘‘युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन।’’
‘‘शाबाश।’’ दादाजी ने उसकी पीठ थपथपाई।
‘‘नकुल और सहदेव भी तो थे दादाजी।’’ निक्की ने याद दिलाया।
‘‘चल बुद्धू, वे तो माद्री के बेटे थे।’’ मणिका बोली।
‘‘मणिका ठीक कहती है निक्की।’’ दादाजी ने उसे समझाया,‘‘महाराज पाण्डु की दो पत्नियाँ थींकुन्ती और माद्री। कुन्ती को बचपन से ही साधुओंसंन्यासियों की सेवा करने का शौक था। उसकी इस सेवा से प्रसन्न होकर एक संन्यासी ने उसे एक ऐसा मन्त्र सिखा दिया जिसे पढ़कर वह जिस देवता को चाहे अपने पास बुला सकती थी। कुन्ती बड़ी खुश हुई। संन्यासी के जाने के बाद उसने मन्त्र की शक्ति को जाँचने के लिए भगवान सूर्य का ध्यान करते हुए मन्त्र पढ़ा। सूर्यदेव तुरन्त उसके सामने प्रकट हो गए। बोलेजो कुछ चाहिए, माँग लो। उस समय बहुत कम उम्र थी कुन्ती की…नासमझ थी। घबराकर बोलीबेटा चाहिए । बस, सूर्य भगवान एक बच्चा उसकी गोद में रखकर अन्तर्धान हो गए। उनके जाने के बाद कुन्ती एकदम डर गई। सोचने लगीलोग क्या कहेंगे, एक कुँआरी कन्या के बेटा हो गया!! मन्त्र की बात पर तो कोई विश्वास करेगा नहीं। शर्म और बेइज्जती से बचने के लिए उसने एक टोकरी में उस बच्चे को अच्छी तरह से रखकर नदी में बहा दिया।’’
‘‘हाँ दादाजी,’’ निक्की इस बार फिर तेजी से बोल उठा,‘‘आपने एक बार पहले भी सुनाई थी यह कहानी। कुन्ती के उस बेटे का नाम कर्ण रखा गया था।’’
‘‘शाबाश!’’ प्रसन्न होकर अबकी बार दादाजी ने निक्की के सिर पर हाथ फिराया,‘‘बड़े होकर इस कर्ण ने सूर्य भगवान की कड़ी तपस्या की थी। जिस जगह पर रहकर उसने तपस्या की थी, गौचर के बाद हम वहीं पहुँचेंगेकर्णप्रयाग।’’
‘‘यह भी प्रयाग!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।
‘‘हाँ बेटे! ऋषिकेश की ओर से यात्रा शुरू करें तो देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, सोनप्रयाग, नन्दप्रयाग और विष्णुप्रयागबदरीनाथ यात्रा में उत्तराखंड के ये प्रमुख प्रयाग रास्ते में पड़ते हैं।’’ दादाजी बोले,‘‘ये सभी विभिन्न नदियों के संगम पर बसे हुए हैं। कर्णप्रयाग अलकनन्दा और पिंडर नदी के संगम पर बसा हुआ है।’’
आगामी अंक में जारी