सोमवार, मार्च 15, 2021

सुनो छोटी-सी गुड़िया की लम्बी कहानी…/ बलराम अग्रवाल

 ऐसे ही बैठे थे दोनों, कि हरीश ने कहा, “आज कोई बड़ी लघुकथा सुना यार। मन बहुत उदास है।”


उसकी बात सुनकर एक पल तो ललित सोचता रह गया—क्या सुनाऊँ ! लघुकथा भी कह रहा है और बड़ी भी! फिर एकाएक ध्यान आया और बोला, “सुन…”

“हूँ…” दोनों हथेलियाँ पीछे घास में टिकाकर बैठे हरीश ने सिर को पीछे गिरा लिया और एकाग्र मुद्रा में आँखें मूँद ली।

“ए रफीक भाई! सुनो... ” ललित ने लघुकथा सुनानी शुरू की, “उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही—एक लाजा है, वो बो.ऽ.ऽ.त गलीब है।”

“वाह…वाह-वा… वाह-वा !” हरीश उछल पड़ा। ललित उसका मुँह ताकता-सा बैठा रह गया।  

“यह तूने वाकई बहुत बड़ी लघुकथा आज सुनाई।” हरीश बोला, “दिल खुश कर दिया। किसकी है?”

“हद है यार!” ललित ने आश्चर्य व्यक्त किया, “मैं तो सोच रहा था कि…”

“क्या सोच रहा था?”

“यही कि…”

“भाई, इस रचना को बड़ी बनाने वाले एक नहीं, अनेक पद हैं।” उसके आश्चर्य को नजरअन्दाज कर हरीश ने बोलना शुरू किया, “पहला—‘ए रफीक भाई! सुनो…’ लगता है जैसे एक मजदूर दूसरे से सम्बोधित है। कौम का, बिरादरी का; ऊँच का, नीच का; अमीरी का, गरीबी का; दोनों के बीच कोई फासला है ही नहीं। दिली रिश्ते…नजदीकी भाईचारे वाला सम्बोधन। दूसरा—‘उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी…’ यह जो ‘मैं’ नाम का पात्र है, इसके उत्पादन के तीन स्तर हो सकते हैं—पहला यह कि बन्दा उद्योगपति हो, इण्डस्ट्रियलिस्ट हो। फैक्ट्री उम्मीद से ज्यादा माल उगल रही हो। ऐसे में नींद किसे आती है और थकान किसे होती है!  बस, खुमारी ही होती है। दूसरा यह कि वह किसान हो, ठेठ किसान…देसी। फसल बहुत अच्छी, सालों-साल के सपने पूरे करने वाली हुई हो, खलिहान लबालब हो बाहर को छलकने लगा हो। …और एक तीसरा पक्ष भी हो सकता है कि…लेखक का नाम तो बता!”

“तीसरा पक्ष क्या हो सकता है?” 

“यह कि बन्दा राजनेता हो…आजाद भारत में पैदा हुआ, पला-बढ़ा राजनेता। इलाके में अपने पक्ष में लहराने वाले झण्डों और जुलूसों, दीवारों पर चिपके पोस्टरों से उसकी तबीयत चकाचक हो…! उसका तो वही उत्पादन है…और उससे मिली खुशी ही खुमारी।”

“फिर उसकी बेटी ने यह क्यों कहा कि—वो बो.ऽ.ऽ.त गलीब है।”

“ठीक ही कहा। इस देश का पूँजीपति कितना गरीब है, नहीं जानते हो? सरकार भी उसके कटोरे में जब-तब अरब-खरब डालती ही रहती है। वह इतना गरीब है कि बस और रेल में बेचारा चल ही सकता। शक्की और इतना है कि सवारी के लिए हवाई जहाज भी उसे अपना ही चाहिए। चैन की नींद  उसे लन्दन या दुबई के अपने पाँच सितारा फ्लैट में ही आती है। यहाँ के एसी उसे दमघोंटू लगते हैं।…नाम नहीं बताया!”

“किसान?’’ ललित ने पूछा।           

“वह गरीब, देश को भरपूर फसल और सीमा को जवान बेटे, दोनों देता है;  और बदले में क्या पाता है? तारीफ के तौर पर सालभर में लाल किले की प्राचीर से अपने नाम का एक नारा। बाकी 364 दिन जलालत और आत्महत्या। ये कहते हैं कि आज़ादी से लेकर अब तक सिर्फ साढ़े तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है, सवा सौ करोड़ की आबादी में इतने लोग क्या माने रखते हैं?”

“और वो जो राजनेता वाली बात कह रहा था?”

“गरीबी का लम्पट रूप है वो। गरीबों को भावनात्मक रूप से लूटने और लूटते रहने वाले कपटी…”

“गिद्ध!”

“नहीं।” हरीश क्रोधित स्वर में बोला, “गिद्ध तो मरे जानवर को खाता है, ये साले जिन्दा आदमी को चबा रहे हैं! बेशर्म और कृतघ्न इनके चारित्रिक गुणगान के लिए बहुत छोटे शब्द हैं। तूने वाकई बड़ी…बहुत बड़ी लघुकथा सुनाई।”

“मै तो सोच रहा था कि तू वैसे बड़ी लघुकथा सुनने की गुजारिश कर रहा है…” ललित बोला, “सिर्फ 31 शब्दों की रचना सुनकर नाराज होगा मुझ पर।”

“नाराज तो होऊँगा बेटा, ” हरीश सीधा बैठकर हाथ झाड़ता हुआ बोला, “अगर तूने इस बार लेखक का नाम नहीं बताया तो थोबड़ा तोड़ डालूँगा।”

“रमेश बतरा।” ललित ने कहा और भावावेशवश उमड़ आए आँसुओं को रोकने की कोशिश करता-सा आँखें मूँद, कंठ को अवरुद्ध कर बैठ गया। (प्रकाशित : पाखी, दिसम्बर 2016)

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रविवार, अगस्त 11, 2019

कश्मीर / बलराम अग्रवाल


“आज बातचीत नहीं, एक कहानी सुनो ;
एक गाँव में दो मूरख रहते थे—हक्कन और फक्कन। दोनों के मकान अगल-बगल थे। बीच की दीवारें कुछ ऐसी कि मौका-बेमौका जब चाहतीं, ऊँची-नीची और सपाट होती रहतीं। हक्कन की माँ ने एक दिन उसे बताया—‘बेटा, फक्कन ने भी मेरे ही पेट से जनम लिया है। वह भाई है तेरा।... ’
यह बात उस मूरख ने फक्कन को जा बताई। फक्कन ने कहा—‘मैं बस पैदाइश में यकीन करता हूँ, माँ और बाप जैसे रिश्तों में नहीं। लेकिन उस औरत ने तुझे पूरी नहीं, अधूरी बात बताई।... उसने उस खिलौने के बारे में नहीं बताया जो पूरा का पूरा मुझे मिलना चाहिए था, लेकिन आधा उस तरफ ही रह गया।’
हक्कन ने यह बात माँ को जा बताई। माँ ने कहा, ‘बेटा, वह पैदा ही ‘मेरा हिस्सा’ ‘मेरा हिस्सा’ कहते हुआ था। यही कहते हुए उसने मकान के बगल वाले हिस्से पर कब्जा जमा लिया। यही कहते हुए उसने उस खिलौने को खींच ले जाने की कोशिश की जिसे उसके क्या, तेरे भी जनम से काफी पहले मैंने खुद इन्हीं हाथों से बनाया और सजाया-सँवारा था।’
हक्कन को जैसे ही फक्कन के कमजोर-तबियत होने और खिलौने से उसका सीधा वास्ता न होने की असलियत का पता चला, वह उसके हिस्से में पड़े खिलौने को पाने की जुगत में लग गया। हालत यह हो गयी कि दोनों भाई, जो अच्छे पड़ोसी बनकर रह सकते थे, दुश्मन की तरह रहने लगे। वे अब एक-दूसरे को कम, एक-दूसरे के हिस्से में पड़े खिलौने को ज्यादा देखने लगे। दोनों की हालत आज उन मुकदमेबाजों-जैसी है जो कई पुश्तों से वकीलों और मजिस्ट्रेटों के परिवारों को पाल रहे हैं और उनके खुद के परिवार भूखों मरने के कगार पर जा पहुँचे हैं।
(‘तैरती हैं पत्तियाँ’; 2019 से )

बाहरी आतंकवाद / बलराम अग्रवाल


धड़-धड़-धड़......धड़-धड़!
दरवाजे पर बुरी तरह थापें पड़ीं तो मैं उबाल-सा खा गया। कौन इस बदतमीजी से दरवाजे को पीट रहा है!
‘‘कौन है?’’ ब्लड-प्रेशर को बढ़ने से रोकने की कोशिश करते हुए मैंने यथासंभव मीठे स्वर में पूछा।
‘‘भाईजान, दरवाजा खोलेंगे जरा?’’ बाहर खड़े आदमी ने मुझसे भी अधिक मीठेपन के साथ अनुरोध किया।
मैं चौकन्ना हो गया। दरवाजा पीटना का वहशी-अन्दाज और इतना मीठापन!
धड़-धड़-धड़-धड़......धड़-धड़!
‘‘अरे भाई, आप हैं कौन?’’ मैंने पुनः खुद पर काबू रखकर पूछा, ‘‘क्यों दरवाजा पीट रहे हैं?’’
‘‘भाईजान, आप भीतर आने देंगे, तभी न आपको कुछ बता पाऊँगा।’’ वह बोला।
ये लो। पहले दरवाजा खोलने का अनुरोध और अब भीतर आने देने का !
धड़-धड़-धड़-धड़......धड़-धड़!
‘‘अरे भाई, जाओ यहाँ से!’’ इस बार मैंने बेकाबू अंदाज में कहा, ‘‘क्यों नाहक दरवाजे को पीटे जा रहे हो? मैं अजनबियों पर मेहरबान नहीं होता।’’
‘‘तू दरवाजा खोलकर नहीं, इसे तुड़वाकर मुझे आने देगा।’’ इतना कहकर उसने दरवाजे को बेइन्तिहा थपेड़ना शुरू कर दिया—धड़-धड़, धड़-धड़, धड़-धड़...! लगता है कि हाथों की बजाय दरवाजे को उसने अब किसी ठोस चीज से ठोंकना-तोड़ना शुरू कर दिया है। तय है कि विवेक की नहीं, उसे सिर्फ ताकत की भाषा आती है। मुझे अब और अधिक बर्दाश्त नहीं करना है। उसकी बदतमीजियों ने मुकाबले को जरूरी बना दिया है। दरवाजे को ज्यादा नुकसान पहुँचाए या तोड़ डाले, इस से पहले ही मुझे उसे रगड़ डालना चाहिए, यही उचित ऐसा महसूस होता है।
(‘पीले पंखोंवाली तितलियाँ’, 2015 से)

बुधवार, फ़रवरी 27, 2019

वतन के पेड़-पौधे, परिंदे और तितलियाँ / बलराम अग्रवाल


“मेरे दायीं ओर वाली बेंच पर जो बुजुर्ग बैठे हैं, उन्हें देख रहे हो?” बूढ़े बरगद ने बायीं ओर खड़े पीपल से पूछा।
उस ओर झाँकते हुए पीपल बोला, “पार्क के पाँच चक्कर लगाने के बाद यहाँ आ बैठते हैं। रोज ही देखता हूँ! उनमें आज कुछ नया है क्या?”
“आज बहुत कुछ नया है,” बरगद ने कहा, “शायद डरावना भी!”
“क्या?” पीपल ने आशंकित आवाज में पूछा।
“बेंच पर बैठकर अक्सर मोबाइल पर बातें करते हैं!” बरगद बोला, “उसी से जानता हूँ कि ये एक रिटायर्ड कर्नल हैं और इनका इकलौता बेटा भी फौज में मेजर है!”
“तो?”
“कोई बुरी खबर मोबाइल पर आई है शायद...” बरगद फुसफुसाता-सा बोला, “आज तीसरा चक्कर भी शुरू न कर सके... दूसरे के बीच में ही बेंच पर आ टिके हैं!”
“ईश्वर सब की रक्षा करे!” पीपल बुदबुदाया।
“बेटा कश्मीर के किसी साम्बा सेक्टर में तैनात था।” बरगद ने बताना शुरू किया, “दो-तीन दिन पहले मैंने इन्हें बात करते सुना... कि उसे आतंकवादी उठाकर ले गये!... और आज! मुझे कुछ गलत हो जाने की शंका हो रही है।”
“शुभ-शुभ बोलो दादा, शुभ-शुभ...!”
पीपल का वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि बरगद की और उसकी टहनियों समेत पार्क के सभी पेड़ों में सुस्ता रहे कितने ही परिंदे पंख फड़फड़ाते हुए एक साथ आसमान की ओर जा उड़े।
घबराकर दोनों पेड़ों ने डालियाँ झुकाकर नीचे देखा। बेंच पर बैठे बुजुर्ग का मोबाइल वाला हाथ बेजान हो नीचे लटक गया था। गरदन एक ओर को ढुलक गयी थी; और शरीर भी।
     उस बुजुर्ग पिता के शोक में पार्क के सारे पेड़-पौधे सन्न रह गये। उसके सम्मान में सभी ने अपनी डालियाँ नीचे को झुका लीं, पत्ते मलिन हो गये। यकीन मानिए, उस दिन पार्क का कोई पत्ता हवा से नहीं खेला, किसी चिड़िया ने गीत नहीं गाया। तितलियाँ जहाँ थीं, वहीं बैठी रह गयीं, उड़ न सकीं।
संपर्क:एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मो॰:8826499115