रविवार, अगस्त 11, 2019

कश्मीर / बलराम अग्रवाल


“आज बातचीत नहीं, एक कहानी सुनो ;
एक गाँव में दो मूरख रहते थे—हक्कन और फक्कन। दोनों के मकान अगल-बगल थे। बीच की दीवारें कुछ ऐसी कि मौका-बेमौका जब चाहतीं, ऊँची-नीची और सपाट होती रहतीं। हक्कन की माँ ने एक दिन उसे बताया—‘बेटा, फक्कन ने भी मेरे ही पेट से जनम लिया है। वह भाई है तेरा।... ’
यह बात उस मूरख ने फक्कन को जा बताई। फक्कन ने कहा—‘मैं बस पैदाइश में यकीन करता हूँ, माँ और बाप जैसे रिश्तों में नहीं। लेकिन उस औरत ने तुझे पूरी नहीं, अधूरी बात बताई।... उसने उस खिलौने के बारे में नहीं बताया जो पूरा का पूरा मुझे मिलना चाहिए था, लेकिन आधा उस तरफ ही रह गया।’
हक्कन ने यह बात माँ को जा बताई। माँ ने कहा, ‘बेटा, वह पैदा ही ‘मेरा हिस्सा’ ‘मेरा हिस्सा’ कहते हुआ था। यही कहते हुए उसने मकान के बगल वाले हिस्से पर कब्जा जमा लिया। यही कहते हुए उसने उस खिलौने को खींच ले जाने की कोशिश की जिसे उसके क्या, तेरे भी जनम से काफी पहले मैंने खुद इन्हीं हाथों से बनाया और सजाया-सँवारा था।’
हक्कन को जैसे ही फक्कन के कमजोर-तबियत होने और खिलौने से उसका सीधा वास्ता न होने की असलियत का पता चला, वह उसके हिस्से में पड़े खिलौने को पाने की जुगत में लग गया। हालत यह हो गयी कि दोनों भाई, जो अच्छे पड़ोसी बनकर रह सकते थे, दुश्मन की तरह रहने लगे। वे अब एक-दूसरे को कम, एक-दूसरे के हिस्से में पड़े खिलौने को ज्यादा देखने लगे। दोनों की हालत आज उन मुकदमेबाजों-जैसी है जो कई पुश्तों से वकीलों और मजिस्ट्रेटों के परिवारों को पाल रहे हैं और उनके खुद के परिवार भूखों मरने के कगार पर जा पहुँचे हैं।
(‘तैरती हैं पत्तियाँ’; 2019 से )

बाहरी आतंकवाद / बलराम अग्रवाल


धड़-धड़-धड़......धड़-धड़!
दरवाजे पर बुरी तरह थापें पड़ीं तो मैं उबाल-सा खा गया। कौन इस बदतमीजी से दरवाजे को पीट रहा है!
‘‘कौन है?’’ ब्लड-प्रेशर को बढ़ने से रोकने की कोशिश करते हुए मैंने यथासंभव मीठे स्वर में पूछा।
‘‘भाईजान, दरवाजा खोलेंगे जरा?’’ बाहर खड़े आदमी ने मुझसे भी अधिक मीठेपन के साथ अनुरोध किया।
मैं चौकन्ना हो गया। दरवाजा पीटना का वहशी-अन्दाज और इतना मीठापन!
धड़-धड़-धड़-धड़......धड़-धड़!
‘‘अरे भाई, आप हैं कौन?’’ मैंने पुनः खुद पर काबू रखकर पूछा, ‘‘क्यों दरवाजा पीट रहे हैं?’’
‘‘भाईजान, आप भीतर आने देंगे, तभी न आपको कुछ बता पाऊँगा।’’ वह बोला।
ये लो। पहले दरवाजा खोलने का अनुरोध और अब भीतर आने देने का !
धड़-धड़-धड़-धड़......धड़-धड़!
‘‘अरे भाई, जाओ यहाँ से!’’ इस बार मैंने बेकाबू अंदाज में कहा, ‘‘क्यों नाहक दरवाजे को पीटे जा रहे हो? मैं अजनबियों पर मेहरबान नहीं होता।’’
‘‘तू दरवाजा खोलकर नहीं, इसे तुड़वाकर मुझे आने देगा।’’ इतना कहकर उसने दरवाजे को बेइन्तिहा थपेड़ना शुरू कर दिया—धड़-धड़, धड़-धड़, धड़-धड़...! लगता है कि हाथों की बजाय दरवाजे को उसने अब किसी ठोस चीज से ठोंकना-तोड़ना शुरू कर दिया है। तय है कि विवेक की नहीं, उसे सिर्फ ताकत की भाषा आती है। मुझे अब और अधिक बर्दाश्त नहीं करना है। उसकी बदतमीजियों ने मुकाबले को जरूरी बना दिया है। दरवाजे को ज्यादा नुकसान पहुँचाए या तोड़ डाले, इस से पहले ही मुझे उसे रगड़ डालना चाहिए, यही उचित ऐसा महसूस होता है।
(‘पीले पंखोंवाली तितलियाँ’, 2015 से)