बुधवार, मार्च 31, 2010

माँ नहीं जानती फ्रायड/बलराम अग्रवाल


माँ…ऽ…! जैसे कुछ देखा ही न हो वैसे पुकारते हुए वह माँ के कमरे की ओर बढ़ा, ताकि उसके पहुँचने तक माँ सँभलकर बैठ जाए।
लेकिन माँ ज्यों की त्यों बैठी रही।
श्श्श्श्श! अपने होठों पर तर्जनी को खड़ी करने के बाद उसने हथेली के इशारे से उसे आवाज को धीमी रखने का इशारा किया।
माँ का इशारा पाकर वह दोबारा नहीं चीखा।
यह क्या कर रही हो माँ! माँ के पास पहुँचते-पहुँचते उसने लगभग उग्र स्वर में सवाल किया।
धीमे बोल…बड़ी मुश्किल-से आँखें लगी हैं बच्ची की, जाग जाएगी। उसके सवाल का जवाब दिए वगैर माँ ने फुसफुसाकर उसे डाँटा।
मैं पूछ रहा हूँ…ऽ…ये कर क्या रही हो? भले ही फुसफुसाकर, लेकिन उग्र स्वर में ही उसने अपने सवाल को दोहराया।
देख नहीं रहा है? माँ ने मुस्कराकर कहा।
देख रहा हूँ इसीलिए तो पूछ रहा हूँ।
सीमा से जो काम नहीं हो पा रहा है, वह कर रही हूँ।
कैसी तोहमत लगा रही हो माँ! वह पत्नी का पक्ष लेते हुए बोला,एक घण्टा पहले खुद मेरी आँखों के सामने पिंकी को दूध पिलाया है उसने।
दूध पिलाया है…छाती से नहीं लगाया। माँ मुस्कराते हुए भी गंभीर स्वर में बोली,बोतल मुँह में लगाने से बच्चे का सिर्फ पेट भरता है, नेह नहीं मिलता।
माँ की इस बात का वह तुरन्त कोई जवाब नहीं दे पाया।
बुढ़ापे की छातियाँ हैं बेटे। सो चुकी पिंकी को आँचल के नीचे से निकालकर बिस्तर पर लिटाते हुए माँ ने अपने बयान को जारी रखा,दूध एक बूँद भी नहीं है इनमें; लेकिन नेह भरपूर है।
माँ की सहजता को देख-सुनकर उसमें उसे थोड़ी देर पहले के अपने संकोच के विपरीत ममताभरी युवा-माँ दिखाई देने लगी।
तू जो इतना बड़ा होकर भी माँ-माँ करता चकफेरियाँ लगाता फिरता है मेरे आसपास, वो इन छातियों से लगाकर पालने का ही कमाल है मेरे बच्चे। उसके सिर पर हाथ फिराकर माँ बोली,छाती से लगकर बच्चा हवा से नहीं, माँ के बदन से साँस खींचता है…तू पिंकी की फिकर मत कर, इसे मैं अपने पास ही सुलाए रखूँगी…जा।
माँ की इस बात को सुनकर उसने अगल-बगल झाँका। वहाँ सिर्फ वह था और माँ थी। माँ! वह सिर्फ इतना ही बोल पाया। सदा-सदा से पूजनीया माँ की इस मुद्रा को देखकर उसके गले में तरलता आ गई। इस युवावस्था में भी माँ के आगे वह बच्चा ही हैउसे लगा; और यह भी कि वृद्धा-माँ में युवा-माँ हमेशा जीवित रहती है।

सोमवार, मार्च 01, 2010

सुंदरता/बलराम अग्रवाल

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ड़की ने काफी कोशिश की लड़के की नजरों को नजर-अन्दाज करने की। कभी वह दाएँ देखने लगती, कभी बाएँ। लेकिन जैसे ही उसकी नजर सामने पड़ती, लड़के को अपनी ओर घूरता पाती। उसे गुस्सा आने लगा। पार्क में और भी स्टुडैंट्स थे। कुछ ग्रुप्स में तो कुछ अकेले। सब के सब आपस की बातों में मशगूल या पढ़ाई में। एक वही था, जो खाली बैठा उसको तके जा रहा था।
गुस्सा जब हद से ऊपर चढ़ आया तो लड़की उठी और लड़के के सामने जा खड़ी हुई।
ए मिस्टर! वह चीखी।
वह चुप रहा और पूर्ववत ताकता रहा।
जिन्दगी में इससे पहले कभी लड़की नहीं देखी है क्या? उसकी ढीठता पर वह पुन: चिल्लाई।
इस बार लड़के का ध्यान टूटा। उसे पता चला कि लड़की उसी पर नाराज हो रही है।
घर में माँ-बहन हैं कि नहीं? लड़की फिर भभकी।
सब हैं, लेकिन आप गलत समझ रही हैं। इस बार वह अचकचाकर बोला,मैं दरअसल आपको नहीं देख रहा था।
अच्छा! लड़की व्यंग्यपूर्वक बोली।
आप समझ नहीं पायेंगी मेरी बात। वह आगे बोला।
यानी कि मैं मूर्ख हूँ!
मैं खूबसूरती को देख रहा था। उसके सवाल पर वह साफ-साफ बोला,मैंने वहाँ बैठी निर्मल खूबसूरती को देखा, जो अब वहाँ नहीं है।
अब वो यहाँ है। उसकी धृष्टता पर लड़की जोरों से फुंकारी,बहुत शौक है खूबसूरती देखने का तो अम्मा से कहकर ब्याह क्यों नहीं करा लेते हो।
मैं शादी-शुदा हूँ और एक बच्चे का बाप भी। वह बोला,लेकिन खूबसूरती किसी रिश्ते का नाम नहीं है। किसी एक चीज या किसी एक मनुष्य में भी वह हमेशा ही कैद नहीं रहती। अब आप ही देखिए, कुछ समय पहले तक आप निर्मल सौंदर्य का सजीव झरना थींअब नहीं हैं।
उसके इस बयान से लड़की झटका खा गई।
नहीं हूँ तो न सही। तुमसे क्या? वह बोली।
लड़का चुप रहा और दूसरी ओर कहीं देखने लगा। लड़की कुछ सुनने के इन्तजार में वहीं खड़ी रही। लड़के का ध्यान अब उसकी ओर था ही नहीं। लड़की ने खुद को घोर उपेक्षित और अपमानित महसूस किया और बदतमीज कहीं का कहकर पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई।