बुधवार, फ़रवरी 27, 2019

वतन के पेड़-पौधे, परिंदे और तितलियाँ / बलराम अग्रवाल


“मेरे दायीं ओर वाली बेंच पर जो बुजुर्ग बैठे हैं, उन्हें देख रहे हो?” बूढ़े बरगद ने बायीं ओर खड़े पीपल से पूछा।
उस ओर झाँकते हुए पीपल बोला, “पार्क के पाँच चक्कर लगाने के बाद यहाँ आ बैठते हैं। रोज ही देखता हूँ! उनमें आज कुछ नया है क्या?”
“आज बहुत कुछ नया है,” बरगद ने कहा, “शायद डरावना भी!”
“क्या?” पीपल ने आशंकित आवाज में पूछा।
“बेंच पर बैठकर अक्सर मोबाइल पर बातें करते हैं!” बरगद बोला, “उसी से जानता हूँ कि ये एक रिटायर्ड कर्नल हैं और इनका इकलौता बेटा भी फौज में मेजर है!”
“तो?”
“कोई बुरी खबर मोबाइल पर आई है शायद...” बरगद फुसफुसाता-सा बोला, “आज तीसरा चक्कर भी शुरू न कर सके... दूसरे के बीच में ही बेंच पर आ टिके हैं!”
“ईश्वर सब की रक्षा करे!” पीपल बुदबुदाया।
“बेटा कश्मीर के किसी साम्बा सेक्टर में तैनात था।” बरगद ने बताना शुरू किया, “दो-तीन दिन पहले मैंने इन्हें बात करते सुना... कि उसे आतंकवादी उठाकर ले गये!... और आज! मुझे कुछ गलत हो जाने की शंका हो रही है।”
“शुभ-शुभ बोलो दादा, शुभ-शुभ...!”
पीपल का वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि बरगद की और उसकी टहनियों समेत पार्क के सभी पेड़ों में सुस्ता रहे कितने ही परिंदे पंख फड़फड़ाते हुए एक साथ आसमान की ओर जा उड़े।
घबराकर दोनों पेड़ों ने डालियाँ झुकाकर नीचे देखा। बेंच पर बैठे बुजुर्ग का मोबाइल वाला हाथ बेजान हो नीचे लटक गया था। गरदन एक ओर को ढुलक गयी थी; और शरीर भी।
     उस बुजुर्ग पिता के शोक में पार्क के सारे पेड़-पौधे सन्न रह गये। उसके सम्मान में सभी ने अपनी डालियाँ नीचे को झुका लीं, पत्ते मलिन हो गये। यकीन मानिए, उस दिन पार्क का कोई पत्ता हवा से नहीं खेला, किसी चिड़िया ने गीत नहीं गाया। तितलियाँ जहाँ थीं, वहीं बैठी रह गयीं, उड़ न सकीं।
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