सुबह की नमाज का वक्त अभी ठीक-से हुआ भी नहीं था कि आठ-दस लोगों की भीड़ ने इमाम साहब का दरवाज़ा पीट डाला।
इमाम साहब करीब-करीब तैयार थे। लोगों की पुकार सुनते ही दरवाजा खोलकर सामने आ गए।
“मैं तो आ ही रहा था निकलकर…” वह हैरानी भरे अन्दाज़ में बोले,“क्या हुआ?”
“मस्जिद की सीढ़ियों पर सुअर काटकर फेंक रखा है किसी काफिर ने…!” कई लोग एक साथ चीखे।
“इस बदतमीजी का मज़ा चखना पड़ेगा हरामियों को…।” एक आवाज़ आई।
“उन्होंने मस्जिद को नापाक किया है…हम उनकी गली-गली, घर-घर को रंग डालेंगे…।” एक और आवाज़ आई।
इस बीच दो-चार लोग और आ मिले भीड़ में।
“चुप रहो…खामोश हो जाओ।” इमाम साहब सख्ती से बोले।
“हम…दहशत और दबाव में नहीं जी सकते…।” बीच में से कोई एक बोला।
इमाम साहब ने एक निगाह आवाज़ वाली जगह पर डाली। अपने गुस्से पर काबू पाया। फिर बड़ी ठण्डी आवाज़ में बोले,“बेवकूफ़ हैं वो, जो इस नई सदी में भी पिछली सदी के चोंचलों पर अटके पड़े हैं।…और उनसे ज्यादा बेवकूफ़ हैं आप—जो इन छोटे-मोटे टोटकों पर उछल-उछल पड़ते हैं। अक्लमंदी यह है कि जिसने भी दंगा फैलाने का यह प्रपंच रचा है, उसे उसके मक़सद में क़ामयाब मत होने दो। जाओ, और मस्जिद की सीढ़ियों को धोकर साफ कर दो। ठहरो, मैं भी साथ चलता हूँ…।”