रविवार, अप्रैल 01, 2018

रुका हुआ पंखा / बलराम अग्रवाल


पापा बड़े उद्विग्न दिखाई दे रहे थे कुछ दिनों से। कमरे में झाँककर देखते और चले जाते। उस उद्विग्नता में ही एक दिन पास खड़े हुए; पूछा, “बेटी, ये पंखा क्यों बन्द किया हुआ है?”
ठंड के मौसम कौन पंखा चलाता है पापा!” मैंने जवाब दिया।
हाँ, लेकिन मच्छर वगैरा से तो बचाव करता ही है।वह बोले, “ऐसा कर, दो नम्बर पर चला लिया कर।
उन्हीं की वजह से पूरी बाँहों की कमीज, टखनों तक सलवार और पैरों में मौजे पहनकर पढ़ने बैठती हूँ।मैंने समझदारी जताते हुए कहा, “ये देखो।
फिर भी… ” पंखा ऑन कर रेग्युलेटर को दो नम्बर पर घुमाकर बोले, “मन्दा-मन्दा चलते रहना चाहिए।
उस दिन से कन्धों पर शॉल भी डालकर बैठने लगी।
आज आए तो बड़े खुश थे। बोले, “तेरे कमरे के लिए स्प्लिट एसी खरीद लिया है। कुछ ही देर में फिट कर जाएगा मैकेनिक। पंखे से छुट्टी।
ऑफ सीजन रिबेट मिल गयी क्या?” मैंने मुस्कराकर सवाल किया।
जरूरत हो तो क्या ऑफ सीजन और क्या रिबेट बेटी।उन्होंने कहा, “खरीद लाया, बस।
उसी समय एसी की डिलीवरी गयी और साथ में मैकेनिक भी। दो-तीन घंटे की कवायद के बाद कमरे की दीवार पर एसी फिट हो गया।
एक काम और कर दे मकबूल!” पापा मैकेनिक से बोले, “सीलिंग फैन को उतारकर बाहर रख दे।
उसे लगा रहने दो साब।मकबूल ने कहा, “एसी के बावजूद इसकी जरूरत पड़ जाती है।
जरूरत को मार गोली यार!” पापा उससे बोले, “इसे हटाने के लिए ही तो एसी खरीदा है।
क्यों?”
आजकल के बच्चों का कुछ भरोसा नहीं हैपता नहीं किस बात पर… !” कहते-कहते उनकी नजर मेरी नजर से टकरा गयी।
तो यह बात थी!!!—यह सुन, एकाएक ही मेरी आँखें उन्हें देखते हुए डबडबा आईं।
जिगर का टुकड़ा है तू।तुरन्त ही खींचकर मुझे सीने से लगा वह एकदम सुबक-से पड़े, “चारों ओर से आने वाली गरम हवाओं ने भीतर तक झुलसाकर रख दिया है बेटी। रुका हुआ पंखा बहुत डराने लगा था… ”
मकबूल ने उनसे अब कुछ भी पूछने-कहने की जरूरत नहीं समझी। अपने औजार समेटे और बाहर निकल गया।         ('लघुकथा कलश-1' में प्रकाशित)
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