मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की आठवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…
(आठवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
‘‘महर्षि विश्वामित्र का नाम सुना है?’’ बच्चों की उत्सुकता को भाँपकर गाड़ी चलने
के कुछ देर बाद ही दादाजी ने उनसे पूछा।
‘‘हाँ–हाँ,
क्यों नहीं।’’ मणिका तपाक्–से बोली,‘‘वही, जो अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम
और लक्ष्मण को उनके पिता दशरथ से माँगकर ले गए थे।’’
‘‘बेटे, श्रीराम
को ले जाने की घटना से बहुत पहले उन महर्षि विश्वामित्र ने एक बार घोर तपस्या की
थी।’’ दादाजी ने धीरे–धीरे बताना शुरू किया,‘‘देवताओं के राजा इन्द्र को उनकी तपस्या
देखकर बड़ा डर लगा। उसने सोचा कि विश्वामित्र की तपस्या अगर सफल हो गई तो देवता उसे
हटाकर कहीं विश्वामित्र को ही स्वर्ग का राजा न बना दें। यह सोचकर उसने अपने दरबार
से मेनका नाम की एक अप्सरा को विश्वामित्र का
ध्यान तपस्या की ओर से हटाकर घर–गृहस्थी की ओर लगा देने के लिए उनके पास भेज दिया। बहुत सुंदर
तो थी ही मेनका, बहुत
चतुर भी थी। आखिर अप्सरा थी इन्द्र के दरबार की। चालाकीभरी बातें बनाकर वह
विश्वामित्र की पत्नी जा बनी और घर–गृहस्थी
के कामों में उलझाकर उन्हें तपस्या करने से रोक दिया। कई वर्षों तक साथ रहने के
बाद मेनका को जब यह पता चला कि वह माँ बनने वाली है तब वह यह सोचकर डर गई कि
विश्वामित्र को अगर उसकी चालाकी और उनके साथ रहने के लिए आने की उसकी असलियत का
पता चल गया तो शाप देकर उसे वह एक ही क्षण में भस्म कर डालेंगे। बस, एक दिन अचानक वह विश्वामित्र के चरणों
से लिपट गयी और रोने लगी। विश्वामित्र की समझ में कुछ न आया। उन्होंने उससे उसके
रोने का कारण पूछा लेकिन रोने का कारण बताने की बजाय वह यही कहती रही कि पहले वे
उसे क्षमा कर दें, तभी
वह कुछ बताएगी। विश्वामित्र तो उसके मोहजाल में पूरी तरह फँसे हुए थे। उस पर
प्रसन्न होकर उन्होंने उसे क्षमा कर देने का वचन दे दिया। वचन पाकर मेनका ने बहुत
दु:खी होने का नाटक करते हुए उनसे कहा—स्वामी! मुझ पापिन पर दया करने के कारण आप तपस्या नहीं कर पा
रहे हैं। यह सोच–सोचकर
मेरा मन कई दिनों से मुझे धिक्कार रहा है। स्वामी! जैसे आपने अपने राज्य का मोह
त्यागकर संन्यास ग्रहण किया था, मेरी
प्रार्थना है कि वैसे ही मेरा मोह त्यागकर आप पुन% अपनी तपस्या में लग जायँ।’’
दादाजी के कहने–सुनाने
का तरीका इतना अधिक रोचक था कि ममता और सुधाकर भी उनकी ओर मुँह करके बैठ गए।
‘‘बेटे आराम से ही चलाना गाड़ी।’’ दादाजी अल्ताफ से बोले।
‘‘आप बेफिक्र होकर कहानियाँ सुनाते रहिए बाबूजी।’’ अल्ताफ ने कहा,‘‘हम लोगों को बातें सुनते और बातें करते
हुए गाड़ी चलाते रहने की आदत बनी होती है।’’
‘‘विश्वामित्र ने मेनका की इस बात को उसका महान त्याग समझकर उसे
पूरी तरह क्षमा कर दिया।’’ दादाजी
ने आगे बताना शुरू किया,‘‘उनकी
तपस्या को भंग करने का अपना काम बड़ी चतुराई और सफलता से पूरा करके मेनका उनका आश्रम
छोड़कर चली गई। कुछ समय बाद उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया जिसे लेकर वह इन्द्र
के लोक में जा पहुँची।’’
‘‘फिर क्या हुआ दादाजी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘फिर, लालन–पालन के लिए इन्द्र ने उस कन्या को धरती
पर मालिनी नदी के किनारे आश्रम बनाकर रहने वाले उस समय के महान ऋर्षि कण्व के
आश्रम में भेज दिया। बड़ी होने पर वही कन्या शकुन्तला कहलाई।’’ दादाजी बोले,‘‘जानते हो, शकुन्तला कौन थी?’’
‘‘हाँ दादाजी ।’’ मणिका
तपाक से बोली,‘‘इन्द्रलोक
की अप्सरा मेनका और महर्षि विश्वामित्र की पुत्री!’’
‘‘धत् तेरे की…’’ दादाजी
अपने माथे पर हथेली मारकर बोले, ‘‘यह
बात तो अभी–अभी मैंने ही तुमको
बताई है। इसके अलावा बताओ कि शकुन्तला कौन थी?’’
‘‘राजा दुष्यन्त की पत्नी और भरत की माँ।’’ गाड़ी चलाते हुए अल्ताफ ने मुस्कराते हुए
बताया फिर बोला,‘‘कभी–कभार आप लोगों के बीच में मैं भी कुछ
बोल सकता हूँ न सर जी?’’
‘‘भई, मेरी
तरफ से तो ‘हाँ’ है, बाकी तुम बच्चों से तय कर लो।’’ दादाजी ने कहा,‘‘तुमने बिल्कुल ठीक बताया लेकिन यह भरत
भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत नहीं हैं।’’
‘‘पता है।’’ इस
बार निक्की ने कहा,‘‘भगवान
राम के छोटे भाई भरत की माता का नाम शकुन्तला नहीं, कैकेयी था।’’
‘‘वेरी गुड।’’ दादाजी
मुस्कराकर बोले,‘‘भई
तुम लोगों का सामान्य ज्ञान तो बड़ा उत्तम है!’’
‘‘फिर क्या हुआ दादाजी?’’ अपनी प्रशंसा के शब्दों में न उलझकर
बच्चों ने कथा के तारतम्य को जोड़े रखने का प्रयास करते हुए पूछा।
‘‘फिर जो हुआ, वह
बहुत लम्बी कहानी है।’’ दादाजी
बोले,‘‘मैंने जिस उद्देश्य
से शकुन्तला के जन्म की कहानी तुमको सुनाई है, उसे सुनो—मालिनी नदी और महर्षि कण्व का आश्रम,
दोनों इस कोटद्वार क्षेत्र में ही हैं।
यह भी कहा जाता है कि अपने वीर पुत्र भरत को शकुन्तला ने इसी क्षेत्र में जन्म
दिया था। …और यह भी कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने महान् काव्य ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ की रचना इस मालिनी नदी के किनारे बैठकर
ही की थी। …’’
‘‘कोटद्वार आने वाला है सर जी,’’ अल्ताफ आत्मीय स्वर में बोला।
गाड़ी हॉर्न देती हुई तेजी से दौड़ रही थी। बातों–बातों में कई छोटे स्टेशन पीछे निकल गए
थे। खिड़कियों के सहारे बैठे बच्चे दूर खड़े पहाड़ों को देखकर पुलकित होने लगे। अब से
कुछ समय बाद ही वे इन पहाड़ों के बीच से गुजरने वाले थे।
उनकी गाड़ी कोटद्वार रेलवे–स्टेशन के बाहर जा पहुँची थी। उधर,
कोटद्वार पहुँचने वाली एक रेलगाड़ी भी धीरे–धीरे प्लेटफार्म के सहारे जा रुकी थी।
आगे पता नहीं कोई गाय आ खड़ी हुई थी या कुछ–अन्य रुकावट थी कि अल्ताफ टैक्सी को रोककर खड़ा हो गया। यह
रेलवे स्टेशन के बाहर का स्थान था और कुछ प्राइवेट बसों के ड्राइवर व कंडक्टर आदि स्टाफ ने मुख्य
सड़क पर ही अपनी बस़ें टेड़ी–तिरछी
खड़ी करके रास्ते को रोका हुआ था। वह स्थान
रेलवे प्लेटफार्म से काफी ऊँचाई पर और काफी नज़दीक था इसलिए प्लेटफार्म का सारा
दृश्य वहाँ से साफ सुनाई व दिखाई दे रहा था। टैक्सी में बैठे बच्चे वहाँ से रेलवे
प्लेटफॉर्म का नज़ारा देखने लगे। एक कुली को बुलाकर दादाजी की उम्र के एक आदमी ने
सामान को उठाकर बद्रीनाथ की तरफ जाने वाली बस की ओर ले चलने को कहा। कुली बोला,‘‘बद्रीनाथ को जाने वाली गाड़ी तो शुबह जल्दी ही निकल जाती है
शाबजी! आप कहें तो आपका शामान हम श्रीनगर वाली बश में चढ़ा दें।’’
‘‘श्रीनगर!’’ उसकी
बात पर बच्चे आश्चर्यपूर्वक बोल उठे।
‘‘यह उत्तराखण्ड का श्रीनगर है बच्चो, कश्मीर का नहीं।’’ दादाजी ने उन्हें बताया।
उधर, वह
आदमी कुली से बोला,‘‘ठीक
है, उसी में ले चलो।’’
सामान उठाकर कुली स्टेशन से बाहर आया। बस–स्टेंड सामने ही था। टिकिट–खिड़की पर जाकर उसने श्रीनगर की बजाय
पौड़ी तक की टिकिट ली और कुली को बस की छत पर सामान सुरक्षित तरह से रखने और बाँध
देने का आदेश दिया। दोनों बच्चे यह सब देखकर आनन्दित होते रहे। सामान को बाँधे जाने तक वह स्वयं बाहर खड़े रहकर
बस की छत पर रखे सामान की देखभाल करता रहा। जैसे ही बस चलने को हुई, अन्दर जाकर सीट पर बैठ गया।
आगामी अंक में जारी…