दोस्तो,
आकाशवाणी, दिल्ली के विदेश सेवा प्रभाग के अन्तर्गत वार्ता/लघुकथा (यहाँ यह शब्द अंग्रेजी के शॉर्ट स्टोरी का शब्दानुवाद है जिसका अर्थ 'कहानी' होता है) शाखा के बुलावे पर आज दिनांक 14-7-2015 को अपनी कहानी 'सहस्रधारा' का संपादित पाठ प्रस्तुत करके आया हूँ। संपादित इसलिए कि कहानी पाठ के लिए समयावधि 10-12 मिनट निश्चित थी। मूल कहानी आपके अवलोकनार्थ यहाँ पेश है :
देहरादून।
रोडमैप के मुताबिक तो मैंने ठीक ही सड़क पकड़ी थी। फिर भी, ज्यादा आगे बढ़ने से पहले आश्वस्त हो
जाना बेहतर समझा। सुबह होने से पहले का धुँधलका अभी काफी शेष था। सड़क पर किसी
कुत्ते तक का नामोनिशान नहीं था। पीठ पर लदा अपना बैगेज़ मैंने सड़क के किनारे
वाले पार्क की एक बेंच पर रखा और हल्का-फुल्का व्यायाम कर समय बिताने लगा। काफी
देर बाद पैंट-शर्ट पहने एक आकृति जॉगिंग करती हुई पार्क की ओर आती दिखाई दी। कुछ
ही देर में वह काफी नज़दीक आ गयी। यह एक पहाड़ी लड़की थी। पार्क में मुझे व्यायाम
करता देख किंचित आश्चर्य की रेखाएँ उसके माथे पर उभरीं लेकिन जाहिराना तौर पर वह
सामान्य तरीके से पार्क में दाखिल हुई और जॉगिंग करती रही।
“अँ...एक्स्क्यूज़ मी।” दूसरे चक्कर में वह मेरे निकट से
गुज़री तो मैंने टोका।
वह रुक गयी।
“सहस्रधारा जाना है मुझे।” मैं बोला।
“ठीक जगह रुके हैं आप।” वह बोली, “पहली बस ठीक छह बजे यहाँ से गुजरेगी।”
“ले...ऽ...ट हो गयी तो?” मैंने शंका जाहिर की।
“पिछले पाँच सालों में तो कभी हुई नहीं।” वह उपहासपूर्वक बोली।
“यानी कि पिछले पाँच सालों से आप लगातार
यहाँ जॉगिंग कर रही हैं?”
उसके रवैये को दरकिनार कर मैंने पूछा।
“सो व्हाट?” मेरी बात पर उसका चेहरा एकदम-से गर्म
हो गया।
“डॉन्ट बी एंग्री...यूँ ही पूछ लिया
मैंने तो।” मैं बोला, “मुझे आप सिर्फ रोड-वे बता दीजिए...पैदल
जाना चाहता हूँ।”
“पैदल!!!” उसने आश्चर्यपूर्वक मुँह खोला, “शक्ल-सूरत से तो घुमक्कड़ नज़र नहीं
आते आप?”
“तब?” मैंने
पूछा।
“सच बता दूँ?”
“हाँ-हाँ।”
“नहीं...”
“आपकी तरह नकचढ़ा नहीं हूँ मैं।”
“उठाईगीर।” मेरी बात को सुनते ही वह थोड़ा हँसकर बोली।
“यह काम भी तो कोई घुमक्कड़ ही कर सकता
है मैम!” मैंने भी मुस्कराकर कहा।
“बहुत हो लिया।” एक ही स्थान पर लेफ्ट-राइट कूदना शुरू
कर वह चुटकी बजाती हुई बोली, “बाकी
गप सहस्रधारा पर...फूटिए।”
“सहस्रधारा पर!...मतलब?”
“वहाँ पर फैन्सी आइटम्स की एक छोटी-सी दुकान
है हमारी।” वह बोली, “छह बजे वाली बस से जाकर रोज़ाना मैं ही खोलती हूँ उसे। नौ बजे डैडी
पहुँचते हैं, तब लौटती हूँ।”
मेरे सामने उसका यह दूसरा रूप खुला। मन
हुआ कि उससे और-बातें करूँ। अँधेरे पर सुबह से पहले का उजाला हावी होता महसूस होने
लगा था। वहाँ रुके रहने का मतलब था—पैदल यात्रा की अपनी आकांक्षा को छोड़
देना। यह मुझे उचित नहीं लगा।
“आप अगर लड़का होतीं तो आपसे आज अपने
साथ पैदल चलने का आग्रह ज़रूर करता मैं।” कुछ
सोचते हुए मैंने कहा।
“लड़का!...खुद के ‘लड़का’ होने पर बड़ा घमण्ड है आपको!!” मेरी
बात पर इस बार वह पूरी तरह बिफर गयी, “तिब्बत
की बेटी हूँ...आपसे ज्यादा तेज़ और ज्यादा दूर तक पैदल चल सकती हूँ मैं।...हम
लोगों के बारे में आइन्दा इतना कम न सोचना।”
बाप रे! बड़ी खतरनाक लड़की है!! उसके
तेवर देखकर मैंने सोचाµसीधा-सादा मज़ाक तक बर्दाश्त नहीं है
इसे!!!
“ओ.के.!” विषय को तुरन्त बदलते हुए मैंने उससे विदा ले लेना ही बेहतर समझा।
बोला, “आपकी दुकान पर मिलता हूँ...गुड-डे।”
“ज़रूर!” वह सामान्य स्वर में बोली, “बशर्ते
कि आप नौ बजे तक वहाँ पहुँच जायें।”
“अरे हाँ!” बैगेज़ उठाकर मैं चलते-चलते पलटा, “आपका नाम तो पूछा ही नहीं मैंने?”
“बहुत पवित्र नाम है।” वह मुस्कराकर बोली, “नहाकर पूछना।”
इसके साथ ही वह आगे को दौड़ गयी।
मैंने सहस्रधारा की ओर रुख किया। ऊँची
सड़कों पर चलने का यह पहला ही अवसर था मेरा। सूरज निकलने से पहले तक तो फिर भी कुछ
राहत रही; उसके बाद धूप चुभने लगी। सैर-सपाटे के
लिए घरों से निकले लोग भी अब शहर की ओर लौटते नज़र आने लगे थे। मैं चलता रहा और उस
सीमा से आगे निकल गया जहाँ पहुँचकर शहर के लोग सैर का आनन्द लेकर घर लौटने का मन
बना लेते होंगे। सड़क पर लोग नज़र आने खत्म हो गये। पेड़ों पर चिडि़यों के स्वर तेज़
होने लगे थे। पक्षी अपने बसेरों को छोड़कर, दिनभर
के भोजन और राहत के स्थानों की ओर उड़ चले थे। पेड़ों और पहाड़ों की चोटियाँ
कहीं-कहीं गुलाबी नज़र आने लगी थीं। पहाड़ी रास्ते पर चलने के लिए शरीर को इतना
श्रम करना पड़ रहा था कि उस सर्द सुबह को भी मेरे माथे पर पसीना छलछला आया था।
लेकिन मैं चलता रहा। मुझे लगा कि मेरी बनियान भी पसीने से भीगने लगी है और यही हाल
रहा तो कुछ ही देर बाद अपनी जर्किन और स्वेटर मुझे कंधे पर लाद लेने होंगे।
इस बीच दो बसें भी मुझे क्रॉस करके आगे
जा चुकी थीं। मेरी अगर यही रफ्तार रही तो नौ क्या, दस बजे तक भी सहस्रधारा नहीं पहुँच पाऊँगा—मैंने व्यग्रतापूर्वक सोचा
और जहाँ तक पहुँच गया था,
सड़क के किनारे वहीं पर अपना बैगेज़
टिका दिया। कुछ देर इन्तज़ार के बाद पीछे-से आयी तीसरी बस को रुकवाकर मैं उसमें
बैठ गया।
“सुनो, आखिरी स्टॉप से आधा किलोमीटर पहले ही उतार देना।” मैंने कण्डक्टर से विनती की और उसने
सहस्रधारा से करीब एक किलोमीटर पहले मुझे उतार दिया। वहाँ से खरामा-खरामा चलकर
साढ़े सात-पौने आठ बजे के करीब मैं धारा तक जा पहुँचा। जैसा कि जाहिर था, मेरे कदम
सबसे पहले वहाँ बनी दुकानों की ओर ही मुड़े और मेरी उत्सुक आँखों ने आसानी से उसकी
दुकान को टोह लिया।
“कितनी दूर पैदल चलकर बस में बैठे?” मुझे देखते ही उसने पूछा।
“बस में!...सिर से एड़ी तक बहता यह
पसीना नहीं दीख रहा आपको?”
“होता है...पहाड़ी रास्तों पर ऐसा ही
होता है।” मेरी बनावट को नज़रअन्दाज़ कर वह बोली, “कोई बात नहीं...जब तक न चढ़ो तभी तक
रहती है पहाड़ पर चढ़ने की ललक।”
“कमाल हो।”
“सो तो हूँ।” वह बोली, “ऐसा करो उधर जाकर पहले नहा लो। बाहर और भीतर, दोनों तरफ का मैल धो डालेगी, बड़ी पवित्र धारा है।”
“बाहर-भीतर के मैल से मतलब?”
“पसीना और थकान, और क्या?” वह बोली।
“अब तो बता दो अपना नाम।” मैं विनयपूर्वक बोला।
“कहा न, अपना बैगेज़ पीठ से उतारकर नीचे रखो। आराम से बैठकर एड़ी तक बहता यह
पसीना सुखाओ।” अपने पूर्व-अन्दाज़ में वह बोली, “उसके बाद...धारा के बीच पड़े बड़े-बड़े
पत्थर देख रहे हो न, उनमें से एक पर मेरा नाम लिखा
है।...नाम ढूँढ़ने के बहाने नहाना भी हो जायेगा, क्यों?”
कमाल थी वह लड़की। या तो उसके पास
गुस्सा था या उपहास। मैं बार-बार उसकी उपहासभरी बातों से अन्दर तक छिल जाता, फिर भी सौम्यता और सरलता के आकर्षण में
बँधा कुछ कह नहीं पाता।
“अच्छा छोड़ो।” सहज होकर मैं पुनः बोला, “कितने भाई-बहन हैं आप?”
“हम!...मैं तो अकेली ही अपनी भाई भी हूँ
बहन भी।” इस बार वह धीरे-से बोली।
“सॉरी।”
“कोई बात नहीं, आप?”
“हम तो बहुत हैं, सात! मैं सबसे छोटा हूँ।”
“बहनें कितनी हैं?” उसने तपाक-से पूछा।
“सिर्फ एक।”
“आप-जैसी ही होगी...आय मीन, नॉटी एण्ड
ब्यूटीफुल।”
“मुझसे कहीं ज्यादा...और बहादुर भी।”
“अच्छा!” उसने प्रफुल्लित स्वर में पूछा, “नाम
भी बड़ा प्यारा होगा न। क्या है भला?”
“वही तो पूछ रहा हूँ सुबह से।” उसकी नाक पकड़कर दायें-बायें हिलाते
हुए अपेक्षाकृत अधिकारपूर्ण स्वर में मैं बोला, “बताती
है कि नहीं?”
“सोनम...सोनम नामग्याल!” एक झटके के साथ अपनी नाक छुड़ाकर मेरे
हाथ को बारी-बारी कई बार अपनी आँखों पर लगाया उसने। मैं हर बार उनसे बहते स्नेह का
गर्म-स्पर्श अपनी त्वचा, अपने दिल, अपने दिमाग़ पर महसूस करता रहा।
अब तक बह रही है स्पर्श की वह पवित्र
धारा, ऐसा लगता है।