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चित्र:आदित्य अग्रवाल |
पात्र—
दादाजी—नंदू के वृद्ध दादाजी, उम्र लगभग 60 वर्ष
नंदू—लगभग दस बरस का एक बालक
पेड़—किसी भी पेड़ की बड़ी-सी अनुकृति
पत्ता—एक हरे पत्ते की अनुकृति
कोमल पत्ती—एक कोमल-पत्ती की अनुकृति
टहनी—एक पतली टहनी की अनुकृति
फूल—उसी पेड़ के एक फूल की अनुकृति
फल— उसी पेड़ के एक फल की अनुकृति
छाल—उसी पेड़ के छाल की अनुकृति
पेड़ की एक बड़ी-सी अनुकृति मंच के बीचों-बीच खड़ी है। उसके पीछे उसके हरे पत्ते की, कोमल पत्ती की, पतली टहनी की, फूलों के गुच्छे की, फल की तथा छाल की अनुकृतियों को इस प्रकार खड़ा किया गया है कि सामने से दर्शकों को मात्र पेड़ ही नजर आता है। यह पेड़ निर्देशक अपनी सुविधा के अनुसार पीपल, आम, बरगद किसी का भी ले सकते हैं तथा उसके अंग बने अन्य पात्रों को मंच के दायें, बायें, पिछले या सामने वाले हिस्से से भी बारी-बारी मंच पर ला सकते हैं।
दादाजी गाते हुए मंच पर प्रवेश करते हैं।
दादाजी—पेड़ को जानो, पेड़ को समझो और पहचानो भाई।
उनके पीछे-पीछे ही बगल में एक चटाई दबाए नंदू भी यह पंक्ति दोहराता, मटकता हुआ प्रवेश करता है।
नंदू—पेड़ को जानो, पेड़ को समझो और पहचानो भाई।
दादाजी—(पीछे घूमकर उसकी ओर देखते हुए) अरे बदमाश तू भी आ गया?
नंदू—मम्मी ने आपके लेटने-बैठने के लिए चटाई देकर भेजा है।
दादाजी—बहुत अच्छा किया। आ, फिर मेरे साथ-साथ गा—पेड़ से अच्छा दोस्त नहीं कोई, नहीं वैद्य है भाई।
नंदू—पेड़ से अच्छा दोस्त नहीं कोई, नहीं वैद्य है भाई।
दादाजी—पेड़ हमारे जीवनदाता रहते सदा सहाई।
नंदू—पेड़ हमारे जीवनदाता रहते सदा सहाई।
दादाजी—पेड़ को जो बेबात उजाड़े समझो उसे कसाई।
नंदू—पेड़ को जो बेबात उजाड़े समझो उसे कसाई।
गाते-गाते ही वे दोनों पेड़ के नीचे एक चटाई बिछाकर उस पर बैठ जाते हैं।
दादाजी—नंदू, हमारे पूर्वज बहुत विद्वान थे बेटे।
नंदू—कितने विद्वान थे?
दादाजी—इतने…ऽ…कि दुनियाभर के पेड़-पौधे, सारी वनस्पतियाँ, उनके फूल, फल, बड़े-बड़े पहाड़, बहती हुई नदियाँ, उड़ती हुई चिड़ियाँ, यह घास (जमीन से उठाकर घास का एक तिनका नंदू को दिखाते हैं), यह मिट्टी (जमीन से उठाकर मुट्ठीभर मिट्टी नंदू को दिखाते हैं)—सारी चीजों से वे बातें करते थे और सारी चीजें उनसे बातें करती थीं।
नंदू—(व्यंग्यात्मक स्वर में) गिनाने से कोई नाम छूट तो नहीं गया दादाजी?
दादाजी—मजाक समझ रहा है?
नंदू—और नहीं तो क्या? बेजान और बेजुबान चीजों से कोई कैसे बातें कर सकता है?
दादाजी—क्यों नहीं कर सकता?
नंदू—अगर कर सकता होता तो ‘भैंस के आगे बीन बजाना’ यह मुहावरा क्यों बनता।
दादाजी—इस मुहावरे का मतलब अलग है नंदू और मेरी बात का मतलब अलग।
नंदू—यह कैसे हो सकता है दादाजी कि ‘नॉन लिविंग’ यानी निर्जीव वस्तुएँ ‘लिविंग’ यानी जीवित वस्तु, आदमी से बातें करें?
दादाजी—तू तो विज्ञान का विद्यार्थी है न? उसमें तो वैज्ञानिकों ने जीवित और निर्जीव वस्तुओं के कुछ गुण बताए हुए हैं।
नंदू—सो तो है।
दादाजी—उनके आधार पर विज्ञान भी पेड़-पौधों को जीवित ही मानता है।
नंदू—मानता तो है, पर…
दादाजी—पर क्या?
नंदू—(कुछ सोचते हुए) देखो दादाजी, हमारे सिरहाने…ये खड़े हैं पेड़ बाबा, और आप है हमारे पूर्वज। ठीक है?
दादाजी—ठीक है।
नंदू—तो अब आप मेरे सामने पेड़ बाबा से बातें करके दिखाइए।
दादाजी—देखो बेटा, बातें करने के मतलब को समझो।
नंदू—समझाइए।
दादाजी—हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रयोग करके बहुत-सी चीजों के गुणों की खोज की।
नंदू—सो तो आज के वैज्ञानिक भी करते हैं।
दादाजी—हाँ, लेकिन आज का वैज्ञानिक कहता है कि मैंने ‘इस’ वस्तु के या ‘इस’ प्राणी के इस गुण की खोज की।
नंदू—और पूर्वज क्या कहते थे?
दादाजी—वे कहते थे कि इस ‘पौधे’ ने या इस ‘पेड़’ ने या इस ‘बेजुबान प्राणी’ ने मुझसे बातें कीं और अपने बारे में मुझे ये-ये बातें बताईं।
नंदू—बात तो वही हुई न।
दादाजी—नहीं। बात वही नहीं हुई। आज का वैज्ञानिक अगर मनुष्य पर भी शोध करता है, तो उसे वह ‘निर्जीव वस्तु’ मानकर चलता है।
नंदू—और पूर्वज क्या मानकर चलते थे?
दादाजी—सजीव। सही बात तो यह है नंदू कि भारतीय दर्शन इस पूरी सृष्टि में एक कण को भी ‘निर्जीव’ मानता ही नहीं है।
नंदू—जी।
दादाजी—इसीलिए मनुष्य की या पशुओं-पक्षियों जैसे चलने-फिरने-बोलने वाले जीवों की तो बात ही छोड़ो, वे अगर नदियों पर, पेड़-पौधों पर, पत्थरों पर, अलग-अलग जगह की मिट्टी जैसी निश्चल वस्तुओं पर भी शोध करते थे तो उन्हें ‘निर्जीव वस्तु’ नहीं ‘सजीव और प्राणवान’ मानकर चलते थे।
नंदू—हूँ…ऽ…इसीलिए कहते थे कि इसने मुझसे और मैंने इससे बातें कीं।
दादाजी—बिल्कुल ठीक। …और, अब देखो, यह पेड़ तुमसे और तुम इस पेड़ से बातें करोगे।
यों कहते हुए दादाजी पेड़ की अनुकृति के पीछे जाकर खड़े हो जाते हैं।
पेड़ बाबा—हलो नंदू। मैं हूँ हरा-भरा सुगंधित हवा और ठंडी छाया देता हुआ पेड़।
नंदू अपने दोनों हाथ हवा में फैलाकर ऐसे साँस लेता है जैसे उसे वाकई बहुत सुगंधित और शीतल वायु मिल गई हो।
नंदू—प्रणाम करता हूँ पेड़ बाबा।
पेड़ बाबा—सदा स्वस्थ रहो बेटा।
नंदू—पेड़ बाबा, आप अपने बारे में कुछ बताइए न।
पेड़ बाबा—क्या बताऊँ? ज्यादातर तो लोग हमें काठ और ईंधन देने वाला ही समझते हैं।
नंदू—बिल्कुल गलत। मेरे दादाजी कहते हैं कि पेड़ बड़े दयावान होते हैं।
पेड़ बाबा—देखो बेटा, धरती पर जितने भी पेड़ हैं, उन सबके छ: अंग अवश्य होते हैं और वे सब के सब उपयोगी होते हैं।
नंदू—(आश्चर्य से) पेड़ों के अंग भी होते हैं?
पेड़ बाबा—हाँ नंदू। सबसे पहले—जड़।
उनके ऐसा कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर जड़ की अनुकृति मंच पर सामने आ जाती है।
पेड़ बाबा—फिर छाल।
उनके ऐसा कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर छाल की अनुकृति मंच पर सामने आ जाती है।
पेड़ बाबा—शाखा यानी टहनी।
उनके ऐसा कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर टहनी की अनुकृति मंच पर सामने आ जाती है।
पेड़ बाबा—पत्ते।
उनके ऐसा कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर हरी व कोमल पत्तियों की अनुकृतियाँ मंच पर सामने आ जाती है।
पेड़ बाबा—फूल।
उनके ऐसा कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर फूल की अनुकृति मंच पर सामने आ जाती है।
पेड़ बाबा—और फल।
उनके ऐसा कहते ही पेड़ के पीछे से निकलकर फल की अनुकृति मंच पर सामने आ जाती है।
पेड़ बाबा—सभी पेड़ों के ये छ: अंग अवश्य होते हैं। लेकिन किसी-किसी के कम या ज्यादा भी होते हैं।
नंदू—जैसे?
पेड़ बाबा—जैसे किसी-किसी पेड़ को दाढ़ी भी होती है।
नंदू—पेड़ों को दाढ़ी-मूछें भी आती हैं?
पेड़ बाबा—दाढ़ी-मूँछें नहीं, सिर्फ दाढ़ी। तुमने बरगद के पेड़ तो देखे ही हैं न। उनके तनों और शाखाओं से लम्बे-लम्बे रेशे जमीन की ओर लटक रहे होते हैं।
नंदू—हाँ।
पेड़ बाबा—उन्हें ही बरगद की दाढ़ी कहा जाता है। किसी-किसी पीपल की तथा कुछ दूसरे पेड़ों की भी दाढ़ी आती है।
नंदू—और फूल?
पेड़ बाबा—प्रकृति का नियम है नंदू कि पेड़-पौधों पर पहले फूल आएगा, फिर फल। लेकिन, पीपल और बरगद के पेड़ की यह विशेषता है नंदू कि इनकी डालियों पर फूल नहीं आते, सीधे फल ही आते हैं।
नंदू—यह तो कमाल की बात है!
पेड़ बाबा—मेरी एक बात और गाँठ में बाँध लो।
नंदू—कौन-सी बात को?
पेड़ बाबा—देखो बेटा, कोई कितना भी बुजुर्ग क्यों न हो, उसकी बताई बातों को जब तक उस विषय के किसी विशेषज्ञ से निश्चित न कर लो, तब तक उन पर अमल मत करो। मेरी बातों पर भी।
नंदू—क्यों?
पेड़ बाबा—तुमने ‘नीम हकीम खतरा-ए-जान’ वाली कहावत तो सुनी ही होगी?
नंदू—(हँसता है) ही-ही-ही…
पेड़ बाबा—हँस क्यों रहे हो?
नंदू—हमारी कक्षा में वो चंदू है न, उसने टीचरजी को इसका अर्थ बताया कि—ए हकीम, इस नीम से तेरी जान को खतरा है। उसका उलटा जवाब सुनकर टीचरजी ने उसे कक्षा के बाहर खड़ा कर दिया था।
पेड़ बाबा—इस मुहावरे का सही अर्थ यह है बेटा कि आधी-अधूरी जानकारी रखने वाला हकीम मरीज की जान के लिए खतरा होता है। उसकी सलाह और दवाइयाँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और जानलेवा हो सकती हैं।
नंदू—मैं समझ गया।
इसी के साथ दादाजी पेड़ के पी्छे से निकलकर नंदू के निकट आ जाते हैं और कहते हैं—
दादाजी—पेड़ दयावान ही नहीं, परोपकारी भी होते हैं नंदू। इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि—पेड़ को जानो, पेड़ को समझो और पहचानो भाई।
नंदू—पेड़ से अच्छा दोस्त नहीं कोई, नहीं वैद्य है भाई।
दादाजी—पेड़ हमारे जीवनदाता रहते सदा सहाई।
नंदू—पेड़ हमारे जीवनदाता रहते सदा सहाई।
दादाजी—पेड़ को जो बेबात उजाड़े समझो उसे कसाई।
नंदू—पेड़ को जो बेबात उजाड़े समझो उसे कसाई।
अंतिम पंक्तियों के साथ ही प्रकाश मद्धिम होता जाता है।
दृश्य समाप्त