गुरुवार, मई 28, 2009

अपनी-अपनी जमीन/बलराम अग्रवाल


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बुरा तो मानोगे…मुझे भी बुरा लग रहा है, लेकिन…कई दिनों तक देख-भाल लेने के बाद हिम्मत कर रही हूँ बताने की…सुनकर नाराज न हो जाना एकदम-से…। नीता ने अखबार के पन्ने उलट रहे नवीन के आगे चाय का प्याला रखते हुए कहा और खुद भी उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
कहो। अखबार पढ़ते-पढ़ते ही नवीन बोला।
पिछले कुछ दिनों से काफी बदले-बदले लग रहे हैं पिताजी… वह चाय सिप करती हुई बोली, शुरू-शुरू में तो नॉर्मल ही रहते थेसुबह-सवेरे घूमने को निकल जाना, लौटने के बाद नहा-धोकर मन्दिर को निकल जाना और फिर खाना खाने के बाद दो-चार पराँठे बँधवाकर दिल्ली की सैर को निकल जाना। लेकिन…
लेकिन क्या? नवीन ने पूछा।
अब वह कहीं जाते ही नहीं हैं!…जाते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए। वह बोली।
इसमें अजीब क्या है? अखबार को एक ओर रखकर नवीन ने इस बार चाय के प्याले को उठाया और लम्बा-सा सिप लेकर बोला, दिल्ली में गिनती की जगहें हैं घूमने के लिए…और पिताजी-जैसे ग्रामीण घुमक्कड़ को उन्हें देखने के लिए वर्षों की तो जरूरत है नहीं…वैसे भी, लीडो या अशोका देखने को तो पिताजी जाने से रहे…मन्दिर…या ज्यादा से ज्यादा पुरानी इमारतें,बस। सो देख ही डाली होंगी उन्होंने।
सो बात नहीं। नीता उसकी ओर तनिक झुककर किंचित संकोच के साथ बोली,मैंने महसूस किया है…कि…अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी नजरें…मेरा…पीछा करती हैं…जिधर भी मैं जाऊँ!
क्या बकती हो!
मैंने पहले ही कहा थानाराज न होना। वह तुरन्त बोली,आज और कल, दो दिन तुम्हारी छुट्टी है…खुद ही देख लो, जैसा भी महसूस करो।
यों भी, छुट्टी के दिनों में नवीन कहीं जाता-आता नहीं था। स्टडी-रूम, किताबें और वह्। पिछले कई महीनों से पिताजी उसके पास ही रह रहे हैं। गाँव में सुनील है, जो नौकरी भी करता है और खेती भी। माँ के बाद पिताजी कुछ अनमने-से रहने लगे थे, सो सुनील की चिट्ठी मिलते ही नीता और वह गाँव से उन्हें दिल्ली ले आये थे। यहाँ आकर पिताजी ने अपनी ग्रामीण दिनचर्या जारी रखी, सो नीता को या उसको भला क्या एतराज होता। जैसा पिताजी चाहते, वे करते। लेकिन अब! नीता जो कुछ कह रही है…वह बेहद अजीब है। अविश्वसनीय। वह पिताजी को अच्छी तरह जानता है।
आदमी कितना भी चतुर क्यों न हो, मन में छिपे सन्देह उसके शरीर से फूटने लगते हैं। इन दोनों ही दिन नीता ने अन्य दिनों की अपेक्षा पिताजी के आगे-पीछे कुछ ज्यादा ही चक्कर लगाए; लेकिन कुछ नहीं। उसके हाव-भाव से ही वह शायद उसके सन्देहों को भाँप गए थे। अपने स्थान पर उन्होंने आँखें मूँदकर बैठे या लेटे रहना शुरू कर दिया।…लेकिन इस सबसे उत्पन्न मानसिक तनाव के कारण रविवार की रात को ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। सन्निपात की हालत में उसी समय उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना जरूरी हो गया। डॉक्टरों और नर्सों ने तेजी-से उनका उपचार कियाइंजेक्शन्स दिये, ग्लूकोज़ चढ़ाया और नवीन को उनके माथे पर ठण्डी पट्टियाँ रखते रहने की सलाह दी…तब तक, जब तक कि टेम्प्रेचर नॉर्मल न आ जाए।
करीब-करीब सारी रात नवीन उनके माथे पर बर्फीले पानी की पट्टियाँ रखता-उठाता रहा। सवेरे के करीब पाँच बजे उन्होंने आँखें खोलीं। सबसे पहले उन्होंने नवीन को देखा, फिर शेष साजो-सामान और माहौल को। सब-कुछ समझकर उन्होंने पुन: आँखें मूँद लीं। फिर धीमे-से बुदबुदाये,कहीं कुछ खनकता है…तो लगता है कि…पकी बालियों के भीतर गेहूँ खिलखिला रहे हैं…वैसी आवाज सुनकर अपना गाँव, अपने खेत याद आ जाते हैं बेटे…।
यानी कि नीता की पाजेबों में लगे घुँघरुओं की छनकार ने पिताजी के मन को यहाँ से उखाड़ दिया! उनकी बात सुनकर नवीन का गला भर आया।
आप ठीक हो जाइए पिताजी… वह बोला,फिर मैं आपको सुनील के पास ही छोड़ आऊँगा…गेहूँ की बालें आपको बुला रही हैं न…मैं खुद आपको गाँव में छोड़कर आऊँगा…आपकी खुशी, आपकी जिन्दगी की खातिर मैं यह आरोप भी सह लूँगा कि…छह महीने भी आपको अपने साथ न रख सका…। कहते-कहते एक के बाद एक मोटे-मोटे कई जोड़ी आँसू उसकी आँखों से गिरकर पिताजी के बिस्तर में समा गए।
पिताजी आँखें मूँदे लेटे रहे। कुछ न बोले।

सोमवार, मई 04, 2009

दु:ख के दिन/बलराम अग्रवाल


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बाकी बची माँसो चार-चार महीना वह बारी-बारी से सबके साथ रह लेगी। सम्पत्ति के मौखिक बँटवारे के बाद बड़े ने माँ के प्रति तीनों भाइयों की जिम्मेदारी तय करते हुए सुझाया।
यह तो माँ को अलग-अलग खूँटों से बाँधनेवाली बात हुई! मँझले ने टोका,तर्क के तौर पर ठीक सही, शिष्टता के तौर पर कोई कभी भी इसे ठीक नहीं ठहरा सकता।
बँटवारे जैसे छोटे काम के लिए माँ की मौत का इंतजार करना भी तो शिष्टता की सीमा से बाहर की बात है। छोटा तुनककर बोला।
माँ के रहते ऐसा करने शायद बड़ा शिष्टाचार है! मँझले ने व्यंग्य कसा।
छोटा तीखे स्वभाववाला व्यक्ति था। संयोगवश पत्नी भी वैसी ही मिल जाने के कारण माँ उसके पास एक-दो दिन से ज्यादा टिक नहीं पाती थी। इसलिए माँ के रख-रखाव का मुद्दा उसके लिए पूरी तरह निरर्थक था। सम्पत्ति के बँटवारे से अलग किसी-और समय यह विवाद उठा होता तो अब तक वह कभी का उठकर जा भी चुका होता।
ठीक है। माँ के बारे में आप दोनों बड़े जो भी फैसला करेंगे, मुझे मंजूर है। मँझले के व्यंग्य से आहत हो वह दो-टूक बोला।
सम्पत्ति के बँटवारे पर बहस के समय इससे पहले तो इसने एक बार भी ऐसा अधिकार हमें नहीं दिया था!बड़े ने अपना माथा मला।
नन्ने! काफी देर सोचने के बाद वह मँझले से बोला।
जी भैया!
तीन बेटे और थोड़ी-सी सम्पत्ति होने का दण्ड माँ को सुबह के दीये-जैसी उपेक्षित जिन्दगी तो नहीं मिलना चाहिए।
मैं तो शुरू से ही आपको यह समझा रहा हूँ भैया! बड़े की बात पर भावावेशवश मँझले की आँखें और गला भर आए।
सवाल यह है कि बँटवारे की यह नौबत हमारे बीच बार-बार आती ही क्यों है? बड़े ने सवाल किया। फिर आगे बोला,हम अगर किसी अच्छे काम के लिए एक जगह बैठें तो माँ बेहद खुश हो। वह भी हमार पास बैठे, हँसे-बोले।…लेकिन, हालत यह है कि हम एक जगह बैठे नहीं कि माँ डर ही जाती है।
मँझला और छोटा सिर झुकाए बड़े की बातें सुनते रहे।
तू वाकई मेरे फैसले को मानेगा न? बोलते-बोलते बड़ा छोटे से मुखातिब हुआ।
जी भैया। छोटे ने धीमे-स्वर में हामी भरी।
और तू भी? बड़े ने मँझले से पूछा।
हाँ भैया। वह बोला।
तब, सबसे पहली बात तो यह कि हमारे बीच जो कुछ भी अब से पहले हुआ, उसे भूल जाओ। माँ को जिससे दु:ख पहुँचता हो, वैसा कोई काम हमें नहीं करना है।
जी भैया!
आओ! बड़े ने दोनों भाइयों को अपने पीछे आने का इशारा किया। तेजी-से चलते हुए तीनों भाई गाँव से बाहर, नहर के किनारे उदास बैठी माँ के पीछे जा खड़े हुए। बँटवारे के सवाल पर जब-भी वे एकजुट होते, वह यहाँ आ रोती थी।
बहते पानी के आगे दु:खड़ा रोने के तेरे दिन खत्म हुए माँ! उसके बूढ़े कंधों पर अपनी अधेड़ हथेलियाँ टिकाकर बड़ा रूँधे शब्दों को मुश्किल-से बाहर ठेल पाया,घर चल!
माँ ने गरदन घुमाई। तीनों बेटों को साथ खड़े देखा। नहर के पानी से उसने आँसू-भरी अपनी आँखें धोईं। धोती के पल्लू से उन्हें पोंछा और तीनों बेटों को अपने अंक में भर लिया, हर बार की तरह।