“यह कौन-सा चारा है, सर?” ट्रक से गिराई जा रही पत्थर की रोड़ी की ओर इशारा करके चमचे ने सांसद महोदय से पूछा।
“चारा नहीं, ये कंकड़ है गिरधर।” नेताजी ने मुस्कराकर जवाब दिया,“यहाँ से गाँव तक सड़क बनवा देने का वादा…।”
“सो तो मैं देख ही रहा हूँ, सर।” गिरधर हें-हें करता हुआ बोला,“लेकिन…”
“लेकिन क्या?”
“लेकिन यह कि…आपको जीत दर्ज किए अभी महीना भी नहीं गुजरा है। लोकसभा ढंग-से अभी गठित भी नहीं हो पायी है…और आप हैं कि चुनावी-वादों को पूरा करने में जुट गये हैं! काम करवाना शुरू कर दिया है इलाके में…!”
“काम करवाना नहीं, कंकड़ डलवाना…” नेताजी ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ चमचे को टोका।
“कंकड़ भी डलवाया तो सड़क बनवाने के लिए ही जा रहा है न!”
“सड़क बनवाने के लिए नहीं, बल्कि सड़क की शक्ल में गाँव तक इसे बिछवा देने के लिए…।”
“मतलब?”
“मतलब तू यों समझ कि गाँव एक गहरा घड़ा है और वोट इसमें भरा पानी हैं। अपनी बाँह को कन्धे तक इसके मुँह में डाल देने पर भी वोटों को पकड़ से दूर पाता हूँ। ये कंकड़ वोटों के तल को ऊपर लाने में मददगार सिद्ध होंगे।”
“यह सब तो मैं समझ रहा हूँ हुजूर,” चमचा बोला,“मैं तो सिर्फ यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि वोटों के तल को ऊपर लाने की कवायद इतनी जल्दी क्यों शुरू कर दी सरकार ने!”
“विरोधियों की कारगुजारियों पर लगाम कसे रखने के लिए यह कवायद बेहद जरूरी है गिरधर।” नेताजी ने समझाया,“अभी ये कंकड़ गिराये जा रहे हैं, अगले साल इन्हें बिछवाना शुरू किया जायेगा, उसके बाद उन्हें समतल करने का काम जारी होगा, चौथे साल…यों समझ ले कि पूरी पंचवर्षीय योजना है!”
“गजब!” चमचे के मुँह से निकला।
“और सड़क तो इस गाँव तक अगली पंचवर्षीय योजना के अंत तक ही पहुँच पायेगी।” नेताजी ने कहा।
“वह भी तब, जब उस बार भी आप ही जीतकर आवें।” चमचे ने जोड़ा।
“समझदार है!” उसकी पीठ पर धौल जमाकर नेताजी मुस्कराये,“चल, वापस चलते हैं।”
3 टिप्पणियां:
सुन्दर रचना. इसे पढ़वाने के लिये धन्यवाद.
वर्तमान राजनीति के भौंडे स्वरूप पर एक गहरा व्यंग्य करती है यह लघुकथा।
इस करारे व्यंग के लिए आपकी जितनी तारीफ की जाये...कम है.
नीरज
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