गुरुवार, मार्च 26, 2009

ज़हर की जड़ें/बलराम अग्रवाल



फ्तर से लौटकर मैं अभी खाना खाने के लिए बैठा ही था कि डॉली ने रोना शुरू कर दिया।
अरे-अरे-अरे, किसने मारा हमारी बेटी को? उसे दुलारते हुए मैंने पूछा।
डैडी, हमें स्कूटर चाहिए। सुबकते हुए ही वह बोली।
लेकिन तुम्हारे पास तो पहले ही बहुत खिलौने है!
इस पर उसकी हिचकियाँ बँध गईं। बोली,मेरी गुड़िया को बचा लो डैडी!
बात क्या है? मैंने दुलारपूर्वक पूछा।
पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुड़िया की शादी करके हमसे हमारी गुड़िया छीन ली… डॉली ने जोरों से सुबकते हुए बताया,अब कहती हैदहेज में स्कूटर दो, वरना आग लगा दूँगी गुड़िया को।…गुड़िया को बचा लो डैडी…हमें स्कूटर दिला दो।
डॉली की सुबकियाँ धीरे-धीरे तेज होती गईं और शब्द उसकी हिचकियों में डूबते चले गए।

3 टिप्‍पणियां:

पत्रकार ने कहा…

आपका अंदाज़ बहुत प्रभावशाली है।

आदर्श राठौर ने कहा…

आपका अंदाज़ बहुत प्रभावशाली है

सुभाष नीरव ने कहा…

लघुकथा भारतीय समाज में चली आ रही बहुत पुरानी कुप्रथा -दहेज प्रथा पर चोट करती है। पर क्या है भाई, लघुकथा का अन्त शुरूआत में ही पता चल जाता है कि यही होगा।