पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…र—चौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
“सुनिए…” पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,“पिताजी शायद…”
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
“ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा?” हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और ‘टप्’ की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! ‘टप्’ की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दीं—लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।
6 टिप्पणियां:
बलराम जी कई बार पढ़ चुका हूं लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पाया. कृपया भावार्थ बताएं...
जय हो! मैं समझ गया. दरअसल मैं पेट फाड़ने वाली बात नहीं का मतलब नहीं समझ रहा था. अब समझ गया इसलिए पूरी कथा समझ में आ गई.
भाई विवशता और असहाय होने का ऐसा चरम कि बेटे को मृत पिता का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक देने के लिए मज़बूर होना पड़े। बहुत भयावह अन्त है ! पर भाई जब तुम अन्तिम पैराग्राफ से ऊपर ये पंक्तियां लिखते हो कि -"टप की आवाज़ ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियां खोल दीं- लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो !…" इसके बाद तो और कुछ लिखने को रह ही नहीं जाता। दूसरी बात कि बेशक यह वीभत्स सच है परन्तु नेगेटिव एप्रोच को दर्शाता है। लेखक को अपनी रचनाओं में ऐसे नेगेटिव एप्रोच वाले अन्त से बचना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि ऐसी भयावह स्थितियों में भी पोजीटिव एप्रोच का वह सहारा ले! खैर, तुम एक सिद्धस्त और विचारवान लेखक हो, तुम्हारा नज़रिया कुछ और हो सकता है।
प्रिय भाई
निष्पक्ष टिप्पणी हेतु आभार। इस बारे में प्रिय आदर्श राठौर को 8 सितम्बर, 2010 को ई-मेल द्वारा प्रेषित अपना मन्तव्य यहाँ लिख रहा हूँ। हो सकता है कि यह एक-और बहस को जन्म दे।
'प्रिय भाई
उत्तर देने के लिए आभार। आपके मित्र ने सही अनुमान लगाया। कथा को यह समापन देने के पीछे यह दर्शाना रहा कि कुछ दमन कितने छिपे तरीके से किये जाते हैं। कर्फ्यू के नाम पर आम आदमी को इलाज कराने को जाने देने जैसे मूल-अधिकारों से वंचित कर देना किस हद तक न्यायपूर्ण है? बेशक, किताबों में तो सारे अधिकार दर्ज़ हैं, लेकिन वास्तव में? दमनपूर्ण व्यवस्था आम आदमी को एकदम से संघर्षशील नहीं बनाती। शुरू-शुरू में वह निहायत दब्बू , असामाजिक और अपसंस्कृत बनाती है। संघर्षशीलता का अंकुर यहीं से फूटता है, कभी जल्दी-कभी देर से।'
बलराम जी मैंने पहले भी आपकी कई लघुकथायें पढी है। ये लघुकथा भी बहुत ही करारा आघात है व्यवस्था की बुराईयों के प्रति.......
वपर भाई जब तुम अन्तिम पैराग्राफ से ऊपर ये पंक्तियां लिखते हो कि -"टप की आवाज़ ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियां खोल दीं- लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो !…"
__________________________________
हालांकि लघुकथा एक आक्रोश पैदा करती है किंतु
सुभाष जी का सवाल सही है - क्र्फ्यू होने के बावजूद क्या कोई बेटा इतना संवेदनहीन हो सकता है? यह बहुत बडा सवाल है।
एक टिप्पणी भेजें