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फोटो:आदित्य अग्रवाल |
“जरूरत नहीं पड़ी कभी।” उसके इस सवाल पर लड़के ने स्थिर अंदाज में उत्तर दिया।
“क्यों?” उसने पूछा।
“पूर्वजन्मों के सत्कर्मों के बल पर हर बार ब्राह्मणों के परिवार में जन्म लेता हूँ सेठ। इसी से वाणी को इतना सत्व मिला है कि बिना पढ़े भी मुख से निकला हर शब्द श्लोक है।” जड़-विश्वास से भरे स्वर में वह बोला।
“यह किसने बताया तुम्हें?”
“बताने की जरूरत ही कुछ नहीं है। ब्रह्मवेत्ता पूर्वजों का वंशज होने के नाते इतना ज्ञान तो स्वत: ही प्राप्त है।” वह बोला।
“आत्मज्ञानी होकर भीख माँगते हो, शर्म नहीं आती?”
“परमारथ के कारने साधुन धर्या सरीर।” इस पर वह त्रिपुण्डधारी दर्पपूर्वक बोला,“नीची जातियों में जन्मे मनुष्यों को इस और उस दोनों लोकों में सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दे सकने वाली जाति में पैदा हुआ हूँ। पेट पालने के लिए इस उपकार के बदले थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा लेने में शर्म कैसी?”
उसे लगा कि इस मूर्ख के पास वह अगर दो पल भी और रुका तो रक्तचाप बहुत बढ़ जाएगा।
“है कुछ देने और आशीर्वचन लेने की नीयत?”
“शटा…ऽ…प!” बाढ़ का पानी जैसे बाँध को तोड़कर फूट पड़ता है, वैसे ही वह चिल्लाया और बामुश्किल ही अपनी हथेली को झापड़ बनने से रोक पाया।
9 टिप्पणियां:
बहुत सही... जय हो
बहुत गहरा व्यंग्य है इस लघुकथा में । झापड़ पड़ गया होता तो ब्र्ह्मज्ञान का भूत उतर जाता ।
लघुकथा में जिस कटु सच की ओर इशारा करने की कोशिश की गई है,वह भारतीय समाज में यत्र-तत्र दिखाई देता है। लघुकथा अपने मनोरथ में सफल हुई है !
लघुकथा चोट तो जरूर करती है। पर मेरे मत में यह आपकी एक कमजोर लघुकथा है। लेखक को पूर्वाग्रही नहीं होना चाहिए। आप पहले ही उसे मूर्ख कहकर एक मत का निमार्ण कर दे रहे हैं। दूसरे किसी वर्ग विशेष का उल्लेख करके आप पक्षपाती हो रहे हैं। लघुकथा का अंत भी हताशा प्रगट करता है। लघुकथा पाठक पर ही चोट करती है,प्रवृति पर नहीं।
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लघुकथा एक प्रवृति की तरफ इशारा करती है और वह है बिना कुछ किए धरे पैसे कमाना। यह उसका एक उदाहरण है। इसे बिना किसी वर्ग विशेष की बात किए भी बेहतर तरीके से कहा जा सकता है।
अच्छा होता यदि एक करारा थप्पड़ पड़ जाता | ऐसे ब्राह्मण ही तो समाज के कोढ़ हैं | लघुकथा बहुत अच्छी लगी |
सुधा भार्गव
Halanki aadarniy Rajesh ji ki samalochana apani jagah thik hai, par ek bat yah bhii hai ki jab kisi varg vishesh ka chola odakar buraiyan samane aatii hain,to lekhak un cholon se takarane se kaise bach sakata hai? Yah laghukatha mera dhyan is tathya ki or bhii khinchati hai ki thodi si umra ke yuwaon ko is tarah ke galat raston par dalane wale unake balman ko kaise-kaise kutarkon aur ooljalol tathyon se bhar dete hain aur unhen kis had tak behaya bana dete hain! Ek alag tarah ka vishay bhii yah.
प्रणाम !
हम स्वयं ही i अपने पे कीचड़ उछाल रहे है . चाहे जात के नाम पे चाहे मज़हब के नाम पे , फिर दोष पराये को क्यूँ दे < सुंदर चित्रण !
साधुवाद !
अग्रवाल जी
आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ.मन प्रशन्न हो गया, बहुत अच्छा लिखते हैं आप..... बेहतरीन लघु कथा. देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर..... जैसी लघुकथा. ..आभार.
sahi abhivyakti...sach i
bahut mushkil se aise samay khud ko roka ja sakta hai...thotha ahankar...
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