मित्रो, 'कथायात्रा' में आज से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' के कुछेक अंशों को प्रस्तुत करना शुरू कर रहा हूँ। इसे यथासम्भव मैं पाक्षिक रूप से जारी करूँगा।
(पहली कड़ी)
दीदी…ऽ…ऽ…दीदी…ऽ…!!
चित्र:बलराम अग्रवाल |
बाहर लॉन में धूप सेंक रहे दादाजी के पास से उठकर
निक्की मणिका को पुकार उठा। वहाँ खड़े रहकर उसने एक–दो आवाज़ें और लगाईं, फिर भागकर घर के अन्दर आ गया। यह कमरा, वह कमरा, स्टोर, बाथरूम—उसने सब देख डाले लेकिन मणिका का कहीं कोई पता
न चला।
‘‘मम्मी! दीदी किधर है ?’’ हताश होकर वह रसोई में गया और ममता से पूछा।
‘‘क्यों, दोनों
की कुट्टी दोबारा दोस्ती में बदल गई क्या ?’’ आटा गूँथती हुई ममता ने मुस्कराते हुए पूछा।
‘‘बताओ न मम्मी।’’ निक्की ने पैर पटकते हुए पुन: पूछा।
‘‘पहले तुम बताओ।’’ ममता उसी तरह मुस्कराती रही।
‘‘बताओ न!’’ निक्की रसोई के अन्दर आकर उनकी टाँगों से लिपट गया और नोंचने लगा।
‘‘अरे–अरे,
चप्पलें बाहर उतारो।’’
आगामी अंक में जारी…
1 टिप्पणी:
भरपूर पठनीयता है. कथानक में गति भी. बच्चों की आपसी शरारतें, बातचीत आदि भी स्वाभाविक है. यात्रा प्रधान उपन्यास तथ्यपरक रहने के दबाव में अक्सर बोझिल हो जाते हैं. इसे पढ़कर लगा कि ऐसा नहीं होगा. मानो पहले ही ठान लिया है कि पाठक को बोर नहीं होने देना है. वैसे भी गति अपने आप में भरपूर मनोरंजन प्रधान होती है. परंतु अत्यधिक गति के बीच कभी—कभी परिवेश ओझल होने लगता है. आपकी सिद्धहस्त कथागोई इसको संभाले रखेगी, ऐसी उम्मीद है. मेरी ओर से हार्दिक बधाई. उपन्यास जल्दी से जल्दी पढ़ने को मिले यही कामना है.
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