मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। इसे मैं पाक्षिक रूप
से जारी करने का वादा था लेकिन दूसरी ही किस्त में एक सप्ताह लेट हूँ, माफी चाहता
हूँ। आप सभी से अनुरोध है कि इसकी प्रस्तुति में जो भी सम्भावना शेष नजर आये, नि:संकोच बताएँ ताकि इसे सुधारा जा सके।
गतांक से आगे…
(दूसरी कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
‘‘मई
के अन्त में…’’ निक्की ने बताना
शुरू किया लेकिन बताने का अन्दाज़ उसका पहले–जैसा किसी गहरे रहस्य पर से परदा हटाने की तरह का ही
रहा। मणिका ने इस बार कुछ सब्र्र से काम लिया। उसने निक्की की चुप्पी पर कोई
प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। कुछ पल बाद अन्तत: निक्की स्वयं ही बोला,‘‘मई के अन्त में दादाजी हमें ले जाएँगे…ऽ…बदरीनाथ
यात्रा पर ।’’
‘‘हुर्रे…ऽ…!’’ यह सुनते
ही मणिका खुशी से उछल पड़ी । दौड़ती हुई वह वापस दादाजी के निकट जा पहुँची और पूछने
लगी,‘‘निक्की सच कह रहा है
दादाजी ?’’
‘‘एकदम सच!’’ दादाजी
मुस्कराते हुए बोले।
‘‘हुर्रे…ऽ…!’’ दादाजी का
जवाब सुनते ही मणिका एक बार पुन: किलक उठी ।
‘‘आप कितने अच्छे हैं दादाजी!’’ दादाजी को अपनी नन्हीं बाहों में घेरने की कोशिश करते हुए वह बोली,‘‘यह बात मम्मी को बता दूँ?’’
‘‘अभी नहीं।’’ दादाजी ने
कहा,‘‘पहले अपनी परीक्षाएँ
समाप्त करो। अच्छा ग्रेड लेकर अगली कक्षा में पहुँचो। पहले सेशन की एक महीना पढ़ाई
करो। उसके बाद गर्मी की छुट्टियों में तय करेंगे कि कहाँ जाना है—बदरीनाथ या कहीं–और!…और, तुम लोगों को साथ ले चलना है या नहीं।’’
‘‘दादाजी!!’’ दोनों बच्चों
ने शिकायती स्वर में एक–साथ कहा
।
‘‘अब जाओ। घर की और अपने शरीर की सफाई करो। खाओ–पीओ और पढ़ो।’’ दादाजी ने हँसते हुए कहा।
निक्की और मणिका दोनों दादाजी के पास से उठ खड़े हुए। एक–दूसरे की गरदन में बाँहें डालकर वे बुझे मन से
घर के भीतर की ओर चल दिए। उन्हें इस तरह जाते देखकर दादाजी धीरे–से मुस्कराए और कुर्सी को धूप में खिसकाकर
अखबार पढ़ने में तल्लीन हो गए।
परीक्षाएँ समाप्त हुईं। परिणाम घोषित हुए। मणिका और निक्की दोनों ही अपनी–अपनी कक्षाओं में ए–प्लस ग्रेड लेकर पास हुए। एक भव्य समारोह में स्कूल के
प्राचार्य ने उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले सभी छात्र–छात्राओं को पुरस्कार तथा प्रशस्ति–पत्र प्रदान किये।
आगामी दिन से स्कूल पुन: खुला। अत्यन्त प्रफुल्लित मन से बच्चे नयी
कक्षाओं में जाकर बैठे। नयी पुस्तकों के बीच उनका चहकना उनकी खुशी की गवाही देता
था। लेकिन उनके मन पर यह दबाव भी हमेशा बना रहता था कि कब एक महीने का यह नया सेशन
समाप्त हो और कब पढ़ाई के इस बंधन से मुक्त हो कुछ दिनों के लिए वे सैलानी बन जाएँ।
इस चिन्ता के चलते दोनों बच्चों ने बड़ी बेसब्री के साथ पहले सेशन की पढ़ाई
समाप्त की।
छुट्टियाँ घोषित करने वाले दिन प्राचार्य महोदय के लिखित अनुरोध को
स्वीकार कर अधिकतर बच्चे अपने माता–पिता
के साथ स्कूल पहुँचे। सभी अभिभावकों को अध्यापकों व अन्य स्कूल–स्टाफ की मदद से आदर सहित स्कूल–भवन के सेमिनार कक्ष में निर्धारित सीटों पर
बैठाया गया। छात्र–छात्राएँ अपनी–अपनी कक्षा में बैठे। प्राचार्य महोदय ने सभी
छात्रों को पंक्तिबद्ध होकर स्कूल–भवन
के सेमिनार कक्ष में एकत्र होने का आदेश भिजवाया था। अध्यापकों ने अपनी अनुपस्थिति
में इस कार्य को सम्पन्न करने का जिम्मा प्रत्येक कक्षा के मॉनीटर को सौंपा था।
पंक्तिबद्ध होकर सभी छात्र कक्षा–मॉनीटर्स
की देखरेख में वहाँ पहुँच गये। निगम पार्षद एवं विधायक सहित क्षेत्र के कुछ अन्य
गण्यमान्य लोग भी स्कूल–प्रशासन
के आमन्त्रण पर आए हुए थे। उन सबको मंच के ठीक सामने सोफों पर बैठाया गया था।
प्राचार्य एवं अध्यापकगण भी सोफों पर बैठे तथा समस्त छात्र उनके पीछे लगी कुर्सियों
पर।
कार्यक्रम शुरू हुआ।
सबसे पहले आमन्त्रित गण्यमान्य लोगों द्वारा विद्या की देवी ‘माँ सरस्वती’ की ताम्र–प्रतिमा के आगे रखे दीपों को प्रज्वलित कर उन्हें पुष्प अर्पित किए गए।
तत्पश्चात् विद्यालय की संगीत–अध्यापिका
के निर्देशन में तैयार कुछ छात्र–छात्राओं
द्वारा संगीतमय सरस्वती–वन्दना
प्रस्तुत की गई —
माँ शा…ऽ…रदे! वर दे ।
वरदे…ऽ…! वर दे ।
श्वे…ऽ…त पद्मा……ऽ…सने! चरणों…ऽ… में शरण दे ।
वरदे…ऽ…! वर दे ।
आगामी अंक में जारी…
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