रविवार, मार्च 31, 2013

देवों की घाटी/बलराम अग्रवाल


                                  चित्र:बलराम अग्रवाल

 मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की तीसरी कड़ी…
गतांक से आगे…
             (तीसरी कड़ी)
दादाजी के साथ स्कूल से घर लौटते हुए दोनों बच्चे रास्तेभर आगामी यात्रा के बारे में ही परस्पर चर्चा करते और खुश होते रहे। घर पहुँचकर वे चहकते हुए ममता के पास पहुँचे और एकएक कर उन्होंने विद्यालय में हुए सारे रंगारंग कार्यक्रमों के बारे में बताना शुरू कर दिया। कभी निक्की बताते हुए बीच में कुछ भूल जाता तो मणिका उसमें संशोधन करती और मणिका कुछ भूल जाती तो निक्की उसमें संशोधन करता।
ममता घर का काम करते हुए ही दोनों की बातें सुनती रही।
दादाजी ने मना न कर रखा होता तो एक ही झटके में वे लम्बी यात्रा पर ले जाने की उनकी बात भी बोल ही चुके होते। सारी बातें मम्मी को बताने के दौरान उन्होंने कैसे अपनी जुबान पर काबू रखा, इसे बस वे ही समझ सकते थे।
मणिका को जब यह महसूस होने लगा कि अब अगर वे थोड़ी देर भी मम्मी के पास रुके तो मन की बात जुबान पर आ ही जायगी, तब बहाना बनाकर वह निक्की को वहाँ से उठाकर बाहर ले गयी।

उसके बाद बाकी ग्यारह दिनों तक दादाजी ने उन्हें यात्रा के दौरान काम आने वाली ज़रूरी चीज़ें बताने और उन्हें इकट्ठा करने में व्यस्त रखा। रस्सी, चाकू, एक छोटा और एक बड़ा ताला, टॉर्च, लाइटर, दो इलैक्ट्रॉनिक लालटेनें, मोमबत्तियाँ, दोचार क्लिप्स, बैंडएड्स, नेपकिन्स, टिश्यू पेपर, नहाने व कपड़े धोने के लिक्विड साबुन, टूथपेस्ट, हाजमे की गोलियाँ और चूर्ण। पहनकर चलने के लिए कपड़े के जूते, सिर ढँकने के लिए गर्म टोपियाँ व मफलरस्कार्फ। औरभी पता नहीं क्याक्या।
ठीक पहली जून को हुआउनकी यात्रा का शुभारम्भ। जल्दी करतेकरते भी ये लोग दोपहर के बाद ही घर से निकल पाए। प्रसन्न मन से निक्की और मणिका टैक्सी में सवार हो गए। उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि मम्मी और डैडी भी दादाजी के साथ आ रहे हैं।
‘‘मम्मीडैडी आप भी!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।
‘‘जी हाँ, हम भी।’’ सुधाकर ने रौब के साथ कहा। ममता केवल मुस्कराकर रह गई।
‘‘दादाजी, आपने तो हमसे कहा था कि यात्रा पर जाने की बात लीकआउट नहीं करनी है!…’’ इस पर मणिका ने शिकायतभरे अन्दाज़ में दादाजी से कहा,‘‘सरप्राइज़ देना है।’’
‘‘हाँ तो, मिल गया न सरप्राइज़।’’ सुधाकर बोले,‘‘हमें न सही, तुम्हें।’’
‘‘दिस इज़ चीटिंग दादाजी!’’ निक्की दादाजी से रूठने के अन्दाज़ में बोला।
‘‘मैंने कोई चीटिंग नहीं की।’’ दादाजी बोले,‘‘मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने जो बात छिपाए रखने को कहा था, उसे दोनों पक्षों ने निभाया।’’
बच्चों ने इसके बाद कोई शिकायत नहीं की क्योंकि वस्तुत: तो वे खुश थे कि मम्मीडैडी भी उनके साथ यात्रा पर चल रहे हैं।

यात्रा शुरू हुई।
‘‘पहली बार अब से दस साल पहले गए थे हम इस यात्रा पर, है न बाबूजी?’’ टैक्सी आगे बढ़ी तो सुधाकर ने बात शुरू की,‘‘निक्की तो तब पैदा भी नहीं हुआ था।’’
‘‘ठीक कहता है।’’ दादाजी ने हामी भरी,‘‘लेकिन तब हम टैक्सी से नहीं, ट्रेन से गए थे और तेरी मम्मी और बच्चों का चाचा विभाकर भी साथ थे।’’
‘‘मम्मीजी इस बार विभाकर भैया के साथ मैसूरऊटी की यात्रा का आनन्द लेने गई हैं।’’ ममता बोली,‘‘वे इस बार भी हमारे साथ ही रहतीं तो कितना मजा आता।’’
‘‘ठीक है बहू, वह साथ रहती तो परेशान ही ज्यादा करती।’’ दादाजी ने कहा,‘‘तुम्हें तो पता ही है कि यात्रा में उसे उल्टियाँ आने की बहुत तगड़ी बीमारी है।’’
‘‘वह बीमारी भी झेल ही ली जाती बाबूजी।’’ ममता ने कहा,‘‘अब विभाकर भैया भी तो उसे झेलेंगे ही।’’
‘‘चलो अब मजा किरकिरा न करो उसका बारबार नाम लेकर।’’ दादाजी शरारती अन्दाज़ में बोले।
‘‘बाबूजी…!’’ ममता ने बनावटी तौर पर आँखें दिखाते हुए तुरन्त उन्हें टोका,‘‘आने दो मम्मीजी को…उन्हें बताऊँगी यह बात ।’’
‘‘अरे तू सीरियसली मत लिया कर मजाक को।’’ दादाजी ने कहा ।
‘‘…और आप लोग जो मजाकमजाक में कह जाते हो सीरियस बात को, उसका क्या?’’ ममता ने तर्क पेश किया। फिर सुधाकर की ओर इशारा करके बोली,‘‘पता है, ये कितनी सीरियस बातें कर जाते हैं मुझसे ? और पकड़े जाने पर कहेंगेमैं तो मजाक कर रहा था। एकदम आप ही पर गए हैं…।’’
‘‘अरे, उनका बेटा हूँ तो उन्हीं पर जाऊँगा न!’’ उसकी बात सुनकर सुधाकर बीच में बोल उठे ।
‘‘बेटे तो मम्मीजी के भी हो, उन पर क्यों नहीं गए?’’ ममता ने पूछा।
‘‘कुछ बातों में तो उन पर भी गया हूँ।’’ सुधाकर ने कहा,‘‘वो तुमसे डरती हैं, मैं भी डरता हूँ।’’
‘‘हे भगवान! माफ कर देना अगर मैंने एक पल के लिए भी उन्हें डराए रखना चाहा हो…’’ सुधाकर की इस बात पर ममता अपने दोनों कानों को हाथ लगाकर रुआँसी आवाज में बोली।
‘‘बस हो गई छुट्टी!’’ पीछे बैठी मणिका के मुँह से निकला,‘‘आपने मम्मी का मूड ऑफ कर दिया डैडी।’’
‘‘अब मजाक की बात को सीरियसली लेगी तो इसका क्या हमारा भी मूड ऑफ हो जाएगा।’’ सुधाकर ने कहा, फिर ममता की ओर कान पकड़कर बोला,‘‘सॉरी यार!’’
‘‘मम्मी, कम ऑन यार!’’ पीछे से निक्की बोला,‘‘मै आपके साथ हूँ।’’
‘‘मैं भी।’’ मणिका ने कहा।
‘‘और मैं भी…’’ दादाजी बोले।
‘‘और मैं तो बैठा ही इनके साथ हूँ।’’ सुधाकर ने कहा। फिर ममता से बोले,‘‘नो टियर्स ड्यूरिंग द जर्नी माई डियरयात्रा पर निकले हैं, हँसतीमुस्कराती रहो।’’
ममता ने सिर्फ गरदन हिलाकर हामी भरी और लम्बी साँस खींचकर तनकर बैठ गई।
आगामी अंक में जारी

2 टिप्‍पणियां:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

तीनों किस्‍तें पढ़ लीं एक साथ। पहली और तीसरी किस्‍त में जो रवानगी है,वही रहनी चाहिए..तभी उसमें पठनीयता बनी रह पाएगी। दूसरी किस्‍त थोड़ी बोझिल हो जाती है। ..अगर यह उपन्‍यास बच्‍चों और किशोरों के लिए है तो आपको प्रयुक्‍त की जाने वाली भाषा का ध्‍यान रखना पड़ेगा। कहीं कहीं वह वयस्‍कों पाठकों की भाषा है।....और इसके नाम पर आपको फिर से विचार करना चाहिए।..देवों की घाटी ...नाम कुछ चमत्‍कारी उपन्‍यास के नाम जैसा लगता है।

सुभाष नीरव ने कहा…

मैं राजेश उत्साही जी की बात से पूर्णत: सहमत हूँ। बच्चों और किशोरों के लिए किए जाने वाले लेखन में व्यस्कों वाली भाषा से बचना चाहिए, खुशी की बात है कि तुम बचे हो, पर कहीं कहीं आ भी गई है… 'शीर्षक' मुझे तो ठीक ही लगता है, पर पूरा उपन्यास पढ़कर ही बताया जा सकता है कि यह उपयुक्त है या नहीं।