बुधवार, जुलाई 03, 2013

देवों की घाटी/बलराम अग्रवाल



मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की  पाँचवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                          (पाँचवीं कड़ी)
                                                 चित्र:बलराम अग्रवाल
ममता और दोनों बच्चे चलती हुई टैक्सी में उन बापबेटे द्वारा बैठेबैठे खेला जा रहा यह ड्रामा देखतेसुनते रहे। अल्ताफ हालाँकि तन्मयता से गाड़ी चला रहा था तथापि ड्रामे का मज़ा वह भी ले रहा था। इस बात का प्रमाण उसके होठों पर बीचबीच में आ जाने वाली मुस्कान थी। टैक्सी में अब भूतकाल का ड्रामा शुरू हो चुका था।
‘‘अचानक ही रेलवे इन्क्वायरी पर पूछताछ की थी,’’ सुधाकर ने बताया,‘‘पता चला कि गाड़ी दो घण्टे लेट है। बड़ा मलाल हुआ। सोचाघर से आपके निकलने से पहले ही मालूम कर लेता तो अच्छा रहता। आप बेकार ही प्लेटफार्म पर बोर हो रहे होंगे। बस, ऑटो किया और चला आया।’’
‘‘चलो अच्छा हुआ ।’’ दादाजी बोले,‘‘तुम न आते तो हमें शायद सारे डिब्बे झाँकने पड़ते।’’
‘‘अरे नहीं बाबूजी, इन कुलियों को सारे डिब्बों की पोजीशन और लोकेशन मालूम रहती है कि कौनसा कम्पार्टमेंट इंजन से कितना पीछे लगता है और प्लेटफार्म पर किस जगह पर आकर रुकता है।’’
‘‘हम लोग अभी ये बातें कर ही रहे हैं कि गाड़ी के इंजन ने सीटी दे दी । उसकी आवाज़ सुनकर ट्रेन में सबसे पीछे लगे अपने डिब्बे के गेट पर खड़े होकर गार्ड ने हरी झंडी हिला दी है और  गाड़ी ने प्लेटफार्म से खिसकना शुरू कर दिया है।’’ दादाजी उसी अवस्था में बोलते रहे,‘‘अरे, गाड़ी चल दी!तेरी मम्मी ने चैंककर अचानक कहा है। तुम कम्पार्टमेंट से उतरने के लिए चल दिए हो। सँभलकर उतरनामैं तुमसे कह रहा हूँ। जी बाबूजीकहकर तुम नीचे उतर गए तथा प्लेटफार्म पर खड़े होकर हमें विदा देने के लिए अपना दायाँ हाथ हिलाने लगे हो। बच्चों ने भी प्लेटफार्म पर खड़े अपने पापा को खिड़कियों से बाहर निकालकर अपनाअपना हाथ हिलाते हुए टाटाकहना शुरू कर दिया है।’’ यों कहकर दादाजी ने अपनी आँखें खोल लीं और बोले,‘‘ट्रेन ने गति पकड़ ली है। प्लेटफार्म और उस पर खड़े तुम दू…ऽ…र, बहुत दू…ऽ…र छूट गए हो, हम अपनी सीट पर बैठ गए हैं।’’
‘‘वा…ऽ…व! क्या लाइव ड्रामा क्रिएट किया डैडीजी और दादाजी ने मिलकर । मज़ा आ गया।’’ मणिका बोली ।
‘‘आखिर डैडी और दादा हैं किसके…’’ निक्की अपनी पीठ आप थपथपाता हुआ बोला,‘‘मेरे!’’
‘‘अकेले तेरे नहीं,’’ मणिका ने कहा,‘‘मेरे भी।’’
‘‘हम दोनों के।’’ निक्की ने कहा।
‘‘हाँ।’’ वह बोली और तपाक से उससे हाथ मिलाया।
ममता उन दोनों की बातें सुनती मुस्कराती रही।
टैक्सी तेज़ गति से आगे बढ़ती जा रही थी।

यात्रा रातभर चलती रही।
बातें करते और सुनते मणिका तथा निक्की को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। ममता भी उनके कुछ ही देर बाद सो गई थी। न सोए तो केवल सुधाकर और दादाजी। दरअसल, ड्राइवर के मनोबल को बनाए रखने और उसे नींद के झटकों से बचाए रखने के लिए उसके साथ बैठी सभी सवारियों का जागे रहना जरूरी है। यों तो अनुभवी ड्राइवरों को अपनी नींद पर काबू पाना आ जाता है इसलिए वह सवारियों के सोने न सोने की अधिक चिन्ता नहीं करते। फिर भी, समझदारी इसी में है कि साथ बैठी सवारियाँ जागती रहकर उसका साथ निभाएँ।
सुबह के लगभग चारसाढ़े चार बज गए थे। बाहर अभी भी काफी अँधेरा था, लेकिन यह आभास होने लगा था कि कुछ शहरीसा इलाका शुरू हो गया है। सुधाकर अपनी आँखें फाड़फाड़कर कभीकभार नज़र आने वाले साइन बोर्ड्स पर उस जगह का नाम पढ़ने की कोशिश करने लगे लेकिन बाहर के अंधकार और गाड़ी की रफ़्तार के कारण किसी भी बोर्ड पर कुछ पढ़ नहीं पा रहे थे। किंचित चहलपहल भरे एक चैराहे के निकट अल्ताफ ने टैक्सी को सड़क किनारे बने एक पेट्रोल पंप पर जा खड़ा किया और बोला,‘‘नजीबाबाद आ गया सर जी। मैं जरा फ्रेश होकर आता हूँ। आप लोग बैठिए।’’
यों कहकर वह वहाँ के एक कर्मचारी से टॉयलेट का रास्ता पूछकर पेट्रोल पंप के पिछवाड़े चला गया।
‘‘पेट्रोल पंप तो पीछे भी कई नजर आए थे, वहाँ क्यों नहीं रुक गया यह?’’ सुधाकर दादाजी को सुनाते हुए बुदबुदाए।
‘‘समझदार है इसलिए।’’ दादाजी बोले।
‘‘बाबूजी, बुजुर्गों ने कहा है कि भीतर के किसी भी दबाव को रोकना नहीं चाहिए।’’ सुधाकर ने कहा,‘‘वह चाहे छींक का दबाव हो, खाँसी का दबाव हो, हवा पास होने का दबाव हो या कोईऔर…।’’
‘‘इसका मतलब हुआ कि अल्ताफ की जगह तुम होते तो फ्रेश होने के लिए पिछले किसी भी पेट्रोल पंप पर गाड़ी को रोक देते?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘बेशक।’’ सुधाकर बोले।
‘‘यानी कि तुम वह बेवकूफी करते जिसकी उम्मीद कम से कम मैं तो तुमसे नहीं करता।’’
‘‘कैसी बेवकूफी?’’ सुधाकर ने पूछा।
‘‘देखो बेटा, किसी बात को सिर्फ इसलिए नहीं मान लेना चाहिए कि उसे बुजुर्गों ने कहा है या हमारे ऋषिमुनियों ने उसे शास्त्रों में लिखा है। उन सबको जो बुद्धि मिली थी, वही तुम्हेंे भी मिली है। इसलिए किसी काम को करने न करने का निर्णय अपने विवेक के अनुसार करना चाहिए, किताबी ज्ञान के अनुसार नहीं । शास्त्रज्ञान पाकर काशी से अपने घर की ओर लौट रहे चार ब्राह्मणपुत्रों की कथा तो तुमने पढ़ी ही होगी?’’ दादाजी ने कहा।
‘‘नहीं तो।’’
‘‘नहीं! तो सुनो
काशी के एक उच्चस्तरीय गुरुकुल से शिक्षा समाप्त करके चार ब्राह्मणपुत्र अपनेअपने घर को लौट रहे थे। चलतेचलते वे एक घने जंगल से गुजरे। जब वे उसके बीचोंबीच पहुँचे तो रास्ते में उन्हें हड्डियों का एक ढेर पड़ा मिला। वे वहाँ रुक गए और आपस में विचार करने लगे कि हड्डियों का यह ढेर किस प्राणी का हो सकता है? काफी माथापच्ची करने पर भी उनकी समझ में कुछ नहीं आया। तब, उनमें से एक ने कहा—‘अरे, हम बेकार ही इतनी देर से माथापच्ची कर रहे हैं। हमारी विद्या आखिर किस दिन काम आएगी?’
यह कहकर उसने अपने कंधे पर लटके थैले में हाथ डालकर कागज़ की एक पुड़िया निकाली। उसे खोलकर उसमें रखी भभूति को अपने दाएँ हाथ की हथेली पर रखा। आँखें मूँदकर कोई मंत्र पढ़ा और हथेली पर रखी भभूति को फूँक मारकर हड्डियों के ढेर पर उड़ा दिया।
आश्चर्य! भभूति पड़ते ही सारी की सारी हड्डियाँ आपस में जुड़ गर्ईं और किसी जानवर के कंकाल में बदल गईं।
यह देखकर वे पुन: आपस में विचार करने लगे कि सामने पड़ा कंकाल किस जानवर का हो सकता है?  कुछ देर बाद उनमें से एक अन्य बोला—‘चलो, मैं भी अपने शास्त्रज्ञान को परखता हूँ।
यों कहकर उसने भी अपने कंधे पर लटके थैले में हाथ डालकर कागज की कुछ पुड़ियाँ निकाल लीं। उनमें से छाँटकर एक पुड़िया से उसने लाल रंग का कुछ चूर्ण अपने दाएँ हाथ की हथेली पर रखा, आँखें मूँदकर किसी मंत्र का जाप किया और फूँक मारकर चूर्ण को कंकाल पर उड़ा दिया।                                                                                                                            आगामी अंक में जारी

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