मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की छठी कड़ी…
गतांक से
आगे…
(छठी कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
कमाल हो गया। कंकाल पर खाल का आवरण चढ़ गया। सबके देखते–देखते वह कंकाल एक बब्बर शेर का शव बन
गया।
‘अरे वाह! देखो मैं भी अपनी विद्या में सफल हो गया।’ कहता हुआ वह खुशी से उछल पड़ा। अपने दो
साथियों के प्रयोग की सफलता को देखकर तीसरे ब्राह्मण–पुत्र के मन में भी अपनी विद्या के
प्रदर्शन का भाव जाग उठा। वह बोला—‘तुम
दोनों ने अपनी–अपनी
विद्या की परख सफलतापूर्वक कर ली। अब मेरी बारी है।’
‘हाँ–हाँ,
क्यों नहीं।’ वे दोनों बोले, लेकिन चौथे ने टोका—‘तुम क्या करोगे?’
‘मैं अपनी विद्या से इस शव में प्राण डाल दूँगा।’ तीसरा बोला।
‘यह शव बकरी का नहीं, शेर का है मेरे भाई। प्राण डाल दोगे तो यह हमें खा नहीं जाएगा?’
चौथे ने चेताया।
‘अपने जीवनदाताओं को ही खा जाएगा!!’ पहले दो एक साथ बोल उठे,‘आदमी जितना कृतघ्न प्राणी नहीं होता शेर।’
‘अरे छोड़ो।’ तीसरा
उपहासपूर्वक बोला,‘यह
तो दो पोथियाँ ज्योतिष और भविष्यवाणी की पढ़कर आया है। इस बेचारे को प्राणिशास्त्र
का क्या पता?’ यह
कहकर उसने कमण्डल से थोड़ा जल अपनी दायीं हथेली में डालकर मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया।
‘रुको,’ चौथा
बोला,‘पहले आप सब उस पेड़ पर
चढ़ जाओ। इतने भयंकर जानवर को जीवित करने का खतरा यों ही मत उठाओ।’
‘हमारा यह कुछ नहीं बिगाड़ने वाला।’ वे हँसकर बोले,‘तूने इस पर कोई अहसान नहीं किया इसलिए
यह तुझे ही खाएगा। जा, उस
पेड़ पर चढ़ जा।’
यह जानकर कि अपने ज्ञान के अहंकार में
वे तीनों अपना विवेक खो चुके हैं, चैथा
दौड़कर गया और पेड़ पर चढ़ गया। तीसरे ने उसके बाद मंत्र पढ़ा और हथेली में ले रखे जल
को शेर के शव पर छिड़क दिया। शेर जीवित हो उठा। यह देखते ही तीसरा जोरों से
चिल्लाया,‘मैंने कर दिखाया।
देखो, मैंने कर दिखाया।’
उसकी आवाज़ सुनकर शेर ने उधर गरदन घुमाई। तीन अनजान मनुष्यों को
वहाँ खड़ा पाकर वह जोर से गुर्राया। उसने एक ही छलाँग में उन्हें धर दबोचा और खा
गया।
यह कहानी सुनाकर दादाजी चुप हो गए।
‘‘फिर?’’ कुछ
देर तक उनके पुन: बोलने का इंतज़ार करने के बाद सुधाकर ने पूछा।
‘‘तू निरा बुद्धू है।’’ इस सवाल से किलसकर दादाजी उन्हें झिड़कते–से बोले,‘‘फिर क्या?…सीधी–सादी बात है कि जो किताबी ज्ञान पर चलते
थे, वे तीनों मारे गए और
जो समझदारी का, अपने
विवेक का सहारा लेकर पेड़ पर चढ़ गया था वो बच गया।’’
‘‘हाँ, लेकिन
आपकी कहानी का उस बात से क्या सम्बन्ध है कि अल्ताफ पिछले किसी पेट्रोल पंप पर
क्यों नहीं रुका?’’ सुधाकर
ने पूछा।
‘‘कहानी उस बात पर नहीं, बल्कि तेरी इस बात पर सुनाई थी कि अल्ताफ ने पेट के प्रेशर को
इतनी देर क्यों रोका जबकि बुजुर्गों ने किसी भी प्रेशर को रोकने की मनाही की हुई
है।’’ बात में सुधार करते
हुए दादाजी बोले।
‘‘चलिए, यही
सही।’’
‘‘देखो, सबसे
पहली बात तो यह है कि वह पेट के प्रेशर को कुछ देर तक बर्दाश्त कर सकने की हालत
में था सो उसने उसे बर्दाश्त किया और यहाँ तक चला आया। अगर वह बुजुर्गों की कही
बात पर यानी किताबी ज्ञान पर चलता तो बर्दाश्त करने न करने की बात ही खत्म हो जाती।
गाड़ी को वह कहीं भी खड़ी करता और फ़ारिग हो लेता लेकिन उसे पता था कि उसकी गाड़ी में
दो छोटे बच्चे, एक
औरत और एक बूढ़ा आदमी बैठा है जो ख़तरा आने पर न तो ज़्यादा लड़ सकते हैं और न ही ज़्यादा भाग सकते हैं। रहा
तुझ–जैसा जवान आदमी,
सो तुझ पर वो इसलिए भरोसा नहीं कर सकता
कि तू उसके लिए अनजान है। यही वजह है कि गाड़ी को उसने थोड़ा शहरी इलाका आ जाने पर
रोका। आया समझ में?’’
‘‘बात तो आपकी ठीक है।’’ सहमति में सिर हिलाते हुए सुधाकर बोले।
‘‘देखो बेटा, ये
लोग दिन–रात सड़कों पर ही चलते
हैं। हजार तरह के लोगों से रोजाना मिलते हैं, कितने ही अच्छे–बुरे किस्से सुनते हैं। इसलिए छोटी–छोटी बातों का ध्यान रखने की तमीज़ इनमें
पैदा हो जाती है।’’ दादाजी
ने बताया।
इसी दौरान अल्ताफ फ्रेश होकर लौट आया। आते ही बोला,‘‘सर, आप लोगों में से भी किसी को, भाभीजी को, बच्चों को फ्रेश होकर आना हो तो हो आइए।
यहाँ एकदम साफ–सुथरा
और सुरक्षित है। आगे आपको या तो नदी किनारे या किसी होटल वगैरा में किराए का कमरा
लेकर फ्रेश होने के लिए जाना पड़ेगा। वैसे तो 8–9 बजे तक हम श्रीनगर पहुँच ही जाएँगे।’’
‘‘सुनो,’’ उसकी
बात सुनकर दादाजी ने सुधाकर से कहा,‘‘ठीक कहा इसने। पहले मैं फ्रेश हो आता हूँ। तब तक तुम बहू को
जगाकर रखो। मेरे आने के बाद तुम दोनों चले जाना। बच्चों को अभी सोने दो, वापस आकर मैं जगा लूँगा।’’
‘‘जी, ठीक
है।’’ सुधाकर ने कहा।
दादाजी गाड़ी से उतरकर उधर चले गए जिधर पहले अल्ताफ गया था।
आगामी अंक में जारी…
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