सोमवार, जनवरी 13, 2014

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की पन्द्रहवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                                                                                                         (पन्द्रहवीं कड़ी)
                                                                           चित्र:बलराम अग्रवाल
‘‘यानी कि सुलह हो गई।’’ मुस्कराकर दादाजी ने कहा और आगे की कथा का तारतम्य जोड़ने से पहले बोले,‘‘वैसे…थोड़ाबहुत झगड़ा कर भी सकते हो, मेरी ओर से इजाज़त है। भई, वह बचपन ही क्या जिसमें शरारतें और उछलकूद न हों।’’ फिर, कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले,‘‘पहले घूमघाम या कहानी?’’
दोनों बच्चे एकसाथ चीखे,‘‘पहले कहानी…।’’
‘‘श्श्श्श्–––’’अपने होठों पर उँगली रखकर दादाजी फुसफुसाए,‘‘धीरे…बहुत धीरे।’’
‘‘पहले कहानी…।’’ उनकी नकल करते हुए बच्चे भी फुसफुसाए और जोरों से हँस दिए ।
दादाजी ने पुन: अपने होठों पर उँगली रखी और आवाज निकाली,‘‘श्श्श्श्…!’’ फिर पूछा,‘‘कहाँ थे हम?’’
‘‘विष्णुजी का कहना मानकर नारदजी ने अपनी मनपसन्द कन्या का ध्यान मन में किया और नदी के जल में तीन डुबकियाँ लगाकर जो बाहर निकले तो बन्दरजैसा चेहरा लेकर।’’ मणिका ने बताया।
‘‘हाँ।’’ दादाजी ने तुरन्त पूछा,‘‘जानते हो वह घटना कहाँ घटी थी?’’
‘‘कहाँ दादाजी?’’
‘‘कहा जाता है कि इस श्रीनगर में ही।’’ दादाजी बोले,‘‘यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव हैभक्तियाना। उस गाँव में जिस जगह पर इन दिनों लक्ष्मीनारायण मन्दिर है, लोग कहते हैं कि वहीं पर नारदजी के मन में ब्याह करने का लालच जागा था और उसी के आसपास अलकनन्दा के मोड़ पर नारदकुण्डहै जहाँ पर डुबकी लगाकर उन्होंने बन्दर की शक्ल पाई थी।’’
‘‘बाप रे! कितना पुराना है यह नगररामायणकाल से भी पहले का!’’ मणिका आश्चर्यपूर्वक बुदबुदाई।
‘‘अच्छा, एक काम करते हैं…’’ उसकी बात पर /यान दिए बिना दादाजी ने प्रस्ताव रखा,‘‘तुम्हारे मम्मीडैडी को आराम करने देते हैं और हम लोग थोड़ी देर बाहर घूम आते हैं।’’
‘‘और अगर इस बीच जागकर वे हमें ढूँढने लगे तो?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘तो क्या, हम गेस्टहाउस के मैनेजर को बताकर जाएँगे।’’ दादाजी ने कहा।
‘‘नहीं,’’ निक्की बोला,‘‘उन्हें सोया छोड़कर अकेले घूमने जाना अच्छा नहीं लगेगा दादाजी।’’
‘‘निक्की ठीक कह रहा है दादाजी,’’ इस बार मणिका धीमेसे बोली,‘‘इस तरह अकेलेअकेले घूमने में मज़ा नहीं आएगा। सभी साथ रहने चाहिए।’’
उन दोनों की बातें सुनकर दादाजी कुछ देर तक उनका चेहरा निहारते रहे; फिर बोले,‘‘शाब्बाश। मैं तो दरअसल तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। हमेशा याद रखोजब भी ग्रुप के साथ कहीं जाओ, अकेले घूमने मत निकलोय और किसी वजह से अगर निकलना पड़ भी जाए तो बाकी लोगों के लिए संदेश ज़रूर छोड़ जाओ कि किस कारण से, कहाँ जा रहे हो और कितनी देर में वापस लौट आओगे।’’
वे अभी ये बातें कर ही रहे थे कि किसी ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। उन तीनों की निगाहें एकसाथ दरवाज़े की ओर घूम गईं।
‘‘कौन?’’ दादाजी का इशारा पाकर मणिका ने पूछा।
‘‘दरवाज़ा खोलिए बाबूजी, हम हैं।’’ बाहर से सुधाकर की आवाज़ आई।
निक्की फुर्ती के साथ उठा और जाकर दरवाज़ा खोल दिया। ममता और दिवाकर अन्दर आ गए।
‘‘आप लोग सोये नहीं?’’ उन तीनों को जागते और तरोताज़ा बैठे देखकर सुधाकर ने आश्चर्यपूर्वक पूछा।
‘‘ये लोग लड़ भी लिए और सो भी लिए।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘और आप?’’
‘‘भई ये सो गए तो कुछ देर मैं भी सो लिया।’’ दादाजी ने कहा,‘‘अभी हम  लोग आप दोनों को ही याद कर रहे थे।’’
‘‘हम तो काफी देर से जागे पड़े थे बाबूजी, यही सोचकर नहीं आए कि आप लोग आराम कर रहे होंगे।’’ ममता ने कहा।
‘‘तो…चलें कुछ देर के लिए कहीं घूमने?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘अभी मैंने खाने का ऑर्डर दिया है।’’ सुधाकर ने बताया।
‘‘ठीक है।’’ दादाजी बोले,‘‘ऐसा करो, मोबाइल पर अल्ताफ को बता दो कि वह खाना खाकर तैयार रहे। हम लोग 40–45 मिनट बाद घूमने को निकलेंगे।’’
सुधाकर ने वैसा ही किया जैसा दादाजी ने बताया था।

आगामी अंक में जारी

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