'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की सोलहवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…(सोलहवीं कड़ी)
चित्र:आदित्य अग्रवाल |
खाना खा चुकने के बाद वे सब बाहर निकले। दादाजी ने उन्हें
श्रीनगर के आसपास की अनेक जगहों पर घुमाया। देवलगढ़ और सुमाड़ी के मंदिर दिखाए और जब
तक वे वापस यात्री–निवास
के निकट पहुँचे, आसमान
पर तारे चमकने लगे थे।
‘‘कितना मनोरम दृश्य है!’’ आसमान की ओर देखते हुए सुधाकर के मुख से
निकला,‘‘ऐसा लग रहा है कि
तारों की चादर एकदम हमारे सिर पर तनी हुई है।’’
‘‘विधि का यही तो विपरीत विधान है बेटे।’’ उनकी बात सुनकर दादाजी ने कहा,‘‘पहाड़ के दृश्य मनोरम होते हैं और जीवन
कठिन। जीवनयापन की कठोरता यहाँ के वासी के शरीर को पत्थर बना देती है लेकिन
नैसर्गिक सुषमा उसके मन को कोमल बनाए रखती है।…’’ फिर अपनी भावुकता पर काबू पाकर बोले,‘‘यह बाईं ओर वाला रास्ता देख रहे हो?’’
उस समय वे गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर की ओर मुँह करके खड़े थे।
सभी उनके द्वारा इंगित दिशा में देखने लगे। दादाजी बताने लगे,‘‘हरिद्वार और ऋषिकेश के रास्ते से इधर
आने वाले यात्री इस, सामने
वाली सड़क से यहाँ पहुँचते हैं। उत्तर प्रदेश से गढ़वाल में प्रवेश के ये ही प्रमुख
द्वार हैं—ऋषिकेश और कोटद्वार।’’
‘‘इस रास्ते से आने पर भी पौड़ी बीच में पड़ता है क्या?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘नहीं बेटे, ये
दोनों रास्ते यहाँ श्रीनगर में आकर एक होते हैं।’’
‘‘इधर से आने पर कौन–कौन सी जगहें बीच में पड़ती हैं दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘इधर से ?…हरिद्वार
और ऋषिकेश तो तुमने देख ही रखे हैं। मैं उनके बाद के स्थान तुमको बताऊँगा।’’
दादाजी बोले,‘‘ऋषिकेश के बाद बस ब्यासी नाम की जगह पर
रुकती है। प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से यह बड़ा रमणीक स्थान है। उसके बाद
देवप्रयाग आता है। देवप्रयाग में बदरीनाथ की ओर से आनेवाली अलकनन्दा धारा का और
गंगोत्री से आनेवाली भागीरथी धारा का संगम होता है और वहीं से उस संयुक्त धारा का
नाम ‘गंगा’ पड़ता है।’’ यह बताते हुए दादाजी यात्री–निवास के अपने कमरे तक आ पहुँचे। उनके
पीछे–पीछे बच्चे और उनके
मम्मी–डैडी यानी ममता और
सुधाकर भी चले आए। दादाजी ने कमरे का ताला खोला और अन्दर प्रवेश करते हुए बोले,‘‘देवप्रयाग तीन पहाड़ों के ढलान पर बसा
हुआ नगर है। पहला ‘नरसिंह’
जो पौड़ी की सीमा में आता है तथा दूसरे
और तीसरे ‘दशरथाचल’ व ‘गृध’ पर्वत जो टिहरी की सीमा में आते हैंय ये
तीनों ही पर्वतीय भाग झूला–पुलों
से आपस में जुड़े हुए हैं।’’
‘‘तब तो यह बड़ा खूबसूरत नज़ारा बनता होगा दादाजी?’’ निक्की बोला।
‘‘बेहद खूबसूरत। कहतें हैं कि देवशर्मा नाम के एक ब्राह्मण को
भगवान विष्णु ने वर दिया था कि त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लेने पर मैं
तुम्हारे क्षेत्र में आकर तप करूँगा। रावण–कुम्भकरण आदि राक्षसों को मारने के बाद भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने वहाँ यानी देवप्रयाग
क्षे़त्र आकर तप किया था, तब
देवशर्मा ने उन्हें पहचान लिया। तभी से उस नगर का नाम देवप्रयाग हो गया।’’
‘‘उससे पहले उस जगह का क्या नाम था बाबूजी?’’ ममता ने पूछा।
‘‘हाँ, तू
किसी बच्चे से कम थोड़े ही है।’’ दादाजी
मुस्कराकर बोले,‘‘तू
भी पूछ जो मन में आए।’’
‘‘बताइए न दादाजी।’’ निक्की बोला,‘‘ठीक
ही तो पूछा है मम्मी ने।’’
‘‘भई, पूछा
तो ठीक है,’’ दादाजी
हकलाकर बोले,‘‘लेकिन
यह रामायण–काल की घटना है और
किसी ने भी इस सवाल का जवाब कहीं लिखा नहीं है। कुछ नाम, कुछ घटनाएँ बीतते समय के साथ–साथ इतनी अधिक अप्रासंगिक हो जाती हैं कि याद रखने लायक भी
नहीं रह पातीं; यानी बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। पहले क्या नाम रहा होगा, कोई नाम रहा भी होगा या नहीं कौन जाने।
अब तो इसका नाम देवप्रयाग है, बस।
घूमने और देखने लायक यों तो और–भी
बहुत–से स्थान देवप्रयाग
में हैं; लेकिन मुख्य स्थान है देवप्रयाग के पास ‘सीतावनस्यू’ नाम का वन। कहते हैं कि राम के द्वारा
त्याग दिए जाने पर सीताजी इसी वन में रही थी और इसी के पास ‘फलस्वाड़ी’ गाँव के बाहर वह धरती माता की गोद में
समायी थीं।’’
‘‘तब तो लव और कुश का जन्म भी इसी वन में हुआ होगा दादाजी?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यानी कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम देवप्रयाग तक फैला था!’’
‘‘हो सकता है।’’ दादाजी
ने कहा,‘‘उसके बाद कीर्तिनगर
आता है और उसके बाद यह श्रीनगर।’’
‘‘आपने देवप्रयाग को देखने के बारे में हमारी जिज्ञासा जगा दी
बाबूजी।’’ सुधाकर ने कहा।
दादाजी बोले,‘‘चिंता
न करो। बदरीनाथ धाम से वापस घर लौटते वक्त हम देवप्रयाग वाले रास्ते से ही जाएँगे।…सुनो,
आज का दिन तो ढल ही गया।’’ उन्होंने सुधाकर से कहा,‘‘ऐसा करो, यात्री–निवास के मैनेजर से कहो कि हम लोग सवेरे
जल्दी यहाँ से निकलेंगे इसलिए सुबह तक के लेन–देन का अपना हिसाब वह आज ही हमसे कर ले।
अल्ताफ को भी बोल दो कि सुबह चार बजे वह टैक्सी में तैनात मिले। हम लोग
रुद्रप्रयाग की ओर जाने वाली सड़क पर टैक्सी को आगे बढ़ाएँगे। ठीक है?’’
‘‘जी बाबूजी, ठीक
है।’’ सुधाकर ने कहा,‘‘आप लेन–देन की चिन्ता न करो। वह सब मैं निपटा
लूँगा। लेकिन आज्ञा हो तो एक बात कहूँ?’’
‘‘हाँ–हाँ,
क्यों नहीं?’’
‘‘सवेरे आराम से न निकलें; जल्दी किस बात की है?’’
‘‘तू वास्तव में ही बुधप्रकाश है।’’ यह सुनकर दादाजी प्रसन्नतापूर्वक बोले,‘‘बुद्धि खराब है जो तुझे मैं बुद्धू कहता
हूँ। बच्चों को तो समझाता आ रहा हूँ कि यात्रा का आनन्द लेते हुए, हर जगह को जानते–समझते हुए यात्रा करनी चाहिए और खुद
भागमभाग में लगा हूँ। ठीक है, हम
कल यहाँ से निकलेंगे, वह भी आराम के साथ।’’
आने वाले कल का कार्यक्रम अलसुबह से आगे खिसकवाकर सुधाकर ने
जेब से अपना मोबाइल निकाला और अल्ताफ का नम्बर तलाश करते हुए कमरे से बाहर निकलने
लगे। बाबूजी के चरण स्पर्श कर ममता भी उनके पीछे ही निकलकर अपने कमरे की ओर बढ़
चली। उसको जाता देख बच्चे बोले,‘‘गुड
नाइट मम्मीजी।’’
‘‘वेरी वेरी गुड नाइट मेरे बच्चो!’’ मम्मी ने मुस्कराकर कहा और बाहर निकल
गई।
आगामी अंक में जारी…
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें