'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की उन्नीसवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…
(उन्नीसवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
बदरीनाथ की ओर जाने वाली पहली बस रुद्रप्रयाग से सुबह पाँच–साढ़े पाँच बजे चल देती है। चलने से पहले बस का ड्राइवर बार–बार इतनी तेज़ हॉर्न बजाता है कि आसपास की इमारतों के मालिक और
उनके बीवी–बच्चे अपने–आप को कोसने लगते हैं कि उन्होंने क्यों
इतनी गलत जगह पर मकान बनवा लिया? दादाजी
की भी नींद खुल गई। उनके मन में एक बार तो यह विचार अवश्य आया कि बच्चों को भी जगा
दें और बाहर का नज़ारा दिखाने को ले जाएँ लेकिन
अन्तत: उन्हें लगा कि बच्चों को सोने देना चाहिए अन्यथा दिन के समय वे टैक्सी
में सोते हुए जाएँगे और यात्रा का पूरा मज़ा नहीं ले पाएँगे। यह सोचकर वे अकेले ही
कमरे से बाहर निकले तो देखा कि विश्रामघर का मैनेजर भी तैयार होकर अपनी कुर्सी पर
आ जमा है।
‘‘जय बद्री विशाल बाबूजी!’’ उन्हें देखकर मैनेजर ने अभिवादन किया।
‘‘जय बदरी विशाल भाई मैनेजर साहब!’’ उसकी मेज के सामने वाली कुर्सी पर बैठते
हुए दादाजी ने उससे पूछा,‘‘इतनी
जल्दी जाग जाते हो?’’
‘‘माताजी–पिताजी
ने बचपन से ही चार बजे जाग जाने की आदत डाल दी है बाबूजी…’’ मैनेजर ने कहा,‘‘नित्यकर्म से निबटकर सुबह पाँच बजे
भगवान बद्रीनाथ को स्नान कराके, पुष्प
अर्पित करते हैं और अगर–धूप
दिखाकर, प्रणाम करके जनता की
सेवा के लिए इस कुर्सी पर बैठ जाते हैं।’’
‘‘अभी पाँच तो बजे भी नहीं हैं!’’ दादाजी ने घड़ी की ओर इशारा किया।
‘‘नहीं बजे हैं तो बज जाएँगे…’’ मैनेजर मुस्कराकर बोला। फिर पूछा,‘‘चाय लेंगे?’’
‘‘आसानी से मिल जाए तो ले लेंगे।’’
मैनेजर ने तुरन्त अपनी मेज पर रखे टेलीफोन का चोगा उठाया और
कोई नम्बर डायल करके कहा,‘‘दो
चाय इलायची वाली।’’
दस मिनट बाद ही कम उम्र की एक लड़की चाय से भरे काँच के दो
गिलास लोहे के तारों से बने एक छीके में रखकर ले आई। मैनेजर ने छीके से निकालकर एक
गिलास बाबूजी की ओर बढ़ाया और दूसरा अपने हाथ में लेकर उनसे बोला,‘‘शुरू कीजिए।’’
‘‘धन्यवाद।’’ बाबूजी
ने कहा और चाय पीना शुरू कर दिया। काफी देर तक वे दोनों उत्तराखण्ड की संस्कृति पर
बातें करते रहे। मैनेजर उत्तराखण्ड की संस्कृति सम्बन्धी दादाजी के ज्ञान से बहुत
प्रभावित हुआ। उनकी यह मीटिंग तब समाप्त हुई जब जागने के बाद बाबूजी की आवाज़ सुनकर
सुधाकर अपने कमरे से निकलकर इनके पास आ गए।
चित्र:बलराम अग्रवाल |
सुबह के सारे कर्म रुद्रप्रयाग में निबटाकर यह कारवाँ दस–ग्यारह बजे आगे की यात्रा पर चला।
‘‘दो नदियों के संगम को ही प्रयाग कहते हैं न दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘बिल्कुल सही।’’ दादाजी
उसके सिर पर हाथ घुमाकर बोले,‘‘यह
रुद्रप्रयाग भी मंदाकिनी और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’
‘‘बदरीनाथ यहाँ से कितनी दूर होगा?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘होगा करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर।’’
‘‘अब रुद्रप्रयाग के बाद कौन–सी जगह आएगी?’’ टैक्सी ने नदी का पुल पार किया तो
निक्की ने दूसरा सवाल किया।
‘‘घोलसिर।’’
‘‘और उसके बाद?’’ मणिका
ने पूछा।
‘‘उसके बाद आएगा—गौचर।’’
दादाजी ने बताया,‘‘यह भी तुमको एकदम प्लेन जैसा लगेगा। हर
साल बाल–दिवस यानी 14 नवम्बर से यहाँ के मैदान में एक बड़ा
मेला लगता है। दूर–दूर
के व्यापारी और मेला देखने के शौकीन लोग इस मेले में आते हैं।’’
बच्चे अब प्रकृति के सौंदर्य का आनन्द लेते हुए चुपचाप चलने
लगे थे। तेज गति से बहती अलकनन्दा की धारा उनका मन मोह रही थी। धारा के बीच में
पड़ी शिलाओं से टकराकर जल में लहरें पैदा होतीं और पीछे से आ रही लहरों की दौड़ में
शामिल हो जातीं। कहीं किसी गहरे मोड़ पर अलकनन्दा यदि आँखों से ओझल हो जाती तो
बच्चे बेचैन हो उठते। ऐसा अद्भुत खेल तो उन्होंने कभी सोचा भी न था। काश! टैक्सी
चलती रहे, अलकनन्दा की धारा,
ऊँचे–ऊँचे पर्वत और शुद्ध सफेद बादलों में
बनते–बिगड़ते आकार दिखाई
देते रहें तथा वे देखते रहें यों ही बस!
टैक्सी गौचर पहुँच गई। जैसाकि दादाजी ने बताया था—गौचर में काफी बड़ा मैदान उन्हें नजर
आया। यह नगर भी उनको श्रीनगर–जैसा
ही विकसित लगा।
‘‘यहाँ से चलकर हम कहाँ पहुँचते हैं दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘जहाँ के लिए चलते हैं वहीं।’’ दादाजी बोले।
‘‘ओह दादाजी, ठीक–ठीक बताइए न।’’
‘‘ठीक–ठीक
बताने के लिए मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ—कुन्ती कौन थी?’’
‘‘पाण्डवों की माँ।’’ निक्की तेजी से बोला।
‘‘कितने बेटे थे उनके?’’ दादाजी ने पुन: पूछा।
‘‘पाँच।’’ उसी
तेजी के साथ निक्की पुन: बोला।
‘‘गलत।’’ मणिका
बोली।
‘‘तुम बताओ।’’ दादाजी
ने उससे पूछा।
‘‘तीन।’’ वह
बोली,‘‘युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन।’’
‘‘शाबाश।’’ दादाजी
ने उसकी पीठ थपथपाई।
‘‘नकुल और सहदेव भी तो थे दादाजी।’’ निक्की ने याद दिलाया।
‘‘चल बुद्धू, वे
तो माद्री के बेटे थे।’’ मणिका
बोली।
‘‘मणिका ठीक कहती है निक्की।’’ दादाजी ने उसे समझाया,‘‘महाराज पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं—कुन्ती और माद्री। कुन्ती को बचपन से ही
साधुओं–संन्यासियों की सेवा
करने का शौक था। उसकी इस सेवा से प्रसन्न होकर एक संन्यासी ने उसे एक ऐसा मन्त्र
सिखा दिया जिसे पढ़कर वह जिस देवता को चाहे अपने पास बुला सकती थी। कुन्ती बड़ी खुश
हुई। संन्यासी के जाने के बाद उसने मन्त्र की शक्ति को जाँचने के लिए भगवान सूर्य
का ध्यान करते हुए मन्त्र पढ़ा। सूर्यदेव तुरन्त उसके सामने प्रकट हो गए। बोले—जो कुछ चाहिए, माँग लो। उस समय बहुत कम उम्र थी कुन्ती
की…नासमझ थी। घबराकर बोली—बेटा
चाहिए । बस, सूर्य
भगवान एक बच्चा उसकी गोद में रखकर अन्तर्धान हो गए। उनके जाने के बाद कुन्ती एकदम
डर गई। सोचने लगी—लोग
क्या कहेंगे, एक
कुँआरी कन्या के बेटा हो गया!! मन्त्र की बात पर तो कोई विश्वास करेगा नहीं। शर्म
और बेइज्जती से बचने के लिए उसने एक टोकरी में उस बच्चे को अच्छी तरह से रखकर नदी
में बहा दिया।’’
‘‘हाँ दादाजी,’’ निक्की
इस बार फिर तेजी से बोल उठा,‘‘आपने
एक बार पहले भी सुनाई थी यह कहानी। कुन्ती के उस बेटे का नाम कर्ण रखा गया था।’’
‘‘शाबाश!’’ प्रसन्न
होकर अबकी बार दादाजी ने निक्की के सिर पर हाथ फिराया,‘‘बड़े होकर इस कर्ण ने सूर्य भगवान की कड़ी
तपस्या की थी। जिस जगह पर रहकर उसने तपस्या की थी, गौचर के बाद हम वहीं पहुँचेंगे—कर्णप्रयाग।’’
‘‘यह भी प्रयाग!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।
‘‘हाँ बेटे! ऋषिकेश की ओर से यात्रा शुरू करें तो देवप्रयाग,
रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, सोनप्रयाग, नन्दप्रयाग और विष्णुप्रयाग—बदरीनाथ यात्रा में उत्तराखंड के ये
प्रमुख प्रयाग रास्ते में पड़ते हैं।’’ दादाजी बोले,‘‘ये
सभी विभिन्न नदियों के संगम पर बसे हुए हैं। कर्णप्रयाग अलकनन्दा और पिंडर नदी के
संगम पर बसा हुआ है।’’
आगामी अंक में जारी…
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